बचपन शायरी हिंदी में बचपन पर कविता Bachpan Shayari in Hindi
बचपन
विधा - ताटक छंद
भोला कितना बचपन मेरा, कितना वो तो प्यारा था
फ़िकर नहीं थी सारे जग की, सबसे वो तो न्यारा था
खेलो कूदो मौज मनाओ, जाते थे हम खेतों में
दौड़ लगाते बड़ी तेज से, धूम मचाते रेतों में
कितना कूदे पानी में हम, मछली झट से भागी थी
इधर उधर हम हाथ मारते, मछली इसकी आदी थी
शोर मचा कर पानी बहता, बहना ही था उसको तो
गहरे पानी में मत जाना, बोले पापा खिसको तो
गुड्डा गुड्डी खेले थे हम, शादी खूब रचाई थी
रूठ गई थी गुड्डी अपनी, होनी आज विदाई थी
गाजे-बाजे खूब बजाए, दुल्हन घूँघट ओढ़े थी
सबने मिलकर उसे मनाया, सचमुच रूठी थोड़े थी
पेड़ों से थे आम चुराए, दूर खड़ा वो माली था
दौड़ लगा कर वो जो आया, देखा उसने खाली था
बड़े चाव से खाया हमने, अब तो कल की बारी थी
बड़े ध्यान से अंदर जाओ, इसमें ही होश्यारी थी
गिल्ली डंडा कंचे हमने, खूब मजे में खेले थे
आइस पाइस के क्या कहने, हर दिन ही तो मेले थे
चरखे में हम झूले सारे, चक्कर हमको आया था
बड़े जोर से चीखे थे हम, डर का हम पर साया था
श्याम मठपाल, उदयपुर
बचपन की यादें पर कविता | गांव की बचपन की यादें
वो बचपन की याद पुरानी
वो बचपन की याद पुरानी
भूले नहीं हम रात सुहानी
तारे गिन गिन रातें कटती
दादा - दादी की कहानी
क्या गजब था गिल्ली डंडा
डाल - डाल पर झूले फंदा
पगडंडियों पर दौड़ लगाना
कितना सुन्दर पूनम चंदा
वो बचपन की याद पुरानी
भूले नहीं हम रात सुहानी
तारे गिन गिन रातें कटती
दादा - दादी की कहानी
क्या गजब था गिल्ली डंडा
डाल - डाल पर झूले फंदा
पगडंडियों पर दौड़ लगाना
कितना सुन्दर पूनम चंदा
बचपन का प्यार शायरी, मेरे बचपन की यादें
बहुत प्यारी थी वो मस्ती
खेल - खेल में जमकर कुस्ती
गोली कंचों पर निशाने
बहुत बड़ी बचपन हस्ती
खेल - खेल में जमकर कुस्ती
गोली कंचों पर निशाने
बहुत बड़ी बचपन हस्ती
बचपन की कुछ सुनहरी यादें
मारधाड़ी हम खूब खेले
गेंद की मार बहुत झेले
निशाने कितने अचूक अपने
अब तो बस यादों के मेले
बागों से आम चुराना
बड़े चाव उनको खाना
बैर-अमरुद खूब खाये
माली देख झट छुप जाना
गेंद की मार बहुत झेले
निशाने कितने अचूक अपने
अब तो बस यादों के मेले
बागों से आम चुराना
बड़े चाव उनको खाना
बैर-अमरुद खूब खाये
माली देख झट छुप जाना
Bachpan Ki Shayari
भरी दोपहरी पतंग उड़ाई
गिरते पड़ते चोटें खाई
लू से बीमार बहुत पड़े हम
मुश्किलों से जान बचाई
गिरते पड़ते चोटें खाई
लू से बीमार बहुत पड़े हम
मुश्किलों से जान बचाई
बचपन शायरी हिंदी में लिखी हुई
पेड़ों पर झट से चढ़ जाना
डालों से फिर कूद लगाना
पनघट पर छक कर नहाते
लौट कर आया नहीं जमाना
पिठ्ठू पर लगाया निशाना
करते थे हम बहुत बहाना
चीते जैसे फुर्ती थी तब
पल भर में पिठ्ठू जमाना
खूब खेले छुपम छुपाई
कागज़ की नावें चलाई
फिसलन पट्टी पर फिसले
बात - बात पर खूब लड़ाई
डालों से फिर कूद लगाना
पनघट पर छक कर नहाते
लौट कर आया नहीं जमाना
पिठ्ठू पर लगाया निशाना
