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श्रम विभाजन और जाति प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज (मूल पाठ) सारांश, प्रश्न उत्तर

श्रम विभाजन और जाति प्रथा


यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता' के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम-विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती । भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता ।

जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्व-निर्धारित ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। 'पूर्व 'लेख' ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग 'निर्धारित' कार्य को 'अरुचि' के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा रुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है।

मेरी कल्पना का आदर्श समाज


जाति प्रथा के खेदजनक परिणामों की नीरस गाथा को सुनते-सुनाते आप में से कुछ लोग निश्चय ही ऊब गए होंगे। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। अतः अब मैं समस्या के रचनात्मक पहलू को लेता हूँ। मेरे द्वारा जाति प्रथा की आलोचना सुनकर आप लोग मुझसे यह प्रश्न पूछना चाहेंगे कि यदि मैं जातियों के विरुद्ध हूँ, तो फिर मेरी दृष्टि में आदर्श समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेंगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श समाज में इतनी गातिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध - पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलत: सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो ।

इसी प्रकार स्वतंत्रता पर भी क्या कोई आपत्ति हो सकती है? गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता के अर्थों में शायद ही कोई 'स्वतंत्रता' का विरोध करे। इसी प्रकार संपत्ति के अधिकार, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औजार व सामग्री रखने के अधिकार जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके के अर्थ में भी 'स्वतंत्रता' पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तो फिर मनुष्य की शक्ति के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्रता क्यों न प्रदान की जाए?

श्रम विभाजन और जाति प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज (मूल पाठ) सारांश, प्रश्न उत्तर

जाति प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे 'दासता' में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि 'दासता' केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। 'दासता' में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

अब आइए समता पर विचार करें। क्या 'समता' पर किसी की आपत्ति हो सकती है। फ्रांसीसी क्रांति के नारे में 'समता' शब्द ही विवाद का विषय रहा है। 'समता' के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। और उनका यह तर्क वज़न भी रखता है। लेकिन तथ्य होते हुए भी यह विशेष महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि शाब्दिक अर्थ में 'समता' असंभव होते हुए भी यह नियामक सिद्धांत है। मनुष्यों की क्षमता तीन बातों पर निर्भर रहती है। (1) शारीरिक वंश परंपरा, (2) सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है, और अंत में (3) मनुष्य के अपने प्रयत्न । इन तीनों दृष्टियों से निस्संदेह मनुष्य समान नहीं होते। तो क्या इन विशेषताओं के कारण, समाज को भी उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए? समता विरोध करने वालों के पास इसका क्या जवाब है?

व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सर्वथा उचित है। परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में असमान हैं, तो क्या इस आधार पर उनके साथ भिन्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाजी मार ले जाएँगे, जिन्हें उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। इस प्रकार पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही 'उत्तम व्यवहार' का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह सुविधा संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना होगा। अतः न्याय का तकाज़ा यह है कि जहाँ हम तीसरे ( प्रयासों की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात है) आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों (जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हैं) पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। और हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, समाज की यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाए।

'समता' का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, 'मानवता' के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है, कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते, बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव होता। इस प्रकार 'समता' यद्यपि काल्पनिक जगत की वस्तु है, फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए, उसके लिए यही मार्ग भी रहता है, क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा पाठ का प्रतिपादय


श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा पाठ डॉ भीमराव अंबेडकर के भाषण ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट'(1936) पर आधारित है। इसका अनुवाद ललई सिंह यादव ने ‘जाति-भेद का उच्छेद’ शीर्षक के अंतर्गत किया है। यह भाषण ‘जाति-पाँति तोड़क मंडल’ (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (1936) में अध्यक्षीय भाषण के लिए लिखा गया था, लेकिन इसमें समाहित क्रांतिकारी विचारों से इस बारे में सम्मेलन के आयोजकों की पूर्ण सहमति न बन सकी जिसके कारण यह सम्मेलन स्थगित हो गया।

