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शिवरात्रि के शुभ अवसर पर शिव का रहस्यमयी एवं गौरवमयी इतिहास

शिवरात्रि के शुभ अवसर पर शिव का रहस्यमयी एवं गौरवमयी इतिहास

२०२२ ई. में १ मार्च "महाशिवरात्रि", शिव पार्वति विवाह का शुभ दिन है।

इस पृथ्वी पर यह एक युग संधि की महत् शुभ घटना घटित हुई। हमारे इस पृथ्वीलोक के देवाधिदेव प्रथम तारक ब्रह्म, महासंभूति सदाशिव प्रथम विधिवत् अंतर्जातीय विवाह कर इसी दिन परिवारिक व्यवस्था स्थापित किये। पशुवत् मानवों में समाजिकता, आदर्श के व्यवहारिक स्वरूप का प्रवर्तन किया। कहें कि मानव जाति में और जाति, वर्ण भेद मुक्त समाज की नींव डाली भगवान् शिव ने।

शिव का रहस्यमयी एवम् गौरवमयी इतिहास

ऋग्वेद लगभग 15 (पंद्रह) हजार वर्ष पूर्व रचित होना प्रारम्भ हुआ था। अनुमानतः सात हजार वर्ष पूर्व प्रथम महासंभुति तारक ब्रह्म भगवान शिव इस धरा धाम पर मानव तन धारण कर कल्याणार्थ अवतरित हुए थे।


वह समय ऋग्वेदीय युग का अंतिम चरण तथा यजुर्वेदीय युग का प्रारंभिक काल था। इसका प्रमाण इस प्रकार मिलता है कि ऋग्वेद के आरम्भ में भगवान् शिव की चर्चा नहीं है किन्तु अंतिम काल यथेष्ट उपलब्ध है। उन दिनों, आर्यो का आगमन मध्य एशिया से भारत वर्ष में हो रहा था। भारतवर्ष की भूमि उर्वर थी जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य को स्थायित्व प्रदान करती थी। "शिव पुराण" में मात्र शिव विवाह की चर्चा है। पुराण में कही पर शिव को अजन्मा तो कही पर शिवलिंग के रूप में चर्चा की गई है जो अपने-आप में विरोधाभास है।

शिवरात्रि के शुभ अवसर पर शिव का रहस्यमयी एवम् गौरवमयी इतिहास

भगवान शिव का जन्म इंडो - तिब्बती गोष्ठी में हुआ था। भगवान शिव के माता-पिता का उल्लेख इतिहास में नहीं किया गया है क्योकि भगवान शिव से पहले समाज में विवाह की प्रथा नहीं थी। इस समय मानव गणगोष्ठी व्यवस्था में पहाड़ की गुफा में रहता था जो सबसे शक्तिशाली पुरुष होता था वही उस गणगोष्ठी का गणपति अर्थात गणेश होता था। एक गणपति के पास एक से अधिक स्त्रियां रहती थी। अपने - अपने गोष्ठियों की जनसंख्या वृद्धि हेतु स्त्रीयाँ अपने गणपति से जब संबंध स्थापित करती थी तब उसे क्षणिक सुख अनुभव होता था जिसके फलस्वरुप गणगोष्ठी में धीरे धीरे लिंग पूजा का प्रचलन आया। शिव के जाने के बहुत बाद पुराणकारों ने लिंग पूजा को भगवान शिव से जोड़ दिया गया जो अनुचित है। चुकि भगवान शिव ने "लिंग पूजा" का विरोध किया था और इस व्यवस्था को खत्म करने के लिए सर्वप्रथम "विवाह पद्धति" का सूत्रपात किया था। इस प्रकार विवाह व्यवस्था का परिवर्तन हुआ समाज में। इसलिए उन्हें आदिपिता भी कहा जाता है कारण पहले परिवार का अस्तित्व था हीं नहीं। एतदर्थ शिव ने पशुवत समाज को एक व्यवस्थित रूप दिया। इसके लिए मानव समाज सदा उनका ऋणी रहेगा।


