नात-ए-रसूल-ए-मक़बूल
नात-ए-रसूल-ए-मक़बूल
दिल हो गया मदीने की ख़ुशबू से बाग़ बाग़
और दिल के साथ-साथ मुअत्तर हुआ दिमाग़
जब से हुआ है इश्क़-ए-नबी दिल में आशकार
महसूस दिल भी होने लगा नूर का चराग़
लब पर दरूद, सीने में याद-ए-रसूल-ए-पाक
दिल को तलब है दीद की, आँखें हैं मह्व-ए-राग़
लब पर दरूद आते ही रुत ही बदल गई
जैसे जला हो रात के सीने में इक चराग़
दिल जब तपिश में डूबा, तो इक नूर मिल गया
अश्कों से जब हुआ है दर-ए-मुस्तफ़ा बलाग़
है इश्क़-ए-मुस्तफ़ा ही हक़ीक़त की इंतिहा
इसके बग़ैर भी है, ख़ुदा का कोई सुराग़?
तारों से बात करता है, अब दिल का हर फ़िराक़
जब से लबा-लब आया है नातों का इक अयाग़
ज़िक्र-ए-नबी की लय में है इक ख़ास इहतियाज
दिल की दुआ में जैसे हो ग़िरया भरा सुराग़
मुख़्तार ऐसे ग़र्क़ हों इश्क़-ए-रसूल में
दुनिया को मुँह लगाए न हरगिज़ कभी दिमाग़
✍️ मुख़्तार तिलहरी स़क़लेनी बरेलवी
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