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गुरु गोविंद सिंह पर कविता Poem on Guru Gobind Singh in Hindi

गुरु गोविंद सिंह पर कविता Poem on Guru Gobind Singh in Hindi

आज 21 दिसंबर,7 पूस को "श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज"का सारा परिवार सरसा नदी के किनारे,रूपनगर के नजदीक बिछड़ गया था। मेरी ये रचना उस लम्हे की याद में, गुरु जी के चरणों में समर्पित है..

गुरु गोबिंद सिंह पर कविता : गुरु गोविंद सिंह जी का परिवार विछोड़ा

खाके कुरान-ए-पाक की कसमें, कैसा काम कर गए,
" इस्लाम " के ठेकेदार देखो, द़गा सरेआम कर गए।

" गुरु गोविंद सिंह जी "से किया था करार, जंग ना लड़ेंगे,
" आनंदपुर "खाली कर दो, जाओ हम कुछ ना कहेंगे!

चल पड़े " गुरु गोविंद " संग अनुयाई, राजमहल छोड़ दिया,
पर, सरसा नदी के किनारे, मुगलों ने हमला बोल दिया।

निहत्थे सीखों पर चल रही, गद्दारों की शमशीरें थी,
पल भर में ही बदल गईं, विश्वास की तस्वीरें थी!

ध्यान धरा फिर गुरु जी ने, कहा एक-एक से भिड़ जाओ,
आधी सेना यहीं रुको, आधी सरसा पार कर जाओ।

सर्दी का कहर था बरसा, सरसा भी थी उफन रही,
करने लगे सब पार नदी को दुश्मन की फ़ौज थी पीछे पड़ी!

" गुरु गोविंद " परिवार समेत, सरसा को तो पार कर गए,
पर, कुछ सीखों की थी बदकिस्मती, जल समाधि पा गए।

ठिठुर रहे थे सबके तन-मन, लिबास सबके निचुड़ गए,
पार कर गए नदी गुरुजी पर, परिवार से वो बिछड़ गए।

बंट गए चारों साहिबजादे, दो गोविंद जी संग रह गए,
" मां गुज्जर "और दो नन्हें शहज़ादे, जाने कहां खो गए!

गज़ब क़यामत का दिन था, कुदरत ने क्या खेल रचाया,
जिनके लिए लड़े " गुरु गोविंद " उन्हीं ने था क़हर बरपाया!

धर्म की खातिर " बाप " वार दिया, आज खुद पे आन पड़ी,
खेरु-खेरु हो गया परिवार,ऐसी थी विपदा आन पड़ी।

इतनी आफ़त सहकर भी, " गुरु गोविंद सिंह " शुक्र मनाते हैं,
" तेरा किया मीठा लागे " कहके " बोले सो निहाल " बुलाते हैं!
हरजीत सिंह मेहरा
लुधियाना पंजाब।
85289-96698

सवा लाख से एक लड़ाऊं...ता गोविंद सिंह नाम कहांऊं : गुरु गोबिंद सिंह जी कविता

जंग 1971 की
दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह जी ने... नारा यह लगाया था....
सवा लाख से एक लड़ाऊं...
ता गोविंद सिंह नाम कहांऊं...

