Ticker

6/recent/ticker-posts

रोज कहानी का सारांश - रोज कहानी का प्रश्न उत्तर

रोज कहानी का सारांश - रोज कहानी का प्रश्न उत्तर

रोज कहानी का लेखक का नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय है। इनका जन्म 07 मार्च 1911 को हुआ और मृत्यु 04 अप्रैल 1987 को हुई। अज्ञेय करतारपुर, पंजाब के रहने वाले थे। इनके पिता का नाम डॉ. हीरानंद शास्त्री था। वे एक प्रख्यात पुरातत्ववेता थे। अज्ञेय के माता का नाम व्यंती देवी था।

अज्ञेय एक कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, विचारक, पत्रकार तथा संवादक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं में रचनाएं की। अज्ञेय ने यात्रा वृत्तांत, साहित्य, डायरी, आलोचना, जीवनी इत्यादि पर्याप्त मात्रा में लिखें हैं।

रोज कहानी का सारांश लिखें

इस कहानी में स्त्रियों की विषम स्थितियों को उजागर करने का प्रयास किया गया है। रोज अज्ञेय की बहुचर्चित कहानी है। इस कहानी में इन्होंने मध्यवर्गीय भारतीय समाज में घरेलू स्त्रीयों के जीवन और मनोदशा पर सहानुभूतिपूर्वक विचार विमर्श प्रस्तुत किया है। यह कहानी आत्मकथा की शैली में लिखी गई है जिसकी शुरुआत सीधे तौर पर हो जाती है। इस कहानी का मुख्य पात्र एक स्त्री है, जिसका नाम मालती है। लेखक का मालती के साथ भाई बहन का रिश्ता है। एक बात याद रखें कि मालती लेखक की दूर के रिश्ते की बहन थी। दोनों भाई बहन बचपन में एक साथ एक ही घर में पले बढ़े और खेले कूदे हैं। दोनों ने शिक्षा भी एक ही साथ ग्रहण किया है। विद्यार्थी जीवन में मालती बहुत चंचल और शरारती लड़की थी। उसे पढ़ाई लिखाई से ज्यादा खेलने कूदने में मन लगता था। बड़ी होने पर उसकी शादी एक डॉक्टर से हो जाती है। डाक्टर साहब का स्वभाव बहुत अच्छा है, उनका नाम महेश्वर है। वे शहर से दूर एक पठारी क्षेत्र के अस्पताल में पदस्थापित हैं। मालती भी उन्हीं के साथ, उसी पहाड़ी क्षेत्र में सरकारी कमरे में रहती है। एक बार मालती का भाई अर्थात लेखक मालती से मिलने के लिए उसके घर जाते हैं।

जब लेखक मालती से मिलने उसके घर पहुंचते हैं तो वह मालती से मिलकर ऐसा महसूस करते हैं जैसे शादी के बाद मालती बिल्कुल बदल गई हो। उसका जीवन लगातार चलने वाली एक मशीन जैसा हो गया है। वह सुबह उठकर अपने पति के लिए नाश्ता बनाती है, फिर दोपहर के लिए खाना बनाती है, फिर शाम को खाना बनाती है। वह दिन रात घर के कामों में इस तरह लगी रहती है जैसे कोई मशीन हो। भाई के आने पर मालती उतना स्वागत नहीं कर पाती जितना की होना चाहिए था। बस औपचारिकता निभाने भर बाते करती है।

लेखक दोपहर को मालती के घर पहुंचता है। आंगन में पैर रखते ही उसने ऐसा महसूस किया जैसे उस पर किसी शाप की गहरी छाया मंडरा रही है, लेखक की आहट सुनकर मालती बाहर निकली। लेखक ने कमरे में पहुंचकर मालती से पूछा, “वे यहां नहीं हैं ?” तब मालती ने जवाब दिया कि अभी दफ्तर से नहीं लौटे हैं। मालती पंखा उठा कर लाती है और झूलाने लगती है। मालती अपने भाई से हाल-चाल भी नहीं पूछती। उसके व्यवहार से ऐसा महसूस होता है जैसे वह अपने घर के कामों में ज्यादा व्यस्त रहती है और इस समय भी उसे अपने घर के बचे हुए काम की चिंता है। तभी मालती का बच्चा रोने लगता है। मालती उसको संभालने चली जाती है।