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा का सारांश

इस लेख के जरिए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का कहना है कि आज के युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। जातिवाद के समर्थकों का मत है कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक है। लेकिन इसमें आपत्ति यह है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप ले लेता है।

श्रम-विभाजन किसी भी सभ्य समाज की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन यह श्रमिकों को विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों के अस्वाभाविक विभाजन के साथ-साथ विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भावनाओं से भी भर देती है। जाति-प्रथा को अगर श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो भी यह मानव की इच्छा पर आधारित नहीं है। किसी भी सक्षम समाज को चाहिए कि वह लोगों को अपनी इच्छा के अनुसार रोजगार का चुनाव के लिए सक्षम बनाए। जाति-प्रथा में यह अवगुण है कि इसमें मनुष्य का रोजगार उसके प्रशिक्षण या उसकी निजी क्षमता के आधार पर न करके उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर से किया जाता है। यह मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है। ऐसी दशा में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में परिवर्तन से भूखों मरने तक की नौबत आ जाती है। हिंदू धर्म में पेशा बदलने की अनुमति नहीं होने के कारण कई बार बेरोजगारी की समस्या भी उभर आती है।

जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। इसमें व्यक्तिगत रुचि व भावना का कोई स्थान नहीं होता। पूर्व लेख ही इसका आधार है। ऐसी स्थिति में लोग काम में अरुचि दिखाते हैं। इसलिए आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक है क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें स्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।

२.

मेरी कल्पना का आदर्श समाज का प्रतिपादय


इस पाठ में डॉ भीमराव अंबेडकर ने बताया है कि आदर्श समाज में तीन तत्व आवश्य होने चाहिए। समानता, स्वतंत्रता व बंधुता। इनसे लोकतंत्र सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया के अर्थ तक पहुँच सकता है।

मेरी कल्पना का आदर्श समाज का सारांश

इस पाठ में लेखक का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता व भ्रातृत्त पर आधारित होगा। समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि कोई भी परिवर्तन समाज में तुरंत प्रसारित हो जाए। ऐसे समाज में सबका सब कार्यों में भाग होना चाहिए तथा सबको सबकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सबको संपर्क के साधन व अवसर मिलने चाहिए। यही लोकतंत्र है। लोकतंत्र मूलत: सामाजिक जीवनचर्या की एक रीति व समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। आवागमन, जीवन व शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता, संपत्ति, जीविकोपार्जन के लिए जरूरी औजार व सामग्री रखने के अधिकार की स्वतंत्रता पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, परंतु मनुष्य के सक्षम व प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए लोग तैयार नहीं हैं। इसके लिए व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देनी होती है। इस स्वतंत्रता के अभाव में व्यक्ति ‘दासता’ में जकड़ा रहेगा।

‘दासता’ केवल कानूनी नहीं होती। यह वहाँ भी है जहाँ कुछ लोगों को दूसरों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए  मजबूर होना पड़ता है। फ्रांसीसी क्रांति के नारे में ‘समता’ शब्द सदैव विवादित रहा है। समता के आलोचक कहते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। यह सत्य होते हुए भी महत्व नहीं रखता क्योंकि समता असंभव होते हुए भी नियामक सिद्धांत है। मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर है –

१. शारीरिक वंश परंपरा,
२. सामाजिक उत्तराधिकार,
३. मनुष्य के अपने प्रयत्न।

इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते, परंतु क्या इन तीनों कारणों से व्यक्ति से असमान व्यवहार करना चाहिए। असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार अनुचित नहीं है, परंतु हर व्यक्ति को विकास करने के अवसर मिलने चाहिए। लेखक का मानना है कि उच्च वर्ग के लोग उत्तम व्यवहार के मुकाबले में निश्चय ही जीतेंगे क्योंकि उत्तम व्यवहार का निर्णय भी संपन्नों को ही करना होगा। प्रयास मनुष्य के वश में है, परंतु वंश व सामाजिक प्रतिष्ठा उसके वश में नहीं है। अत: वंश और सामाजिकता के नाम पर असमानता अनुचित है। एक राजनेता को अनेक लोगों से मिलना होता है। उसके पास हर व्यक्ति के लिए अलग व्यवहार करने का समय नहीं होता। ऐसे में वह व्यवहार्य सिद्धांत का पालन करता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। वह सबसे व्यवहार इसलिए करता है क्योंकि वर्गीकरण व श्रेणीकरण संभव नहीं है। समता एक काल्पनिक वस्तु है, फिर भी राजनीतिज्ञों के लिए यही एकमात्र उपाय व मार्ग है।