इस नारे को, भारतीय वीरों ने,
तब सच कर दिखाया था...,
जब... 1971 की जंग में,
दुश्मन को धूल चटाया था।
लोंगे वाला की पोस्ट पे डटे,
सिख रेजीमेंट के जवान थे वो,
पाक सेना के लश्कर से अनभिज्ञ,
बिल्कुल ही अनजान थे वो।
एकसौ बीस की गिनती थी इनकी,
उनकी, छ: सौ की टुकड़ी थी,
मामूली सा असला था यहां...
उनकी तोपों की टोली थी...
धन्य है..मेजर कुलदीप सिंह जी,
जिसने अलख जगाया था..,
एक एक सैनिक के दिल में,
जीत का जज्बा जगाया था।
अपने कुछ जवानों के संग..
दुश्मन को... ललकारा था,
गुरु गोविंद पिता के संग संग,
मां भारती का जयकारा था।
भीड़ जाओ..दस-दस के संग..
साबित करो तुम गोविंद के लाल हो,
एक भी बछड़ा, बचके ना जाए..
यकीन दिलाओ, तुम उनके काल हो।
गोविंद पिता की वो ललकार,
आओ..तुम्हें याद दिलाऊं...
"सवा लाख से एक लड़ाऊं,
तां गोविंद सिंह नाम कहांऊं"..!
फौलादी सीने फड़क उठे थे,
नसों में लावा दौड़ चला था..,
टूट पड़े थे... शेर बन कर,
"जो बोले सो निहाल"बोला था।
चकित कर दिया दुश्मन को सबने,
नानी याद, कराई थी उनकी,
अपने हौसले की, तोपों के आगे,
तोपें, फीकी पड़ गई थी उनकी।
हमारे चंद वीरों की टुकड़ी ने,
छक्के ....उनके छोड़ाए थे,
चुन-चुन कर संगहार किया, वैरी का,
तिनकों की तरह... उड़ाए थे।
एक इंच बढ़ने न दिया था, उनको,
अपनी, छाती पे गोली खाई थी,
हंसते-हंसते शहीद हो गए,
पर, इज्जत भारत मां की बचाई थी।
लौट गए रकीब 'मुंह की खाकर',
उनकी फजीहत..खूब उड़ाई थी,
"मूंग दल कर उनकी छाती पर",
हमने फतेह ... बुलाई थी।
उन शहीदों की शहादत पर,
आंसू हम ना भरते हैं,
देके सौ तोपों की सलामी...
उनको सलाम हम करते हैं..!!
हरजीत सिंह मेहरा

गुरु गोविंद सिंह पर कविता Poem on Guru Gobind Singh in Hindi

गुरु गोविंद सिंह पर कविता : समय का बेरहम पहिया

पूस कि वो सर्द रात थी, सिरसा नदी का किनारा था,
ना कोई खैर ख़बर था वहां, ना ही कोई सहारा था।
दादी " गुजरी " की उंगलियां थामें, वो मासूम चल रहे थे,
" गुरु गोविंद "के ज़िगर के टुकड़े, आंखों के वो तारे थे!
बचपन की उम्र थी उनकी, नाजुक उनके तन थे,
कांटो भरी डगर पर वे, नंगे पांव चल रहे थे।
कभी अपने छलनी पांव, तो कभी दादी का चेहरा देखते,
" ऐसे कहां जा रहे हैं हम " ख़ामोश निगाहों से पूछते!
चलते चलते दादी उन्हें..अपने सीने से लगा लेती,
झुक कर ज़ख्मी पांवों को, प्रेम से सहला देती।
मख़मल के बिस्तर पे सोने वाले, आज फटे हाल थे,
वक्त की बिसात पर असहाय..बेघर सूरते हाल थे।
बिछड़ गया था सारा परिवार, बंट गया जैसे संसार,
दादी के संग रह गए बस..फतेह सिंह और जोरावर।
बेरहम " समय के पहिए "ने देखो चलाया ऐसा चक्कर था,
रहनुमा बन बैठा था वो, जो महल का एक चाकर था!
खिदमत और वफादारी का " गंगू " ने फर्ज खूब निभाया था,
माता गुजरी और साहिबजादों को अपने गांव ले आया था।
" समय के पहिए " की परिधि ने, कैसा खेल रचा डाला,
ज़ालिम समय के कालचक्र ने, बादशाह को रंक बना डाला!
हरजीत सिंह मेहरा
लुधियाना पंजाब।
85289-96698
गुरु गोविंद सिंह पर कविताएं Poem on Guru Gobind Singh in Hindi