लेखक ने बच्चे का नाम पूछा तो मालती ने बताया अभी तक कोई नाम नहीं रखा पर हम टिटी कहते हैं। लेखक को यह भी अजीब सा लगता है कि मालती ने मुझसे कोई बात नहीं की। कैसा हूँ, क्या हाल है यह भी नहीं पूछा ? लेखक ने एक बार सवाल किया लगता है तुम्हें मेरे आने से कोई खास खुशी नहीं हुई। तब वह सिर्फ चौंक कर हूँ कहकर शान्त हो जाती है।

मालती अब पूरी तरह से बदल चुकी थी। बचपन की यादें कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। अब सिर्फ थकान और जड़ता का अंश शेष रह गया है। पति की दिनचर्या भी यान्त्रिक जीवनशैली जैसी है, मालती के दिमाग में अनगिनत चिंता उभरती हुई रहती। घर में सब्ज़ी का अभाव है, नल का पानी समय पर नहीं आता, नौकर भी नहीं मिलता है। इस प्रकार की अनेकों चिंता उसे घेरे रहती है।

डाक्टर साहब दोपहर को डिस्पेंसरी से घर पहुंचते हैं और रात्रि के दस बजे भोजन करते हैं। मालती की दिनचर्या रोज एक ही जैसी है। पति का ज्यादातर वक्त डिस्पेन्सरी में बीतता है या सोने में। पहली बार लेखक का परिचय उनके साथ होता है। उनका नाम था महेश्वर। डॉक्टर साहब अपने अस्पताल के मरीजों के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि वह अक्सर मरीजों का हाथ पैर काटा करते हैं छोटे छोटे घाव से गंभीर घाव हो जाता है। फिर किसी के हाथ तो किसी के पैर काटकर ऑपरेशन करना पड़ता है।

लेखक और महेश्वर के बीच बातें हो रही थी। तभी खाना आ गया। लेखक ने मालती से पूछा, तुम नहीं खाओगी, तब महेश्वर ने उत्तर दिया, वह बाद में खाया करती है। महेश्वर और लेखक बाहर पलंग पर बैठकर इधर उधर की बातें करते रहें और मालती बर्तन मांजने लगती है, मालती का बच्चा बार-बार पलंग से गिर जाता है। इस पर मालती तीखी प्रतिक्रिया भी दिखाती है, ऐसा महसूस होता है कि वह यह कहना चाहती है कि वह बर्तन मांजे या बच्चे को संभाले। इस कहानी में औरतों की कठिनाइयों को व्यक्त किया गया है। कहानी का अंत बहुत कारुणिक है। जब ग्यारह बजता है तब मालती कहती है ग्यारह बज गये। यह उसकी जिंदगी में गहरी निराशा का गंभीर भाव है, यह कोई आज की बात नहीं बल्कि ऐसा तो रोज ही होता है।

इस कहानी की एक और घटना महत्वपूर्ण है। एक बार जब महेश्वर कुछ आम लाये थे, वह आम अखबार में लिपटे थे। महेश्वर उन्हें धोने के लिए कहते हैं। तभी मालती उस अखबार के टुकड़े को पढ़ती है। इस बात से स्पष्ट होता है कि मालती की ज़िन्दगी पूरी तरह से एक दायरे में सिमट कर रह गयी है। अब उसे इतना भी समय नहीं मिलता वह अखबार भी पढ़ सकें। यहां मालती की बाहरी दुनियादारी से मिलने जुलने की तड़प देखी जा सकती है।

