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नाभादास के छप्पय छंद का सारांश व्याख्या भावार्थ एवं प्रश्न उत्तर

छप्पय छंद का सारांश व्याख्या भावार्थ एवं प्रश्न उत्तर


छप्पय छंद का कवि परिचय
छप्पय छंद के कवि का नाम नाभादास है इनके जन्म और मरण की कोई प्रमाणिक तिथि ज्ञात नहीं है परन्तु लोगों के अनुमान के आधार पर इनका जन्म लगभग 1570 ईस्वी के आस पास और मृत्यु 1600 के आस पास बताई जाती है। इनका निवास स्थान सांप्रदायिक मान्यता के अनुसार दक्षिण भारत में, शैशव में पिता की मृत्यु और अकाल के कारण माता के साथ जयपुर (राजस्थान) में प्रवास । दुर्योगवश माता से भी बिछोह हो गया था। नाभादास के पिता का नाम रामदास जी और नाभादास के माता का नाम जानकी देवी था। नाभादास सगुणोपासक रामभक्त कवि थे।

छप्पय छंद का सारांश

छप्पर छंद के माध्यम से कवि नाभादास ने कबीरदास जी के साखी, संबंध, रमैनी तथा सूरदास के भक्ति काव्य पर अपने विचार व्यक्त किए हैं जो निम्न प्रकार से है —

छप्पय : कबीर का सारांश

जो भक्ति विहीन होता है वही धर्म पर चलता है। वर्तमान समय में यज्ञ, व्रत, दान, भजन सभी कुछ तुच्छ हैं। कबीर की साखी, सबद एवं रमैनी, हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के लिये प्रमाणस्वरूप हैं। मानव को सर्वदा दूसरे के हित का वचन बोलना चाहिए। साथ ही मनुष्य को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसमें पक्षपात न हो, यह संसार इतना विचित्र है कि यहां किसी वस्तु को प्रत्यक्ष देखकर भी उस पर विश्वास नहीं किया जाता है, सुनी सुनायी बातों पर कोई विश्वास नहीं करता है। यही कारण है कि कबीर ने वर्णाश्रम धर्म और षट्शास्त्रों को कहीं भी महत्व नहीं दिया है।

छप्पय : सूरदास का सारांश

छप्पय छंद में नाभादास सूरदास के विषय में कहते हैं कि सूरदास की उक्ति में ऐसा अनुप्रास आया है और वह इस प्रकार सजाया भी गया है कि उनकी स्थिति दूसरों से भारी लगती है, वचन में प्रेम का निर्वाह अद्भुत तुक के साथ हुआ है। उनकी दिव्य दृष्टि से हृदय में हरि लीला का आभास होने लगता है। जन्म, कर्म, गुण, रूप सबको जिह्वा से ही प्रकाशित किया है। जिसके पास निर्मल बुद्धि है और जो यह सुनता हो कि दिव्य सूर के समान कोई कवि नहीं है और सूर के कवित्त सुनकर उनके सामने नतमस्तक नहीं होता है, उसका जीवन व्यर्थ है।

छप्पय पाठ का प्रश्न उत्तर

प्रश्न १.

नाभादास ने कबीर की किन विशेषताओं का उल्लेख किया है ? उनकी क्रम से सूची बनाइए

उत्तर : नाभादास ने छप्पय में कबीरदास के द्वारा भक्ति के संदर्भ में कही गई बातों का उल्लेख करते हुए कहा है कि जो मनुष्य भक्ति से विमुख होता है वह अपना सर्व धर्म अधर्म कर लेता है। योग, व्रत, दान, भजन, हित की भाषा आदि को तुच्छ बना लेता है।

प्रश्न २.

सूर के काव्य की किन विशेषताओं का उल्लेख कवि ने किया है?

उत्तर : नाभादास ने सूरदास के काव्य के चमत्कार, अनुप्रास और उनकी भाषा के सौंदर्य की भरपूर सराहना की है। सूरदास के कष्ठ में उपस्थित ‘प्रीति तत्व’ एवं इनकी भाषा में उपस्थित ‘तुक’ की खूब प्रशंसा की है। नाभादास के अनुसार सूरदास जी के काव्य के श्रवण मात्र से बुद्धि विमल होती है। सूर ने अपने काव्य में कृष्ण के जन्म, कर्म, गुण रूप आदि को प्रतिबिम्बित कर दिया है।

प्रश्न ३.

‘मुख देखी नाहिंन भनी’ का क्या अर्थ है ? कबीर पर यह कैसे लागू होता है?

उत्तर : प्रस्तुत पंक्ति में कबीरदास जी के अक्खड़ व्यक्तित्व को उजागर किया गया है। कबीरदास ऐसे प्रखर चेतना संपन्न कवि हैं जिन्होंने कभी भी मुँह देखी बातें नहीं की। उन्हें सच को सच कहने में तनिक भी संकोच नहीं था। राज सत्ता हो अथवा समाज की जनता, पंडित हों या मुल्ला-मौलवी सबकी बखिया उधेड़ने में उन्होंने तनिक भी कोताही नहीं बरती। उन्होंने इसलिए अपनी अक्खड़ता, स्पष्टवादिता, पक्षपात रहित कथन द्वारा लोक-मंगल के लिए अथक संघर्ष किया।

प्रश्न ४.

