Vishva Prakriti Diwas Par Kavita विश्व प्रकृति दिवस 03 अक्टूबर
विश्व प्रकृति दिवस (03 अक्टूबर)
(कविता)
विश्व प्रकृति दिवस का, मकसद साफ है,
प्रकृति को पहुंचे नहीं, कोई भी नुकसान।
जलवायु परिवर्तन से, चुनौतियां बनती हैं,
उत्पन्न संकटों का, खोजना है समाधान।
विश्व प्रकृति दिवस………
प्रकृति में कई नए बदलाव आते रहते हैं,
अचानक मच जाता है जग में घमासान।
इसके अंतरराष्ट्रीय संगठन का दायित्व है,
समय समय पर करना, सबको सावधान।
विश्व प्रकृति दिवस…………..
यू एस स्थित इसका सरकारी कार्यालय है,
जो रखता इससे जुड़ी हर बात का ध्यान।
3 अक्टूबर 2010 को शुरुआत हुई इसकी,
आज विश्व के कोने कोने में बनी पहचान।
विश्व प्रकृति दिवस…………..
प्रकृति के बारे में जानकारी मिलती रहती,
कल के बारे में सोच सकता है हर इंसान।
अगर यह सुंदर प्रकृति सुरक्षित है हमेशा,
विश्व के चेहरे पर नाचती होगी मुस्कान।
विश्व प्रकृति दिवस…………..
सूबेदार कृष्णदेव प्रसाद सिंह,
जयनगर (मधुबनी) बिहार/
नासिक (महाराष्ट्र)
प्रकृति दिवस हम आज मनाएँ : विश्व प्रकृति दिवस पर कविता
प्रकृति दिवस
रवि शशि और उल्के सारे,
प्रकृति के हैं सुंदर इशारे।
प्रभात संध्या दिवा निशा,
हैं आश्रित प्रकृति सहारे।।
अंबर से कहता है सूरज,
विश्व हेतु मेरा एक संदेश।
मुझसे ही सब प्रेरित हों,
चाहे देश रहें या रहें विदेश।।
यह जन्म होता उदय है,
मृत्यु कहलाता है अस्त।
बीच के पूरे ही जीवन में,
सब रहते हैं पूरे ही व्यस्त।।
शैशव किशोर युवा प्रौढ़ा,
वृद्धा जीवन के पहर पाँच।
हाथ की उंगली करे इशारे,
जीवन की ये बातें हैं साँच।।
शैशव किशोरा युवा तीनों,
जीवन का होता है चढ़ाई।
प्रौढ़ा वृद्धा ढाल जीवन के,
अंत के पहले होता उतराई।।
ग्रह उपग्रह नक्षत्र और वायु,
सुंदर ऋतुएँ और जलवायु।
थलचर जलचर नभचर सारे,
निश्चित होती सबकी आयु।।
प्रकृति की यह सुंदर सृष्टि,
सब पर उनकी समान दृष्टि।
कर्म और भाग्य दिए सबको,
जिसपर आधारित दया वृष्टि।।
प्रकृति से ही मिलता आहार,
प्रकृति से ही मिलता विहार।
प्रकृति ने सब साधन दिया है,
कर्म से व्यवहार और त्यौहार।।
प्रकृति से सुहाना सफर जीवन,
प्राकृतिक जीवन सफल बनाएँ।
कर्म दया उपकार अपनाकर,
प्रकृति दिवस हम आज मनाएँ।।
अरुण दिव्यांश 9504503560
मौलिक और अप्रकाशित
प्रकृति पर कविता Poem On Nature In Hindi : विवश प्रकृति भी मानों लगे है टूटने
कविता
लो कहां से आ गये ये चमन के लुटेरे।
छाये है धरती पे गम के बादल घनेरे।
लगे सब हरे बाग को ताबड़-तोड़ लुटने।
विवश प्रकृति भी मानों लगे है टूटने।
अब भुगतना पड़ेगा सभी को अंजाम बुरा।
जी रहे है सभी लोग अब ज़िन्दगी अधुरा।
ये कायरता जो सांसो का सौदा किया है।
असमय लाशों का जो ये सौदा किया है।
ये पड़ा आज सृष्टि पर है कितना भारी।
लोग अपने ही जीवन के बन गये व्यापारी।
अब क्या तू हाय-हाय खुदा कर रहा है।
तेरी करनी ही तुझको जुदा कर रहा है।
दोष उनको न दो जो चुपचाप देखता है।
देख कर फिर तुम्हारा कर्म लेखता है।
फिर देते है खुदा सबको दण्ड धीरे-धीरे।
साथ छोड़ती है नही बुरे कर्मो के लकीरे।
अब क्या करोगे तुम खुदा को कोस कर।
इससे पहले जो कुछ करते जरा सोच कर।
पूनम यादव, वैशाली
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