रोज कहानी में मालती का चरित्र चित्रण

मालती इस कहानी का मुख्य पात्र हैं। लेखक ने मालती के माध्यम से मध्यमवर्गीय परिवारों में स्त्रियों की व्यस्त जीवनशैली को आधार बनाया है। कहानी की शुरुआत में ही मालती के मशीनों की तरह जीवन व्यतीत करने की झलक दिखाई दे जाती है। जब वह घर में उससे ही मिलने आए अतिथि का स्वागत वह केवल औपचारिक ढंग से करती है। अतिथि कोई और नहीं बल्कि उसके रिश्ते का भाई है, जिसके साथ वह बचपन में दिन रात खेलती थी। लेकिन आज उसकी स्थिति ऐसी हो गई है कि वर्षों बाद घर आए भाई का स्वागत तक उत्साहपूर्वक नहीं कर पाती, बल्कि ज़िंदगी की दूसरी औपचारिकताओं की तरह ही वह एक और औपचारिकता निभा देती है। विवाह से पहले उत्सुकता, चंचलता, जिज्ञासा और किसी किसी बात के लिए बेहद उत्कंठा होती थी। लेकिन आज तो वह केवल दो वर्षों के वैवाहिक जीवन बिताने के बाद ही कुछ भी शेष नहीं रहा, इस बात को मालती का रिश्ते का भाई भांप लेता है। इसलिए मालती के मौन को उसके अहंकार या अवहेलना का सूचक न समझकर वैवाहिक जीवन की उत्साहहीनता, नीरसता और यान्त्रिकता का ही सूचक समझता है।

मालती मशीन की तरह पूरा दिन काम करती रहती और पति के घर आने के बाद ही कुछ खाती है, लेखक ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है – “पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी।”

मालती के पति महेश्वर हर रोज़ डिस्पेंसरी से घर लौटने के बाद मालती को अस्पताल का हाल सुनाता है। हर दूसरे चौथे दिन वहां एक न एक गैंग्रीन का मरीज़ आ जाता है, जिसकी टांग काटने तक की नौबत भी आ जाती है। मालती पति पर व्यंग्य करते हुए कहती है “सरकारी हस्पताल है न, क्या परवाह है। मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ। अब कोई मर मुर जाए तो ख्याल ही नहीं होता।” मालती अपने जीवन की नीरसता को रोज चुपचाप सहती रहती है और पति से उसकी बातचीत भी बहुत कम होती है, लेकिन सरकारी अस्पताल की ख़राब हालत और रोगियों के मरने के किस्से को लेकर पति पर किए गए उसके व्यंग्य से उसकी संवेदनशीलता और जिजीविषा का संकेत मिलता है। 

लेखक के विचार विमर्श का केन्द्र मालती और उसके जीवन की व्यथा है। उसका पति और लेखक पलंग पर बैठकर बातें करने लगते हैं और मालती घर के अंदर बर्तन मांजती रही, क्योंकि नल में पानी आ गया था, और पानी के आने जाने का समय निर्धारित है। उसकी नियति सारा दिन घर के भीतर काम करते रहना ही थी, बाहर की ज़िन्दगी का आनन्द लेना उसके नसीब में नहीं। लेखक एक छोटे से प्रसंग को उदाहरण स्वरुप उल्लेख करते हुए लिखता है जिसमें मालती की आन्तरिक इच्छा का भरपूर चित्रण हुआ है। बर्तन धोने के उपरांत मालती को पति का आदेश मिला “थोड़े आम लाया हूँ, वे भी धो लेना।” आम अखबार के कागज़ में लिपटे हुए थे। मालती ने आमों को अलग कर के रख दिए और अखबार के टुकड़े को खड़े-खड़े पढ़ने लगी। अखबार के उन टुकड़ों को पढ़ने में उसकी तल्लीनता इस बात की सूचक है कि वह बाहर की दुनिया का हाल समाचार जानना चाहती है, लेकिन वह अपनी सीमित दुनिया में बंद हो चुकी है।

