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नवरात्र ! नवदुर्गा‌ ! नवधा भक्ति श्री श्री 108 रामचरितमानस में माँ भगवती की स्तुति

श्री श्री 108 रामचरितमानस से माँ जानकी द्वारा माँ भगवती की स्तुति

जय जय गिरिराज किशोरी,
जय महेश मुख चंद चकोरी,
जय गजवदन षडानन माता,
जगत जननि दामिनी द्युति दाता,
नहीं तव आदि न मध्य अवसाना,
अमित प्रभाव कछु वेद न जाना,
भव भव विभव पराभव कारिणी,
विश्वविमोहिनी स्ववश विहारिणी,
पति देवता सुतीय मँह,
मातु प्रथम तव रेख,
महिमा अमित न कहि सकहीं,
सहस शारदा शेष..!
सेवत तोहिं सुलभ फल चारी,
वरदायिनी पुरारि पियारी,
देवि पूजि पदकमल तुम्हारे,
सुर नर मुनि सब होहीं सुखारे,
मोर मनोरथ जानहू नीकें,
बसहू सदा उरपुर सबहीं कें.

नवरात्र ! नवदुर्गा‌ ! नवधा भक्ति क्या है?

नवरात्र ! नवदुर्गा‌ ! नवधा भक्ति ! यह जो "9, (नौ)" है ना, भक्ति और अभक्ति के बीच का बहुत बड़ा खेल है ! पूजा और अपूजा के बीच का बहुत बड़ा खेल है ! जीव और ब्रह्म के बीच का बहुत बड़ा खेल है !
नकारात्मक दृष्टिकोण से देखें ये नौ अड़चनें है, नौ विकार हैं, जो हमारी तथाकथित भक्ति को कब अभक्ति में बदल देती है पता ही नहीं चलता ! हमारी पूजा को कब अपूजा में बदल देती है, पता ही नहीं चलता !
साकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो ये नौ सीढियां है, जिसे पार कर लेने से हमारी पूजा सफल हो जाती है, हमारी भक्ति सफल हो जाती है !

श्रीरामचन्द्र ने शबरी को नवधा भक्ति के बारे में बताया कि,

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा..!
दूसरी रति मम कथा प्रसंगा...!!
गुरूपद पंकज सेवा,
तीसरी भगति अमान..!
चौथी भगति मम गुण गन,
करई कपट तजि गान....!!
मंत्र-जाप मम दृढ़ विश्वासा......!
पंचम भजन सो बेद प्रकाशा....!!
छठ दम शील बिरति बहुकरमा.!
निरत निरंतर सज्जन धरमा.....!!
सातवँ सम मोहि मय जग देखा.!
मोतें सँत अधिक करि लेखा.... !!
आठवँ जथा लाभ संतोषा.......!
सपनेहूँ नहीं देखई परदोषा.....!!
नवम सरल सब सन छलहीना..!
मम भरोष हियँ हरष न दीना...!!

गोपिका को कृष्ण से मिलने में अवरोध पैदा करती है उसकी "ननद"...!