मध्य अमेरिका, उत्तरी अमेरिका में भी इस लिंग पूजा का प्रचलन था। मध्य अमेरिका जो इस प्रकार की लिंग पूजा करते थे उनकी सभ्यता को "मायासभ्यता" के नाम से जाना जाता है और उस वृहत भू खण्ड को मायाद्वीप जो कालांतर में दो अमेरिका में आज भी है। उस समय लिंग की पूजा शिव के रूप में नहीं होती थी, बल्कि प्रतीक के रूप में होती थी। यह एक सामाजिक संस्कार था, इससे अध्यात्मिकता से कोई संबंध नही था। लिंग पूजा का संबंध शिवपूजा मानकर करने का प्रवर्तन आज से संभवतः मात्र ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ था। जैन युग में शिव लिंग पूजा आरम्भ हुई। आज भारत के विभिन्न हिस्सों में विशेषकर राढ़ (झारखण्ड-बिहार-बंगाल सीमांचल क्षेत्र) की जमीन खोदने पर अनेक बड़े-बड़े शिवलिंग मिलते हैं। सब के सब जैन युग के शिवलिंग हैं। पौराणिक शिवचर में युग में भी शिव लिंग की पूजा निरंतर होती रही। जैन युग के बाइस प्रकार के शिवलिंग हैं जैसे आदिलिंग, ज्योतिलिंग, अनादिलिंग इत्यादि।


जो भी हो लिंग पूजा या शिवलिंग पूजा एक प्रकार का जड़ पूजा है। इससे आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं। आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को भगवान शिव द्वारा प्रदत्त "विद्यामाया आष्टंग योग क्रिया" पर आधारित तंत्र साधना का अभ्यास करना होगा एवं अपने अंदर उस विराट सत्ता को अनुभव करना होगा ऋणात्मक वृत्तियों से निजाद पा कर।

शिव काल: समाजिक परिवेश

शिव काल में मानव समाज नाम की कोई चीज नहीं थी।
मनुष्य गोष्टीबद्ध थे। एक - एक गोष्ठी एक - एक पहाड़ी पर रहती थी जिनके प्रधान के रूप में एक ऋषि होते थे। जैसे भारद्वाज, कश्यप, वशिष्ठ 【चीन सें तंत्र साधना सीख इसका भारत क्षेत्र में प्रचार-प्रसार किए】 आदि।


उस प्रधान के नाम पर गोत्र होता था तथा उस पहाड़ी पर रहने वाले सभी का वही गोत्र होता था। इन गोत्रगत् गोष्टियों में हमेशा वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी। जो गोष्टी जीत जाती थी वह दूसरी गोष्टी की महिलाओं को जबरन अपनी भोग्या स्त्रि भार्या (भोग की वस्तु) बना लेती थी। विरोध करने पर अस्त्रसस्त्रादि व्यवहृत कर हिंसा होती। वे लाठी का प्रहार कर, हाथ में कड़ी पहन कर खीच कर ले जाई जाती थीं अत: प्रकोष्ठ में जो बाद में परिस्कृत हो गंदर्भ विवाह के रुप में प्रचलित हुआ ऐयाश देवादि एवम् राजाओं द्वारा। लाठी के प्रहार के कारण सिर से रक्तपात होता था जो बाद में कस्टम के रूप में "सिंदूर" लगाने की प्रथा हो गई और यह आज भी प्रचलित है। वह कड़ी आज "चूड़ी" बन गई जो आज सभी महिलाएँ पहनती है। ये सुहागिन के चिन्ह अधिकृत हो कर परंपरा बन रह गये।

भगवान शिव गोष्टिगत भाव को समाप्त कर एक जाति-वर्णरहित "वृहद मानव समाज" बनाने के लिए कई नियम बनाए और उन्होंने कहा "आत्मगोत्रम परित्ज्य शिव गोत्र प्रविशितु" अर्थात-- सभी का गोत्र एक है और वह है "शिव गोत्र"।


उन्होंने क्षुद्र भावनाओं जैसे जिओ-सेन्टीमेन्ट अथवा सोसिओ-सेन्टीमेन्ट को हटाकर "एक मानव समाज" बनाने की भावना दी। 'हरमे पिता गौरी माता स्वदेशो भुवनत्रयम' अर्थात परमपुरुष हमारे पिता है प्रकृति हमारी माता है, यह ब्रह्मांड हमारा देश है और हम सभी बन्धु है। भगवान् शिव ने "विश्व बंधुत्व" का संदेश मानव समाज को दिया।

