एगो व्यवसायिक कविता Ago Vyavsayik Kavita
एगो व्यवसायिक कविता
का किनहूँ करीहें बे आस बाबा के कमाए के परतर।
सोरे हजार से भी बेसी कमा लेलन अपना इहाँ घरतर।।
ना कबहूँ कालकाता गयीलें ना गईलें कबो दिल्ली
गांवही के चट्टी बाजार पर बेचेलन पान के खिल्ली
जीविका चलावे खातिर खोलदेले बारन एगो चकचक पान के दुकान
जब जब इनका दोकान पर आवेलन गहकी तब तब बिखेरेलन मुस्कान
ऐही सब के खूबी से बांधल बारन इनकर पुरान से पुरान गहकी
एकबार केहू इनकर पान खा ले घंटाभर ले ओकर मसाला महकी
गुमुटी इनकर ठीक पश्छिम बा सटले बुढवा बड़ तर।
का किनहूँ करींहे बे आस बाबा के कमाए के पर तर।।
नरम स्वभाव के हऊवन बाबा हरदम खुश रखेलन आपन मिजाज
आवे जाये के एगो फटीचर साईकिल रखले बारन नयीखन रखले कवनो बुलेट आ जहाज
बाकीर उधारी हिसाब के हाली चुकता ना कईला पर कान के नीचे खूँटातोङ बजा देवेलन तरतर।
का किनहूँ करीहे बे आस के कमाए के परतर।
सोरे हजार से भी बेसी कमा लेहेलन अपना घरतर।।
का किन्हूँ करीहें बेआस बाबा के कमाए के परतर।।
का किन्हूँ ......
रचनाकार -कवि खूँटातोड़
सं क्र:९८९२० ४४५९३
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