करते थे हम बहुत बहाना
चीते जैसे फुर्ती थी तब
पल भर में पिठ्ठू जमाना
खूब खेले छुपम छुपाई
कागज़ की नावें चलाई
फिसलन पट्टी पर फिसले
बात - बात पर खूब लड़ाई
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कैंची साइकिल हमने चलाई
कितनी अपनी टाँगे तुड़वाई
बचपन जिद्दी नाहीं माना
चाहे हो अपनी ही हँसाई
रट्टू तोते हम खूब बने थे
गिनती पहाड़े जी खड़े थे
मुर्गा - डंडा की सजा मिली
मुख पर फिर भी तारे जड़े थे
बाबा कहकर खूब डराया
बाग़ कहकर दूर भगाया
मार पड़ती बहुत बुरी तब
फिर ना था कोई पराया
श्याम मठपाल, उदयपुर
कितनी अपनी टाँगे तुड़वाई
बचपन जिद्दी नाहीं माना
चाहे हो अपनी ही हँसाई
रट्टू तोते हम खूब बने थे
गिनती पहाड़े जी खड़े थे
मुर्गा - डंडा की सजा मिली
मुख पर फिर भी तारे जड़े थे
बाबा कहकर खूब डराया
बाग़ कहकर दूर भगाया
मार पड़ती बहुत बुरी तब
फिर ना था कोई पराया
श्याम मठपाल, उदयपुर
तब टोली थी एक हमारी : संस्मरण Memoir In Hindi Sansmaran बचपन की यादें
संस्मरण-6
तब टोली थी एक हमारी
उसमें कुल थे आठ।
पाँच कजिन थे तीन पड़ोसी
पड़ी शरारत गांठ।
रहे योजना निर्माता मैं
चलती मेरी बात।
खुराफत रहे ध्येय सबके
मैं भी होते साथ।
जिधर चले रे पगली टोली
बस होता था लक्ष्य।
तोड़-तोड़ फल वृक्ष उजाड़े
फूल तोड़ उपलक्ष्य।
इक दिन आलू गोभी का रे
बना तभी दम भात।
करते धरते ही हम सबका
बिति बिति आधी रात।
गोभी लेते देख पड़ोसी
दे बैठे आवाज।
भाग-भाग सरपट ही भागे
लगी रात को लाज।
लिए चले घर से ही आलू
कजिन यहाँ से आग।
जलते चुल्हे मस्ती-मस्ती
पल-पल गाये राग।
खा-पीकर मस्ती पल सूझे
वही चाँदनी रात।
खेत पड़ोसी खीरा का वह
हुई चढ़ाई बात।
आगे-आगे सब रे चलते
धीमे मेरे पाँव।
निःशब्द रात्रि सोये-सोये
सोये पूरे गाँव।
सभी घुसे थे खेतों में तब
पीछे मेरी छाँव।
मनोहर चाँदनी मन विचलित
मुझे लगा था झांव।
दूर रहे हम समझ नहीं पाये
आया अभी किसान।
भाग-भाग भागो रे भैया
अभी बचाओ जान।
भागे-भागे सब रे भागे
जो कुल था हाँ सात।
मेरी भी थी चाल निराली
झट-झट उठती लात।
इक दम पहुँचा हम सब तब
जो घोषित था ठांव।
हाँ भय-भय भयभीत सभी तब
डगमग डोले पाँव।
कौन-कौन था पीछे-पीछे
लिया नहीं वे सूध।
होश तुम्हें संयम थे तेरे
या विचलित थे बुद्ध।
मैं सच ही बिल्कुल सच बोला
तब भय सिर पे खास।
अब गौर गिनाऊँ रे जानो
बस छाया थी पास।
धन्यवाद।
प्रभाकर सिंह
नवगछिया, भागलपुर
बिहार
इतवार नहीं आता : बचपन पर कविता
बहुत सी बातें करनी है,
दिल के राज बताने है,
पर अब वो बचपन वाला इतवार नहीं आता।
जी भर कर बातें करनी है
कलियों की तरह खुल कर मुस्करुना है
पर अब वो बचपन वाली शाम नहीं आती
मोहल्ले के नुक्कड़ पर वो चाय की दुकान,
जहाँ सभी दोस्त मिलकर चाय की चुस्की के साथ मस्ती करते थे
अब वो बचपन के इतवार नहीं आते
वो शनिवार की रात,रात भार होमवर्क करना सुबह सुबह दोस्तों के पेज फाड़ना
अब वो बचपन का इतवार नहीं आता
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