ब्रह्म को पाने की दिशा में,सत्य को पाने की दिशा में, जीवन को हर्ष-विषाद से मुक्त आनंदमय बनाने की दिशा में जीव के पथ पर "ननद" शब्द को "नौ नद" (विकृत काम,अनुचित क्रोध, अनुचित लोभ, अनुचित मोह, अहंकार, कपट, द्वेष, विकृत स्वार्थ, परनिंदा) की तरह भी समझ सकते हैं ! संतों व पंडितों के प्रवचनों में अक्सर "काम" शब्द का प्रयोग होता है, मैंने "विकृत काम" लिखा है ! मेरा आशय है कि सात्विकता के साथ एक हद तक "काम" सृष्टि के लिए आवश्यक है और आमजन पूरीतरह से कामविमुख नहीं हो सकते ! मैंने "अनुचित क्रोध" लिखा इसलिए कि समाज को "उचित क्रोध" की आवश्यकता ही है ! चंडी क्रोध ही न करे तो फिर असुरों का संहार कैसे हो ! राम क्रोध न करते तो कुल सहित रावण का वध कैसे करते ! बस इसी तरह "अनुचित लोभ" लिखा ! क्योंकि सत्कर्म का लोभ ! सद्धर्म का लोभ ! हरिकृपा का लोभ ! यह सब तो उचित लोभ हैं ! ऐसे ही विकृत स्वार्थ लिखा !
हम नर हैं, नारायण तो नहीं हो सकते लेकिन नर भी बने रहें तो कम नहीं है ! और नर बने रहने के लिए माया के पास रहकर भी माया से दूर रहने की कला सीखनी ही होगी ! नौ नदियों को पार करना होगा ! भींग गये फिर भी चलेगा, लेकिन डूब गये तो फिर डूब ही गये !
मगर यह भी एक तथ्य है कि माया न हो तो जीव माया से पार ब्रह्म से सान्निध्य स्थापनार्थ प्रयास कैसे करेगा ! आशक्ति-विरक्ति के बीच, पद्यपत्र पर जलकण की नाईं जीना कैसे सीखेगा ! दरिया न हो तैराक तैरेगा कहाँ !
पूजा करते हुए ही हम पूजा से भटक जाते हैं और हमारी पूजा अपूजा हो जाती है ! पूजा करते हुए, एक खतरा यह रहता है कि हम पूजा जनित अहंकार, पूर्वाग्रह, दुराग्रह आदि के शिकार हो सकते हैं ! जैसे कि "हम पूजारी...हमारा जो मान है वह सबका नहीं है, हम पूजा आयोजक हैं, हम औरों से अधिक महत्वपूर्ण हैं! आदि !" और पूजा जब अपूजा हो जाती है, तो फल भी विपरीत ही प्राप्त हैं, हमारे संस्कार, हमारी संततियों के संस्कार बिगड़ते हैं, अशाँति के कारण अभ्युदित होते हैं और फिर हमारी पूजा एक परम्परा बनकर रह जाती है ! शानो-शौकत की चीज बनकर रह जाती है !
दूध जैसा अमृत पेय भी अगर दूषित हो जाता है तो सुगंध की जगह वह दुर्गंध फैलाने लगता है ! जो अमृत समान था विष समान‌ हो जाता है !
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मातारानी से प्रार्थना है कि हमपर कृपा करें और हमें, हमारे परिजनों को, हमारे कुटुंब जनों को, हमारे मित्रों को भटकने से बचाएँ ! हमारी "पूजा" को सुरक्षित रखें ! हमारी "भक्ति" को "अभक्ति" होने से बचाएँ !
 क्योंकि,
सोई जानई जेहीं देहू जनाई..!
जानत तुम हीं तुम्हई होए जाई..!!
राघव
मैया के नौ रूपों पर आधारित मेरी यह रचना, स्तुति गान के रूप में, मैया के श्रीचरणों में समर्पित है !शीर्षक पंक्ति पारंपरिक रचना से है !

मैया के नौ रूपों पर आधारित रचना, स्तुति आरती भजन

दुर्गे दुर्गे दुर्गतिनाशिनी,
महिषासुरमर्दिनी, जय माँ दुर्गे..!

"शैलपुत्री" माँ भवानी,
शत्रु संहारिणी, जय माँ दुर्गे..!

"ब्रह्मचारिणी" ज्ञानदायिनी,
काशीनिवासिनी, जय माँ दुर्गे..!

अर्द्धेन्दुधारिणी, "चन्द्रघंटा"
सिंहवाहिनी जय माँ दुर्गे...!

उद्भवकारिणी,"कुष्मांडा" जननि,
भक्तिप्रदायिनी जय माँ दुर्गे...!

"स्कंदमाता",कार्तिकेयजननि,
वात्सल्यरूपिणी जय माँ दुर्गे..!

कात्यायन पूजिता माँ भवानी,
"कात्यायनी" तुम जय माँ दुर्गे..!

"कालरात्रि" भयविनाशिनी,
श्याम रूपिणी जय माँ दुर्गे..!

श्वेतवर्णा, "महागौरी" माँ,
प्रगति प्रदायिनी जय माँ दुर्गे..!

"सिद्धिदात्री" जगत्जननि,
जय भवानी जय माँ दुर्गे..!
‌‌राघव
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