भगवान शिव के समय में आर्य भारत में आ चुके थे। और आ भी रहे थे। भारत वर्ष के लोग जो गेहुआ रंग के थे उन्हें आर्य हेय दृष्टि से देखते थे और उन्हें "अनार्य" कहते थे। आर्य उत्तर -पश्चिम कोण के रास्ते मध्य एशिया से भारत आ रहे थे, कारण अत्यंत शीत और बर्फीले तूफान के कारण वहाँ मनुष्य और पशु को जीवित रहना कठिन था। उस समय आर्य और भारतीय अर्थात अष्ट्रिक -मंगोल - निग्रोएड के बीच संघर्ष हुआ करता था। भगवान शिव ने संघर्ष को समाप्त करने के लिए तीनों जाति के स्त्रियों यथा आर्य कन्या पार्वती, अनार्य कन्या काली और मंगोल कन्या गंगा से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। उनका उदेश्य एक सुदृढ़ समाज स्थापित करना था।


शिव पार्वती विवाह

वह पर्वतराज की कन्या थी इसलिए उन्हें "पार्वती" कहा जाता था। उनका नाम "गौरी" था क्योंकि वह गोरे रंग की थी। पार्वती आर्यो के राजा दक्ष जो हिमालय के पहाड़ी अंचल में रहते रहते थे, यह उनकी हीं पुत्री थी। पार्वती शिव के व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थी अतः वे शिव से विवाह करना चाहती थी पर राजा दक्ष इसके विरोधी थे क्योंकि शिव यद्यपि एक विराट व्यक्ति थे पर वे अनार्य थे। अतः दक्ष नहीं चाहते थे कि उनकि पुत्री की शादी एक अनार्य व्यक्ति से हो। परंतु विजई पार्वती ह़ी हुईं। उनकी विल्व पत्र पर की हुई आराधना फलित हुई और दोनों में विवाह संपन्न हो गया। ऐसा कहा जाता है कि विवाह के समय उनके साथ गण, किन्नर, भुत - प्रेतादि बारात के रूप में गए थे परंतु उनके साथ उनके गण अर्थात शिष्य थे जो अनार्य थे। आर्यो ने उन्हें "भुत-प्रेत" कहा। शिव के साथ पार्वती का विवाह तो हो गया परंतु यह विवाह बहुत समय तक टिक न सका। पार्वती से एक पुत्र "भैरव" पैदा हुआ। जो अपने पिता शिव से बहुत प्रभावित थे। राजा दक्ष ने बड़े पैमाने पर अनार्यो पर अत्याचार करना प्रारम्भ किया और भगवान शिव के विरोध में तरह -तरह की योजनाए बनाते रहे। उसी में एक योजना थी कि उन्हों ने एक विराट यज्ञ आयोजित किया पर उन्हों ने शिव को आमंत्रित नहीं किया। ऐसे यज्ञ में शिव नहीं जा सकते थे अतः पार्वती को भी नहीं जाना चाहिए था। पर उस अवहेलना का विरोध करने के लिए पार्वती ने वहाँ जाना निश्चित किया। वहाँ जाकर पार्वती ने विरोध तो किया पर स्वंय "आत्मदाह" तक कर लिया। इसका नतीजा कुछ अच्छा हुआ। धीरे-धीरे अब आर्यो तथा अनार्यो में सम्बन्ध अच्छा होना प्रारम्भ हो गया। 

भगवान शिव और काली

भगवान शिव अनार्य कन्या श्याम वर्ण "काली" से भी विवाह किये थे 【बहुविवाह की विधिवत् सुव्यवस्था...संभवत: उस काल में स्त्रियाँ अधिक और पुरुष कम रहे होंगे। काली एक उत्कृष्ट श्रेणि की सिद्व साधिका थी। आर्य कन्या गौर वर्ण पार्वती से एक पुत्र भैरव और काली से एक पुत्री "भैरवी" ने जन्म लिए थे। दोनों भगवान शिव के साथ श्मशान में साधना (उच्चतर तंत्र साधना) करते थे। श्मशान में आम लोग कम जाते है जिससे वहाँ मानस तरंग वातावरण में विरल रहता है फलस्वरुप साधना में मन को बाधा नही होती है और इस कारण श्मशान में साधना अच्छी होती है। कहा जाता है कि एक दिन काली भगवान शिव के बगैर अनुमति के अपने पुत्री को देखने श्मशान चली आई। जहाँ पूर्व से ही शिव, भैरव और भैरवी के साथ साधना कर रहे थे इसी दौरान रात के अँधेरे में काली का पैर शिव को स्पर्श किया तत्पश्चात शिव ने कहा "त्वम् किम्", फलस्वरुप काली से संकोचवश दांत तले जीभ निकल गई। बहुत बाद में पुराणकार ने इस घटना को काल्पनिक कथा द्वारा एक अलग रूप और कहानी में जाना गया जो समाज में वर्तमान में प्रचलित है।

