नवरात्रि की कहानी क्या है? Real story of Durga Maa नवरात्रि की सच्चाई
कहानी दुर्गा पूजा की
ऐतिहासिक साक्ष्य हैं और यथेष्ठ शोधकार्य सामग्रियां भी समर्थन में कि दुर्गापूजा का पठान युग (देशवाली पठान पश्तून पठान योद्धाओं के वंशज हैं जो राजपूत राजाओं की सेनाओं में सेवा हेतु राजस्थान आए थे। जबकि टोंक की रियासत की स्थापना 1817 में यूसुफजई पठान अमीर खान ने की जो राजपूताना में एकमात्र गैर-हिंदू राज्य था। टोंक 1948 में भारतीय संघ में विलय हुआ और 1857 के भारतीय विद्रोह की विफल हो रोहिलखंड क्षेत्र से रोहिल्ला पठानों की आमद हुई। टोंक के अलावा, वे डूंगरपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, अजमेर, पाली, जयपुर, भरतपुर और उदयपुर जिलों में भी थे। उनके तीन उप-मंडल हैं, स्वाति, बुनेरी और बगोदी थे जो राजस्थानी पठान युसूफजई जनजाति के हैं। उन्होंने लंबे समय से पश्तो को छोड़ दिया है, और अब हिंदुस्तानी, साथ ही साथ राजस्थानी की विभिन्न बोलियां भी बोलते हैं।
राजस्थानी पठान का पारंपरिक पेशा
राजस्थानी पठान का पारंपरिक पेशा राजपूताना में विभिन्न राज्यों के सशस्त्र बलों में सेवारत था। पठान युग के आरंभिक काल में बरेंद्रभूमि अर्थात उत्तरी बंगाल में राजशाही जिले के राजा थे। उनका नाम था कंसनारायन राय। वे बहुत बड़े जमींदार थे। उन्होंने अपने समय के पंण्डितों को बुलाकर कहा कि मैं "राजसूय या अश्वमेध यज्ञ" करना चाहता हूँ, ताकि लोगों को पता चले कि मेरे पास कितना धन व ऐश्वर्य है और मैं दोनों हाथो से दान करूँगा। यह सुनकर पंडितों ने कहा कि "इस कलियुग में अश्वमेध! राजसूय यज्ञ नहीं हो सकते इस कारण मार्कण्डेय पुराण में जो दुर्गापूजा की कहानी है; दुर्गोत्सव की कहानी है, उसमें भी बहुत खर्च किया जाता है। आप भी मार्कण्डेय पुराण की ही दुर्गा पूजा कीजिए।"
पहली बार दुर्गा पूजा कब मनाया गया था?
उस समय राजा "कंसनारायन राय" ने सात लाख स्वर्ण मुद्राओं (आज का अरबों रुपया) का व्यय करके पहली बार दुर्गापूजा की थी।
उसके बाद रंगपुर जिला के एकताकिया के राजा "जगद्बल्लभ" ने साढ़े आठ लाख स्वर्णमुद्राओं व्यय करके और भी बड़ी धूम के साथ दुर्गापूजा की। उन्हें देखकर भी अन्य जमीदारों ने भी अपने बड़ी धूम -धाम से दुर्गा पूजा आरम्भ किया। इस तरह हर-एक जमींदार के घर में दुर्गापूजा का आरम्भ हुआ। उसी समय में हुगली जिले के बालगढ़ थाने में बारह मित्रों ने मिलकर पूजा किया जिसे 'बारह यारी' पूजा कहा गया। इस प्रकार यह सार्वजनिक रूप से मानाने लगा।
दुर्गा एक पौराणिक देवी है। जो काल्पनिक है, कोई नारी नहीं
दुर्गा एक पौराणिक देवी है। जो काल्पनिक है, कोई नारी नहीं। यह कथा मार्कण्डेय पुराण में है, जिसकी रचना 1300 साल पूर्व पौराणिक शाक्ताचार के समय हुई। बली आदि की कहानी भी परम्परागत कैसे शुरु हुई और कैसे अब लुप्तप्रायः है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शक्ति और शिव अलग नहीं, एक हैं।
किसी एक का अस्तित्व नहीं हो सकता। पूर्वकाल में पांच आचार (Cult) आये-
1. गणपत्याचार (गणेश को देवता मान कर), 2. शैवाचार ( शिव को देवता रूप में), 3. वैष्णवाचार (विष्णु को देवता रूप में), 4. शाक्तयाचार ( शक्ति को देवता रूप में) तथा 5. सौराचार अर्थात सूर्य या अग्नि को देवता रूप में स्वीकार कर पूजा गया। आज हम जब भी कोई संस्कार संबंधी कार्य सम्पादित करते हैं तब इन पांचों आचार ( पूजा पद्धति या कल्ट) का समायोजन करते हैं। यह पारम्परिक है।
दुर्गा का असली नाम क्या है?