गुरु गोविंद जी पर कविता : मुगलों संग गुरु गोविंद सिंह जी का चमकौर युद्ध

गुरु गोविंद जी पर मुगलों ने जब डाला घेरा था,
बाईस दिसंबर का उदय हुआ.. अभी सवेरा था।
बयालीस सिखों का गुरु जी को एक मात्र सहारा था..
उनकी दस लाख के लश्कर का, ना दिखता किनारा था।
‘‘ करदो हमारे हवाले खुद को ’’ वज़ीर खां ने हुकुम सुनाया,
‘‘ बचके ना जा पाओगे ’’ उसने गुरुजी को धमकाया।
सुनके ललकार वज़ीर की, सुरमों की भृकुटी तन उठी,
रग-रग में उनके समर की, ज्वाला थी धधक उठी।
धीरज धरो वज़ीर खां, तुम उतावलापन ना दिखाओ..
पहले अपने रण कौशल का, ज़ौहर तो दिखाओ!
क्या लड़ोगे तुम गोविंद..अपनी मौत को ना बुलाओ,
डाल दो अपने हथियार, हमारी पनाह में आ जाओ।
खौल उठा लहू गुरु गोविंद जी का
युद्ध के लिए ललकारा,
दहाड़ उठा वो शेर-ए-बब्बर, बुलंद किया हुंकारा!
‘‘ चिड़ियों संग मैं बाज लड़ाऊं, गीदड़ों को मैं शेर बनाऊं..
सवा लाख से एक लड़ाऊं, तभी गोविंद सिंह नाम कहांऊं’’
फड़क उठीं सूरमाओं की बाजूऐं, लहरा उठे ढाल-तलवार,
लेके गुरु गोविंद कि आशीष, वैरी पे करने लगे वो वार।
पांच-पांच की टोली में बांटे, गुरु ने पांच प्यारे सजाए..
चालीस सिंहों को बारी-बारी से, रण में खूब लड़ाए।
युद्ध कौशल को देख गुरु के, वज़ीर भौचक्का रह गया,
एक एक सिंह लाखों की सेना पे, कैसे भारी पड़ गया!
बिजली की तरह लड़े थे चालीस, सारा दिन बीत गया..
आधी सेना को ख़त्म कर दीया, ऐसा था संग्राम किया!
गुरु के समर कला को देख, वज़ीर के छक्के छूट गए..
अंत में वो सारे सिंह..शहीदी को प्राप्त हो गए।
बयालीस सीख सिंहों ने देखो, ऐसा कारनामा कर दिया,
इतिहास में सुनहरे अक्षरों से, अनोखा संग्राम लिख दिया!
मंसूबा वज़ीर खां के दिल में, धरा का धरा रह गया..
गुरु गोविंद का बाल न बांका हुआ, वो मुंह की खा गया!
‘‘ चमकौर का युद्ध ’’ गुरुजी उन सिंहों के नाम लिखते हैं,
आज भी उनकी याद में यहां शहीदी मेले लगते हैं!!
हरजीत सिंह मेहरा
लुधियाना पंजाब।
85289-96698

गुरु गोविंद जी पर कविता : मुगलों संग गुरु गोविंद सिंह जी का चमकौर युद्ध


गुरु गोबिंद सिंह जी के सम्मान में छोटी सी कविता

नन्हीं सी उम्र में देखो, क्या कमाल कर गए,
धर्म के खातिर अपनी जान, कुर्बान कर गए!
धन्य थे गोविंद के लाल, उनकी सिखी को नमन करते हैं..
आज उनकी शहादत के दिन, नम आंखों से, कोटि कोटि प्रणाम करते हैं!
वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह
सुबह का प्रणाम

गुरु गोविंद के दो राज दुलारे, अजीत सिंह और जुझार प्यारे

गुरु गोविंद के दो राज दुलारे,
अजीत सिंह और जुझार प्यारे

सिख सूरमें चमकोर में जब, हो रहे शहीद थे,
देख रहे घमासान, बाबा अजीत और जुझार थे।

बैठ के पिता के चरणों में कहा, हम भी युद्ध लड़ेंगे,
पंथ पर आंख उठाने वालों को, हम कभी ना छोड़ेंगे!