भगवान शिव और गंगा

भगवान शिव और गंगा नदी का कोई सम्बन्ध नही है। "गंगा" एक पीत वर्ण की मंगोल कन्या थी जो शिव की पत्नी थी। गंगा से "कार्तिक" पुत्र पैदा हुए। कार्तिक बचपन से ही आलसी और बहिर्मुखी स्वभाव का था। मन से चँचल था जिससे इसका मन आध्यात्मिक साधना में नही लगता था जबकि पार्वती पुत्र भैरव और काली पुत्री भैरवी अपने पिता शिव के बताये मार्ग का अनुपालन कठोरतम तरीके से किया करते थे। कार्तिक के चंचलता और बहिर्मुखी स्वभाव से गंगा काफी चिंतित रहती थी। भगवान शिव उनके मानसिक चिंताओं को दूर करने के लिए समाज के नजर में सबसे ज्यादा मान सम्मान देते थे। जिसके फलस्वरुप शिव के पारिवारिक सदस्य और आमजन कहते थे कि शिव पत्नी गंगा को अपने सर पर बैठा लिए है। बाद में पुराणकार इस धारणा को विकृत रूप देकर शिव के सर और जटा से गंगा नदी को ही निकाल दिया जो अप्रकृत है। कार्तिक की पत्नी का नाम देवसेना थी, इसलिए कार्तिक को देवसेनापति भी कहा जाता है।


इस प्रकार भगवान शिव को अपने तीन पत्नी से उपन्न मात्र तीन संतान भैरव, भैरवी और कार्तिक थे। गणेश या गणपति शिव का पुत्र नही था। गणपति गण गोष्ठी के प्रधान होते थे। उस समय आम गण की अपने गणपति से अपेक्षा करता था कि हमारा गणपति हाथी जैसा विशाल और बलवान हो और हमारे गण गोष्ठी का प्रजनन चूहे के समान त्वरित हो। उस समय के गण गोष्ठी की इसी धारणा को मूर्त रूप में पुराणकार गणपति या गणेश को शिव से संबंध जोड़ दिया। इसी तरह शिव के हाथ में त्रिशूल दिखाया जाता है जबकि विदित है कि उस समय लोह (लोहा) आदि मेटालिक खनिजों की खोज नही हुई थी। पार्वती को रेशमी साड़ी में दिखाया जाता है जबकि साड़ी उस समय बनाने की खोज नहीं हुई थी। वास्तविकता है कि उस समय के लोग पेड़ों के पत्ते और जानवर का खाल जैसे मृग वा व्यध्र आदि हीं पहनते थे। पत्थर का औजार व हथियार रखते थे। पहिया या चक्र का भी अविष्कार नही हुआ था इसलिए भगवान शिव जंगली पशु याक पर चढ़ते थे क्योकि याक दूर से ही दलदली और बर्फीली क्षेत्र को अनुभव कर लेता है। याक की सवारी कर शिव ने आल्प्स पर्वत तक का भ्रमण किये और मानवता कल्याणार्थ अपने अवदान व धर्मोपदेश को प्रचारित किये। इसी तरह उस समय जब दो गण लड़ते थे तो पराजित गण से 'बम' बोलवाने की प्रथा थी। जो आज के लोग तीर्थ कावड़िया यात्रा के दौरान बोल बम का नारा देते हैं। भगवान शिव पशु से भी बहुत प्रेम करते थे इसलिए शिव को पशुपति भी कहा जाता है। पुराणकार शिव के पशु प्रेम को गले में नाग लपेटकर दिखाया है। सच्चाई है कि शिव सभी पशु से प्रेम करते थे न की केवल नाग से। चुकी शिव के समय भाषा थी लेकिन लिपि नही था जिससे शिव के अवदानों को लिपिबद्ध नही किया जा सका। एकमात्र श्रुतिकर्ता इतिहास का माध्यम होता था जो कि उनके स्मरण व कथन पर आधारित था। फलस्वरुप शिव का इतिहास कालखंड के अनुसार पौराणिक (काल्पनिक) व विकृत होता गया। भगवान शिव के पश्चात भाव चित्रात्मक लिपि अस्तित्व में आया जो लिपिबद्ध के लिए यथोपयोगित नही हो सका। भगवान शिव से प्रभावित सिंधु सभ्यता का उद्भव हुआ था। इस सभ्यता की लिपि भी भावचित्रात्मक थी।