कठिन शब्दों के सरल अर्थ ( शब्दार्थ )

विडंबना – उपहास का विषय। पोषक – बढ़ाने वाला। समर्थन – स्वीकार। आपतिजनक – परेशानी पैदा करने वाली बात। अस्वाभाविक – जो सहज न हो। करार – समझौता। दूषित – दोषपूर्ण। प्रशिक्षण – किसी कार्य के लिए तैयार करना। निजी – अपनी, व्यक्तिगत। दूष्टिकोण – विचार का ढंग। स्तर – श्रेणी, स्थिति। अनुपयुक्त – उपयुक्त न होना। अययाति – नाकाफी। तकनीक – विधि। प्रतिकूल – विपरीत। चारा होना – अवसर होना। पैतृक – पिता से प्राप्त। पारंगत – पूरी तरह कुशल। प्रत्यक्ष – ऑखों के सामने। गंभीर – गहरे। पूर्व लेख – जन्म से पहले भाग्य में लिखा हुआ। उत्पीड़न – शोषण। विवशतावश – मजबूरी से। दुभावना – बुरी नीयत। निविवाद – बिना विवाद के। आत्म-शक्ति – अंदर की शक्ति। खदजनक – दुखदायक। नीरस गाथा – उबाऊ बातें। भ्रातृता – भाईचारा। वांछित – आवश्यक। संचारित – फैलाया हुआ। बहुविधि – अनेक प्रकार। अबाध – बिना किसी रुकावट के। गमनागमन – आना-जाना। स्वाधीनता – आजादी। जीविकोपाजन – रोजगार जुटाना। आलोचक – निंदक, तर्कयुक्त समीक्षक। वज़न रखना – महत्वपूर्ण होना। तथ्य –वास्तविक। नियामक – दिशा देने वाले। उत्तराधिकार – पूर्वजों या पिता से मिलने वाला अधिकार। नानाजन – ज्ञान प्राप्त करना। विशिष्टता – अलग पहचान।
सर्वथा – सब तरह से। बाजी मार लेना – जीत हासिल करना । उत्तम – श्रेष्ठ। कुल – परिवार। ख्याति – प्रसिद्ध। प्रतिष्ठा – सम्मान। निष्यक्ष – भेदभाव रहित। तकाज़ा –आवश्यकता। नितांत – बिलकुल। औचित्य – उचित होना। याला पड़ना – संपर्क होना। व्यवहार्य – जो व्यावहारिक हो । कसीटी – जाँच का आधार।

प्रश्न १.

लेखक द्वारा किस बात को विडंबना कही जा रही है?

उत्तर : लेखक का कहना है कि आधुनिक युग में कुछ लोग जातिवाद के पोषक ( समर्थक ) हैं। और वो लोग जातिवाद को बुराई नहीं बल्कि आधुनिक समाज में ज़रुरी मानते हैं। उनकी यह प्रवृत्ति ही सबसे बड़ी विडंबना है। अर्थात लेखक ने जातिवाद को विडंबना कहा है।

प्रश्न २.

जातिवाद के पोषक अपने मत के समर्थन में क्या तक देते हैं?

जातिवाद के पोषक अपने मत के समर्थन में ग़लत तर्क देते हुए कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक माना गया है। जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का दूसरा रूप है। अत: इसमें कोई बुराई नहीं है।

प्रश्न ३.

लेखक क्या आपत्ति दर्ज कर रहा है?

