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भ्रष्टाचार पर शायरी और कविता सामाजिक बुराई पर व्यंग्य शायरी

भ्रष्टाचार पर कविता | भ्रष्टाचार पर शायरी Bhrashtachar Shayari

भ्रष्टाचार फैला हर तरफ, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
अनाचार की बढती गलियाँ, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
घर-घर में हो रही रंगरेलियां, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
न्याय फाइलों तले दबा पड़ा, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
पोथियाँ धरी है म्यूजियम में, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
अनीति बन गयी नयी रीति, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
संसद चले उचक्कों के बल, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
गरीब सड़कों पर मिमियाते, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
हिन्दी हिन्दी पर राज अंग्रेजी, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
सड़कों पर आगाज अंग्रेजी, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
विश्व गुरु अब है बिन बाती, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
भटक रहा हर पावन घाटी, ढूँढ रहा मै भारत हूँ।
विनोद कुमार जैन वाग्वर

सामाजिक बुराई पर व्यंग्य शायरी, समाज सुधार पर कविता, Bhrashtachar Par Kavita

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Poetry On Corruption - Satirical Shayari On Social Evil Hindi

जंगल में आंदोलन

जंगल के सभी जंतु जीव
पेड़ पौधा निर्जन सजीव
खड़े हुए राजा के खिलाफ
मिलकर बुलंद किये आवाज
लेकिन उनकी सुनता कौन
शेर के सामने बोलता कौन

भ्रष्टाचार पर शायरी

राजा बड़ा चतुर बलबान
प्रजा की बात सुनता कौन
हो न सके बड़ा आंदोलन
इसलिए आपस मे लड़वाओ
जो बात मान ले उसे छोड़ दो
जो न माने राष्ट्रद्रोही कहलवाओ
मीडिया में करो इतना दुष्प्रचार
मच जाए जंगल मे हाहाकार
चूहे के पीछे बिल्ली लगवाओ
बिल्ली के पीछे लगवाओ कुत्ता
खरगोश हिरण हो या सियार
कोई हमसे न ज्यादा होशियार
राजमहल की हो कड़ी सुरक्षा
किला ऐसा की भेदन मुश्किल
शेर से लड़ने का परिणाम कैसा
कर दो इनका जीना मुश्किल
घृणा विरुद्ध में इतना फैलाओ
की आपस मे ही उलझ जाए
कदम कदम पर लड़े ये ही
लड़ कर के ये मर जाए
गीदड़ तो है बड़ा चलाक
आकर शेर को दिया प्रस्ताव
एक एक करके सब को बुलाओ
बुला बुला कर खाते जाओ
जब ये जाएंगे नही वापस
सब कहेंगे बिक गया कायर
षड्यंत्र का जाल बिछाए
षडयंत्र से इन्हें भगाए
आक्रामक रूप ठीक नही
भेजकर गुप्तचर हिंसा फैलाये
कड़े कानून का करे निर्माण
आंदोलन नंगा हो सरेआम
ढील देना छोड़ दीजिए
बदलिए जंगल का संविधान
शेर को उसकी बातें भाई
जमकर उनमें युद्ध करवाया
आंदोलन हो गया पूरा बदनाम
लग गया उसमे दाग तमाम
बेटा बाप को शंका से देखता
पड़ोसी ताने देते न थकता
मारा गया भगतसिंह जंगल का
गुण गाया गया शेर के मंगल का
एक एक करके हुए जीव परेशान
बोलने पर लगाया गया लगाम
पशुओं की वाणी छीनी
जीवो को बना दिया बेजुबान
अब जंगल मे होता अत्याचार
देखता सहता सब चुपचाप
छीना गया सबका घर आसान
बचाया गया शेर का सिंहासन
एक एक कर पशु को खाता
शेर गुरुर में नित्य इतराता
कुचला गया सांपो का फन
मृतसैय्या पर सोया आंदोलन।।
सोनू कुमार मिश्रा

अरे रे सुनो चौहान रुको: देश भक्ति वीर रस की कविता

इंसानियत में मत झुको
एक दो नही सत्रह बार
देश लूटने आया गद्दार
माफ ना ही गुस्ताखी हो
लुटेरो को ना माफी हो
चूक गए तो राज लेगा
देश को कंगाल करेगा
सांप को मत छोड़ो तुम
गर्दन तो मरोड़ो तुम
किसे दिखाते दया धर्म
क्यो जख्मों पर मरहम
याद रखना गद्दारो को
जन-गण के हत्यारों को
अरि को रहम दिखाना
शौर्य को वहम दिखाना
छोड़ दो हा छोड़ भी दो
वैरी से मोह छोड़ ही दो
उठा लो खड्ग तलवार
शत्रु समझ करो प्रहार
एक वार में वध ना हो
बारम्बार में शर्म ना हो
सर्प को घायल छोड़ना
शत्रु मौत से मुंह मोड़ना
उचित नही है व्यवहार
अति घातक होगा वार
हुआ वही जो होना था
वैरी कृत्य घिनौना था
करता रहा वह प्रयास
छोड़ा नही निज आस
सत्रहवीं वार,सत्ता पाया
मदमस्त शत्रु इतराया
यही हुआ है सदियों से
लहु से रंजीत नदियों से
दया धर्म महंगा पड़ा है
शत्रु सीना तान अड़ा है
भारत भूमि करे पुकार
अराति को दे ललकार
माफ ना हो गुस्ताखी
शत्रु मृत्यु का हो भागी
उठो चौहान घात करो
आसन पर आघात करो
गजनी का संहार करो
लहु से धरा श्रृंगार करो।
सोनू कुमार मिश्रा

एक कोने में मकड़ी जाल बुन रही : सामाजिक बुराई पर व्यंग्य कविता

मकड़ी
एक कोने में मकड़ी जाल बुन रही
छोटे-छोटे कीड़ो को वह चख रही
मगर गुमसुम कई सन्देश जाल में
फंसा हुआ निर्बोध मकड़जाल में

आखिर इस सरलता का दोष क्या
अपराध का करता कोई बोध क्या
अद्य कैसा है समझ नही पाता
किस उलझन में वह उलझ जाता

हिया में प्रश्न ऐसे ही कई गम्भीर है
जो सुलझने के बदले तो स्थिर है
आखिर सच बताओ मकड़ी कौन
क्यो है इस सत्य पर कलमे मौन

कही है वह कोई खादी तो नही
जो छिपाता कुछ गलत कुछ सही
सियासत के बिछाता है वह जाल
छोड़ जाता है मन मे कई सवाल

उलझाया रोटी कपड़ा मकान को
सजाया है कफ़न की दुकान को
कर में जकड़ कर रखा है मुर्दाघर
छीन चुंका है जिसने कई कई घर

जो रवि - प्रकाश में ग्रहण लगाता
जो अपने छांव में दांव छिपाता
जो सौदा करता है अरमानो का
जो व्यवस्था करता है श्मशानों का

दीपक को बुझाकर प्रकाश लाएगा
चिराग बुझाकर अभिशाप लाएगा
वायदों अश्वासन तो चाँद तारो की
स्वप्न दिखाता झिलमिल सितारों की

सवेरा है कि चहुँओर कोहराम है
अंधा राजा या बहरा यहां इंसान है
सच देखो जन-गण मे त्राहिमाम है
मकड़ी तो बस नाम से बदनाम है।।
सोनू कुमार मिश्रा

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