शिव का मानवता के लिए अवदान

◆भगवान शिव ने संगीत के सप्त स्वर 'सा रे ग म प ध नी' की रचना सात अलग अलग पशु के स्वर के अनुसार किये थे। संगीत, नृत्य, छंद, मुद्रा आदि समाज को उपहार स्वरूप शिव ने ही दिए, इसलिए शिव को ★नटराज★ भी कहा जाता है। मानव के शीघ्र बुद्धि विकसित हेतु शिव ने तांडव नृत्य दिए। आधुनिक ★आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति★ शिव का ही देन है। इसलिए शिव को ★बैद्यनाथ★ भी कहते है। शिव का सबसे अमूल्य देन आध्यात्म क्षेत्र में ★तंत्र साधना★ पद्धति है। समाजिक क्षेत्र में शिव ने सर्वप्रथम वैवाहिक ★दाम्पत्य व्यवस्था★ मानव समाज को दिए। समाज में स्त्रियां उचित सम्मान की हक़दार बनी। शिवकाल में स्त्रियों को पुरुषों के समान सभी अधिकार प्राप्त थे इसलिए शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में प्रतिबिम्बित किया गया। तीन अलग अलग रेस की महिलाओ से वैवाहिक संबंध स्थापित कर मानव समाज में एकता का सूत्रपात किया। आर्य -अनार्य के द्वैष को खत्म करने और मानवता के रक्षा हेतु शिव को विष वमन भी करना पड़ा इस कारण इन्हें ★नीलकंठ★ भी कहा जाता है (समुद्र मंथन आदि पौराणिक गल्प हैं)। शिव ने उस समय के गण के वर्तमान और भविष्य को देखते हुए सभी समस्याओं का उचित समाधान दिए जो मानव समाज के लिए सदैव स्मरणीय रहेगा। शिव के बिना मानव सभ्यता का इतिहास नही लिखा जा सकता है।

★शिव ने मनुष्य को साहसी बनने, धर्मनिष्ठ बनने की शिक्षा दी थी, इसलिए शिव को ★वीरेश्वर★ भी कहते है। साथ ही कहा था ऋजुता का त्याग मत करना, सदैव सीधे और उचित पथ पर चलना। शिव सरलता के प्रतीक थे। इस कारण मनुष्य ने शिव में देवत्व का अभिप्रकाश देखा था। धरती के सरल मनुष्य ने शिव में समस्त ऐश्वर्यों का समावेश पाया था। इस कारण जाति - वर्ण, विद्वान - अविद्वान के भेद के बिना सभी मनुष्यों ने शिव के चरणों पर अपने को समर्पित कर कहा था -
। । निवेदयामि चात्मानं त्वं गति: परमेश्वर। ।


शिव की शिक्षा

1. वर्त्तमानेषु वर्तेत।
2. कर्मणा बद्धते जीव: विद्यया तु प्रमुच्यते।
3. यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तद् कलत्रम्।
4. प्रतिकूलवेदनीयं दु:खम्।
5. क्रोध एव महान् शत्रु:।
6. लोभ: पापस्य हेतुभूत:।
7. अहंकार पतनस्य मूलम्।
8. परिश्रमेण बिना कार्य सिद्धिर्भवति दुर्लभा।
9. धर्म: स: न यत्र न सत्यमस्ति।
10. मिथ्यावादी सदा दु:खी।
11. पापस्य कुटिला गति:।
12. धर्मस्य सूक्ष्मा गति।
13. आत्ममोक्षार्थम जगतहिताय च।
14. कुर्वन्तु विश्वम तंत्रिकम
15. फलिषयतीति विश्वास: सिद्धेरप्रथम लक्षणम, द्वितीयं श्रद्धया युक्तम, तृतीयम गुरुपूजनम, चतुर्थ: समताभावो, पंचमेन्द्रीयनिग्रह, षष्ठमच प्रमिताहार:, सप्तम नैव विद्यते【भगवान शिव इस सात सूत्र को सफलता का सूत्र माना है 】

शिव भगवान के फोटो

भगवान शिव का इतिहास लिखना किसी के वश में नही है। संक्षिप्त मैं अकिंचन शिव की शक्ति से ही कुछ लिख पाया हूँ। 
। । शक्ति सा शिवष्य शक्ति। ।
🕉️🕉️🕉️नमः शिवाय शान्ताय🕉️🕉️🕉️
🐚🐚शिवरात्रि की शुभकामनाएं🐚🐚
निर्मल✍️
किसी बँधु को इस संदर्भ में मुझसे संपर्क कर किसी शंका के समाधान हेतु मुक्त वार्ता का अहिर्निष आमंत्रण है
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