परम्परानुसार जब नवरात्रि का पर्वकाल आता है। तब हम कहते हैं- 'या देवी सर्वभूतेषु प्रकृति रूपेण संस्थितां अर्थात हे देवी! तुम प्रकृति रूप में, अनंत रूपों में हमारा कल्याण करो। प्रकृति का शाब्दिक अर्थ है- प्रकार+करोति अर्थात जो प्रकार - प्रकार से या अनन्त प्रकार से कार्य करती है। मनुष्य ने नाना प्रकार के भय से त्राण पाने के लिए नाना प्रकार की जड़ देवियों की कल्पना करके उनकी सन्तुष्टि के उपाय किये। जैसे चेचक जैसी महामारी से त्राण पाने के लिए 'शीतला देवी' की पूजा विद्या प्राप्ति या अविद्या से त्राण पाने के लिए सरस्वती की पूजा आदि-आदि।
नौ देवी की कथा Navratri ki kahani
यह साकार ब्रह्म स्वरूपा परमाप्रकृति त्रिगुणात्मक है तथा त्रिवर्णात्मक है। प्रकृति के तीन गुण हैं- सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। प्रकृति के तीन वर्ण हैं- शुक्ल वर्ण ( धवल श्वेत वर्ण), रक्त वर्ण (सुर्ख लाल) और कृष्ण वर्ण ( अमावस्या की काली रात्रि जैसा)। समस्त जीव-जड़ जगत इस परमाप्रकृति के अभिप्रकाश, व्यक्त रूप हैं और सबका सत (सार) या आत्मस्वरूप ब्रह्म है। मनुष्य ने मायारूपी ने इस प्रकृति को ही तमाम दुखों का, जीने- मरने का कारण मानकर इस जड़ प्रकृति को ही शक्ति के रूप में, देवी या देवता के रूप में कल्पना कर उनको संतुष्ट करने का प्रयास करने लगा। यह भावजड़ता है।
नवरात्रि क्या है?
पौराणिक मतानुसार नव को पूर्णांक माना जाता हैं तथा प्रकृति माया की तामसिक वृत्तियां मानी जाती है। प्रकृति के तीन गुण तथा तीन वर्ण हैं। नवरात्रि के प्रथम तीन दिनों में उपवास अर्थात उप+वास उपवास माने पास बैठना, उपवास या फलाहार नहीं है। व्रत अर्थात दृढ़ निश्चय करके उपवास माने परमपुरुष के समीप उनका ध्यान करना है। प्रथम तीन दिनों में इस तरह प्रकृति माया की तमोगुणी वृत्तियों से दूर रहकर संयमित रहना, शारीरिक तथा मानसिक शुद्धि रखना।
दूसरे चरण के तीन दिनों में प्रकृति माया की रजोगुणी वृत्तियों से विरत रहते हुए, तमोगुणी वृत्तियों से पूरी तरह दूर रहकर, परमपुरुष के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से उपवास करना। इस तरह तमोगुणी वृत्तियों से निवृति के लिए तीन दिन, रजोगुणी वृत्तियों से निवृति के लिए तीन दिन तथा शेष तीन दिन सतोगुणी वृत्तियों को आत्मसात करना ही नवरात्रि का अभिप्राय है। रात्रि को अज्ञान रूपी अंधकर के अर्थ में माना जाता है और यह अंधकार है इस प्रकृति माया का बंधन, सभी तरह के द्वंद, दुःख, जन्म-मृत्यु, भय, रोग, शोक एवं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप।
अंतिम सतोगुणी साधना के द्वारा मनुष्य सभी प्रकृति माया के बंधन से मुक्त होकर, शारीरिक तथा मानसिक वृत्तियों पर नियंत्रण पा जाता है, प्रकृति पर विजय पा जाता है और भक्त के हृदय में बस रहे प्राण स्वरूप परमपुरुष राम का आविर्भाव हो जाता है, तथा दसवें दिन परमपुरुष स्वयं रावण रूपी मन जो माया के बंधन में था, उसे मुक्त कर देते है।
डॉ. कवि कुमार निर्मल
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