इस प्रसंग से मालती के जीवन का एक और अभाव प्रकट होता है और वह है अखबार का अभाव। अखबार मालती को बाहर की दुनिया से जोड़ने का काम कर सकता था, लेकिन वह उससे भी वंचित चुकी है। लेखक को याद आता है कि मालती बचपन में पढ़ने लिखने से बहुत भागती थी। “एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी, और कहा कि इसके बीस पेज रोज पढ़ा करो। हफ्ते भर बाद मैं देखूँ कि उसे समाप्त कर चुकी हो। नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूंगा। मालती ने चुपचाप किताब ली, पर क्या उसने पढ़ी ? वह नित्य ही उसके दस-बीस पेज़ फाड़कर फेंक देती जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, 'किताब समाप्त कर ली ?' तो उत्तर दिया, 'हाँ कर ली।' पिता ने कहा लाओ, 'मैं प्रश्न पूछूंगा।' तो चुप खड़ी रही। पिता ने फिर कहा तो उद्धृत स्वर में बोली, 'किताब मैंने फाड़कर फेंक दी है मैं नही पढूंगी।” वही उद्दंड मालती आज कितनी दीन और शांत हो गई है और एक अखबार के टुकड़े के लिए तरसती है।

मालती पूरी तरह से बिना इच्छा, अनुभूतिहीन, नीरस और यंत्रवत वह भी थके हुए यंत्र के समान जीवन व्यतीत करती है। उसकी जिंदगी में बस घड़ी की टिकटिक और पानी के नल की टिप-टिप बाकी रह गई है। उसके जीवन की गाड़ी बहुत ही मंद गति से चलती है। 'रोज़' कहानी मालती के अपने जीवन से समझौते और उसकी सहनशीलता की कहानी है। वह सब कुछ सहकर भी गृहस्थी की गाड़ी को जबरन धकेलती रहती है।

रोज कहानी में डॉ. महेश्वर का चरित्र चित्रण

मालती के पति महेश्वर सरकारी अस्पताल में डाक्टर हैं। वो एक पहाड़ी गांव के डिस्पेंसरी में नियुक्त हैं। वह सरकारी डिस्पेंसरी के कवार्टर में रहते हैं। महेश्वर सुबह सात बजे डिस्पेंसरी चले जाते हैं और दोपहर को लौटते हैं। उसके बाद दोपहर भर की छुट्टी रहती है। लेकिन शाम को एक दो घंटे के लिए चक्कर लगाने के लिए चले जाते हैं, डिस्पेंसरी के साथ एक छोटे से अस्पताल में भर्ती मरीजों को देखने और दूसरी आवश्यक निर्देश देने। उनका जीवन बिल्कुल एक पूर्व-निर्धारित दिनचर्या पर चलता है। यह जीवनशैली सकारात्मक और उत्साही जीवन पद्धति का सूचक तो नहीं है, बल्कि एकरस, उबाऊ, यांत्रिक दिनचर्या का पर्याय बन गया है। रोज वहीं काम, उसी तरह के मरीज़, वही निर्देश, वहीं नुस्खे और वही दवाईयां। 

यही कारण है कि वे अपनी फुरसत के समय में भी सुस्त बने रहते हैं। घर आकर वह मालती का थोड़ा भी हाथ नहीं बंटाते। कभी कभार बच्चे को संभालते, नहीं तो मालती को स्वयं ही संभालना पड़ता है। महेश्वर पलंग पर बैठकर चांदनी का आनन्द लेने में तल्लीन रही हैं और मालती रसोई में खाना बनाते हुए, बच्चे की चिंता भी करती है। जय हो महेश्वरी जी! पति हो तो महेश्वरी जी जैसा!

रोज कहानी का प्रश्न उत्तर

प्रश्न १.