उत्तर : लेखक द्वारा पहली बात तो यही आपत्तिजनक है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है। लेखक जातिवाद के पोषकों के तर्क को सही नहीं मानता।

प्रश्न ४.

लेखक किन पर व्यंग्य कर रहा हैं?

उत्तर : लेखक आधुनिक युग में जाति-प्रथा के समर्थकों ( पोषकों ) पर व्यंग्य कर रहा है।

प्रश्न ५.

जाति भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती है ?

उतर : भारतीय समाज में जातिवाद के आधार पर श्रम विभाजन बिल्कुल अस्वाभाविक है क्योंकि जातिगत श्रम विभाजन श्रमिकों की रुचि, इच्छा या कार्यकुशलता के आधार पर नहीं होता, बल्कि माता के गर्भ में ही श्रम विभाजन कर दिया जाता है जो विवशता, अरुचि पूर्ण होने के कारण गरीबी और अकर्मण्यता को बढ़ाने वाला है।

प्रश्न ६.

जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है ?

उतर : जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण है क्योंकि भारतीय समाज में श्रम विभाजन का आधार जाति है भले ही श्रमिक कार्य कुशल हो या नहीं उस कार्य में रुचि रखता हो या नहीं इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब श्रमिकों का कार्य करने में न दिल लगे ना दिमाग तो कोई कार्य को कुशलता पूर्वक कैसे कर सकता है यही कारण है कि भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का प्रत्यक्ष और प्रमुख कारण बनी हुआ है।

प्रश्न ७.

लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या किसे मनते है, और क्यो ?

उतर : लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या लोगों का निर्धारित कार्य को मानते हैं ,क्योंकि अरुचि और विवस्ता के कारण आदमी काम को टालने लगता है और कम काम करने के लिए प्रेरित हो जाता है। ऐसी स्थिति में जहां काम करने में न दिल लगे ना दिमाग तो कोई कुशलता कैसे प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न ८.

लेखक ने पाठ के किन पहलुओं में जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है ?

उतर : लेखक ने जाति प्रथा को बहुत हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है जो इस प्रकार है, अस्वाभाविक श्रम विभाजन, बढ़ती बेरोजगारी, अरुचि और विवस्ता में श्रम का चुनाव, गतिशील एवं आदर्श समाज तथा वास्तविक लोकतंत्र का स्वरूप, इत्यादि।

प्रश्न ९.

सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओ को आवश्यक माना है ?

उतर : सच्चे लोकतंत्र कि स्थापना के लिए लेखक अनेक विशेषताओं को आवश्यक बताया है। बहू विध हितो में सब का भाग समान होना चाहिए सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग होनी चाहिए अर्थात हमारे समाज में दूध और पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे की भावना होनी चाहिए हमें साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान रखना चाहिए ?

Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Ka Objective Question Answer


प्रश्न १.

जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ किसका रूप लिए हुए है?

उत्तर : श्रमिक – विभाजन का

प्रश्न २.

डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने किस प्रथा को आर्थिक पहलू से खतरनाक माना है?

उत्तर : जाति-प्रथा

प्रश्न ३.

लेखक बेरोजगारी का प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण किसे मानते हैं?

उत्तर : जाति प्रथा को

प्रश्न ४.

आधुनिक सभ्य समाज श्रम विभाजन को आवश्यक क्यों मानते हैं ?

उत्तर : कार्य कुशलता के लिए

प्रश्न ५.

डॉ० भीमराव आंबेडकर का जन्म कहाँ हुआ था?


उत्तर : महू (मध्य प्रदेश)

प्रश्न ६.

डॉ० भीमराव आंबेडकर का जन्म कब हुआ ?

उत्तर : 14 अप्रैल 1891 ई. में

प्रश्न ७.

श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ के लेखक निम्नांकित में कौन हैं ?

उत्तर : भीमराव आंबेडकर

प्रश्न ८.

आम्बेडकर का जन्म किस परिवार में हुआ था ?