‘पक्षपात नहीं वचन सबहिके हित की भाखी।’ इस पंक्ति में कबीर के किस गुण का परिचय दिया गया है?

उत्तर : प्रस्तुत पंक्ति नाभादास जी द्वारा रचित ‘भक्तमाल’ काव्य कृति से उद्धृत की गयी है। इस पंक्ति में भक्त कवि ने महाकवि कबीरदास के व्यक्तित्व का स्पष्ट चित्रण किया है। कबीर के जीवन की विशेषताओं की ओर इस पद के माध्यम से ध्यान आकृष्ट किया है।

क्या हिन्दू और क्या तुर्क, सभी के प्रति कबीरदास ने आदर भाव प्रदर्शित किया और मानवीय पक्षों के उद्घाटन में प्रसिद्धि प्राप्त की। कबीरदास के वचनों में तनिक भी पक्षपात नहीं है। वे सबके हित की बातें सोचते हैं और वैसा ही आचरण करने के लिए सबको कविता के माध्यम से जगाते हैं। सत्य को सत्य कहने में तनिक झिझक नहीं, भय नहीं, लोभ नहीं। इस प्रकार क्रांतिकारी कबीर का जीवन-दर्शन सबके लिए अनुकरणीय एवं वंदनीय है। लोक-मंगल की भावना जगानेवाले इस तेजस्वी कवि की जितनी प्रशंसा की जाय कम ही होगी। कबीरदास क्रांतिकारी कवि, प्रखर चिंतक तथा महान दार्शनिक थे।

प्रश्न ५.

कविता में तुक का क्या महत्व है ? इनका छप्पयों के संदर्भ में अर्थ स्पष्ट करें।

उत्तर : कविता में ‘तुक’ का अर्थ अन्तिम वर्णों की पुनरावृत्ति है। कविता के प्रत्येक चरणों के अंत में वर्णों की आवृत्ति को ‘तुक’ कहते हैं। साधारणतः पांच मात्राओं की ‘तुक’ उत्तम मानी गयी है।

संस्कृत भाषा के छंदों में ‘तुक’ का महत्व नहीं था, परंतु हिन्दी में तुक ही छन्द का प्राण है।
‘छप्पय’- यह मात्रिक विषम और संयुक्त छंद है। इस छंद के छः चरण होते हैं इसलिए इसे ‘छप्पय’ कहते हैं।

प्रथम चार चरण रोला के और शेष दो चरण उल्लाला के, प्रथम-द्वितीय और तृतीय चतुर्थ के योग होते हैं। छप्पय में उल्लाला के सम-विषम (प्रथम-द्वितीय और तृतीय-चतुर्थ) चरणों का यह योग 15 + 13 = 28 मात्राओं वाला ही अधिक प्रचलित है। जैसे भगति विमुख जे धर्म स अब अधरम करि गाए। योग, यज्ञ, व्रत, दान, भजन बिनु, तुच्छ, दिखाओ।

प्रश्न ६.

‘कबीर कानि राखी नहिं’ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर : कबीरदास जी एक प्रखर क्रांतिकारी कवि थे। उन्होंने सर्वदा ही पाखंडियों का विरोध किया है। भारतीय षड्दर्शन और वर्णाश्रम की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक धर्म था-षडदर्शन। भारत के प्रसिद्ध छ: दर्शन हिन्दुओं के लिए अनिवार्य थे। इनकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कबीरदास ने षड्दर्शन की बुराइयों की तीखी आलोचना की और उनके विचारों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया अर्थात् कानों से सुनकर ग्रहण नहीं किया बल्कि उसके पाखंड की धज्जियां उड़ा दी। कबीर ने जनमानस को भी षडदर्शन द्वारा पोषित वर्णाश्रम की बुराइयों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया और उसके विचारों को मानने का प्रबल विरोध किया।
प्रश्न ७.

कबीर ने भक्ति को कितना महत्त्व दिया?

उत्तर : कबीरदास जी ने अपनी सबदी, साख और रमैनी के माध्यम से धर्म की सटीक व्याख्या प्रस्तुत की। लोक जगत में परिव्याप्त पाखंड, व्यभिचार, मूर्तिपूजा, जाति-पाति और छुआछूत का प्रबल विरोध किया। उन्होंने योग, यज्ञ, व्रत, दान और भजन की सही व्याख्या कर उसके समक्ष उपस्थित किया।

कबीर ने भक्ति में पाखंडवादी विचारधारा की जमकर खिल्लियाँ उड़ायी और मानव-मानव के बीच समन्वयवादी संस्कृति की स्थापना की। लोगों के बीच भक्ति के सही स्वरूप की व्याख्या की। भक्ति की पवित्र धारा को बहाने, उसे अनवरत गतिमय रहने में कबीर ने अपने प्रखर विचारों से उसे बल दिया। उन्होंने विधर्मियों की आलोचना की। भक्ति विमुख लोगों द्वारा भक्ति की परिभाषा गढ़ने की तीव्र आलोचना की। भक्ति के सत्य स्वरूप का उन्होंने उद्घाटन किया और जन-जन के बीच एकता, भाईचारा प्रेम की अजस्र गंगा बहायी। वे निर्गुण विचारधारा के तेजस्वी कवि थे। उन्होंने ईश्वर के निर्गुण स्वरूप का चित्रण किया। उसकी सही व्याख्या की। सत्य स्वरूप का सबको दर्शन कराया।

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