मालती के घर का वातावरण आपको कैसा लगा ? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर : रोज शीर्षक कहानी में अज्ञेय ने एक मध्यमवर्गीय परिवार की कठिनाइयां और बोझिल जीवनशैली को बड़ी सुंदरता से शब्दों में व्यक्त किया है। रोज़ कहानी की नायिका मालती अपने डॉक्टर पति के साथ रहती है। वह जिस कमरे में रहती है उसमें बिजली की व्यवस्था नहीं है। पानी की उपलब्धता भी निर्धारित समय के लिए है। उस घर में दो पलंग हैं, जिसपर ठीक से बिस्तर भी नहीं है। मालती और लेखक के बीच होने वाली बातचीत से घर की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है:

ऐसे ही आए हो ?”
“नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर।”
“मैंने सोचा, बिस्तरा ले चलूँ।”
“अच्छा किया, यहाँ तो बस……….”

मालती के घर का वातावरण ऊब और उदासी के बीच ऐसा लग रहा है, मानो उस पर किसी शाम की छाया मँडरा रही हो। वातावरण बोझिल, अकथ्य एवं प्रकाम्य बना हुआ रहता है।

प्रश्न २.

दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते ही मुझे जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाम की छाया मँडरा रही हो, यह कैसी शाम की छाया है ? वर्णन कीजिए।

उत्तर : लेखक जब अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती से मिलने उसके घर पर पहुँचता है तो वहां के वातावरण और वहाँ रहनेवालों की दशा को तुरंत भाँप जाता है। मालती और घर दोनों की स्थिति एक जैसी होती है। दोपहर का समय है फिर भी लेखक को उसके आंगन में शाम की छाया मँडराती हुई महसूस होती है। वह घर नया है इसके बावजूद दोपहर अर्थात अपनी जवानी में ही उदास और सूनापन लग रहा था। मालती भी जवान है लेकिन यंत्रवत और नीरस जीवनशैली ने उसे जीर्ण शीर्ण काया में बदल दिया है। मालती का रूप यौवनकाल में ही ढलान पर है, ऐसा लगता है जैसे किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जंतु की माला डाल दिया गया हो। वह सरकारी कमरा भी ऐसा लगता है जैसे उस पर किसी शाम की छाया मँडरा रही हो। वहाँ का वातावरण कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, लेकिन फिर भी बोझिल और प्रदीपमय सा सन्नाटा फैला रहा था। इससे स्पष्ट होता है कि दोपहर में ही समय ने उसपर शाम की छाया ला दिया हो।

प्रश्न ३.

मालती के पति महेश्वर की कैसी छवि आपके मन में बनती है, कहानी में महेश्वर की उपस्थिति क्या अर्थ रखती है ? अपने विचार दें।

उत्तर : मालती का पति महेश्वर जो एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर के पद पर कार्यरत है। उनका जीवन भी मालती की तरह यंत्रवत है। अस्पताल में रोगियों को देखने और दूसरी जरूरी हिदायतें करने के सिवा और कुछ नहीं। उनकी जीवनशैली भी बिल्कुल निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, रोज वही काम, उसी तरह का मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह खुद भी इस दिनचर्या से उकताए हुए हैं और साथ ही इस भयंकर गर्मी की वजह से वह अपने फुर्सत के समय में भी सुस्त रहते हैं।

कहानी में महेश्वर के चरित्र ने कहानी को जीवंत बना दिया है। कहानी की नायिका मालती का जीवन उसी की प्रतीक्षा एवं थकान की लम्बी साँस है। महेश्वर के जीवन के समान ही मालती का जीवन भी ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रही है। किसी प्रकार के मनोविनोद, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गये हैं। महेश्वर मरीज तथा डिस्पेंसरी के चक्कर में अपने जीवन को बोझ की तरह ढो रहा है और मालती चूल्हा-चक्की, पति की प्रतीक्षा तथा बच्चे के लालन-पालन में लगी रहती है।

और पढ़ें 👇

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