उत्तर : दलित

प्रश्न ९.

‘आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व पर आधारित होगा’ किसने कहा ?

उत्तर : भीमराव आंबेडकर

प्रश्न १०.

भारत में जाति प्रथा का मुख्य कारण क्या है ?

उत्तर : बेरोजगारी

प्रश्न ११.

श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ पाठ बाबा साहेब के किस भाषण का संपादित अंश है?

उत्तर : एनिहिलेशन ऑफ कास्ट

प्रश्न १२.

जाति प्रथा स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्यों ?

उत्तर : रूचि पर आधारित नहीं होने के कारण

प्रश्न १३.

श्रम-विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की………….है

उत्तर : आवश्यकता

प्रश्न १४.

जाति-प्रथा, का दूसरा रूप है।

उत्तर : श्रम विभाजन

प्रश्न १५.

“मानव मुक्ति के परोधा” किसे कहा गया हैं ?

उत्तर : भीमराव अम्बेदकर

प्रश्न १६.

जातिवाद के पोषकों की इस युग में भी कमी नहीं है, लेखक भीमराव आंबेडकर ने इसे-

उत्तर : विडंबना कहा है

प्रश्न १७.

जाति प्रथा, श्रम-विभाजन का स्वाभाविक विभाजन इसलिए नहीं है कि यह मनुष्य की………पर आधारित नहीं है।

उत्तर : रुचि

प्रश्न १८.

किस धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती हैं, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो ?

उत्तर : सिख

प्रश्न १९.

उद्योग-धन्धों की प्रक्रिया और तकनीक का निरंतर विकास और अकस्मात् परिवर्तन मनुष्य को क्या आवश्यकता ला देता है ?

उत्तर : वह अपना पेशा बदल सकता है।

प्रश्न २०.

जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवनभर के लिए एक-

उत्तर : पेशे में बाँध भी देती है

प्रश्न २१.

श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा ……. से युक्त है।

उत्तर : गंभीर दोषों

प्रश्न २२.

आंबेडकर के अनुसार आदर्श समाज किस पर आधारित होगा ?

उत्तर : जिसमें स्वतंत्रता, समता एवं भ्रातृत्व हों

प्रश्न २३.

आदमी कब भूखे मर सकता है ?

उत्तर : जब उसे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो।

प्रश्न २४.

जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की किस चीज पर निर्भर नहीं रहता ?

उत्तर : स्वेच्छा

प्रश्न २५.

जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत है-

उत्तर : गर्भधारण के समय से ही इसमें मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

प्रश्न २६

भाईचारे का वास्तविक रूप क्या हैं ?

उत्तर : जिसमें दूध-पानी का मिश्रण हो।

प्रश्न २७.

आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा प्रथा है।

उत्तर : हानिकारक

प्रश्न २८.

सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम हैं-

उत्तर : लोकतंत्र

प्रश्न २९.

बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर का जन्म किस राज्य में हुआ?

उत्तर : मध्य प्रदेश

प्रश्न ३०.

लेखक की दृष्टि में आदर्श समाज कैसा होना चाहिए?

उत्तर : जिसमें स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व का भाव हो

प्रश्न ३१.

भीमराव आंबेडकर के चिंतन के प्रेरक व्यक्ति थे-

उत्तर : कबीर

प्रश्न ३३.

आंबेडकर की दृष्टि से भाईचारे का वास्तविक रूप कैसा होता है?

उत्तर : दूध और पानी के मिश्रण की तरह

प्रश्न ३३.

भीमराव आंबेडकर की दृष्टि में लोकतंत्र के लिए क्या आवश्यक है?

उत्तर : लोगों में पारस्परिक श्रद्धा और सम्मान का भाव हो

प्रश्न ३४.

श्रम-विभाजन और जाति प्रथा’ गद्य की कौन-सी विद्या

उत्तर : निबंध

प्रश्न ३५.

‘भारतीय संविधान’ का निर्माता किसे कहा जाता है ?

उत्तर : भीमराव अंबेदकर को

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