सुनके उनकी बात सब बोले, अभी आप बच्चे हो,
मुगलों संग लड़ने को आप, अभी समर में कच्चे हो।

अरदास की गुरु गोविंद के आगे, कहा हमें आज्ञा बक्शो,
इन सुरमों जैसे हम भी हैं, हमें इनसे अलग ना समझो।

सीने से लगाया लालों को पिता ने, ख़ुद दस्तार सजाया,
तान दिया तन पे, युद्ध कवच, शस्त्रों से उन्हें सजाया।

" जा रहे हो संग्राम में पुत्रों..पीठ कभी ना दिखाना,
दुश्मन के साथ लड़ते हुए, छाती पे घावों को लगाना"

कूद पड़े दोनों शहजादे रण में.. ज़ौहर ऐसा दिखाया,
कैसे रोकें इन दोनों को,वज़ीर को समझ ना आया..

काट दिये सर ज़ुल्मी के..भेद दिए दुश्मन के सीने..
सत्रह की बाली उमर में, चबवा दिए लोहे के चने!

चमकौर-गढ़ी के परकोठे से, बैठे श्री गुरु गोविंद निहारें,
क़हर ढा रहे थे मुगलों पर.. उनके दो आंखों के तारे!

गर्दिश में डाल दिया मुगलों को, ऐसा उन पे वार किया,
पर,उन जालिमों ने बाणों से उनका सीना बिंध दिया।

धराशाही होने से पहले, पिता को अंतिम प्रणाम किया,
मुस्कान लिए अधरों पे उन्होंने, अपना देह त्याग दिया।

जूझ रहे जुझार सिंह को भी, बर्बरों ने था घेर लिया..
खंजर घोंप दिए जिस्म में, उन्होंने भी प्राण त्याग दिया।

वार के दो पुत्रों को " गुरु गोविंद " पंथ का मान बचाते हैं,
'तेरा किया मीठा लागे' कहके रब का शुक्र मनाते हैं।

"मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा..
तेरा तुझ को सौंप दें..क्या लागे है मेरा.!!

हरजीत सिंह मेहरा
लुधियाना पंजाब।
85289-96698

गुरु गोविंद सिंह कविता : गुरु गोविंद जी के चाकर, गंगू ने की गद्दारी थी।

गुरु गोविंद सिंह कविता : गुरु गोविंद जी के चाकर, गंगू ने की गद्दारी थी।

गुरु गोबिंद सिंह जी पर कविता

करके सामना तूफानों का गंगूने, वो काम कर दिया,
निभा के वफादारी का फ़र्ज़, कायम मिसाल कर दिया।

बचाके शहजादों और मां गुज्जर को, अपने गांव ले आया था,
जब तक महाराज ना आए माता, आप यहीं रहो, समझाया था।

माता गुजरी ने गंगू को, जाने कितनी आशीषें दी थीं,
उसके सर पे हाथ फेरा, और सारी बलाएं ले ली थीं।

रातके भोजन के बाद गंगू ने, उन्हें शयनकक्ष में ठहराया था,
थक गए होंगे, आराम करें सब, कहके शीश नवाया था।

माता गुजरी ने अपनी गठरी, एक कोने में डाली थी..
पल्ले से अपनी..माता ने, मोहरों की थैली निकाली थी।

मोहरों की थैली माता ने, तख़्त पोश के किनारे रखी थी,
ये सारी हरकत गंगू ने, अपनी आंखों से देखी थी।

कुछ ना बोला गंगू, हाथ जोड़ कक्ष से बाहर आया..
मन उस का कपटी हो गया, दौलत देख के ललचाया.!

बड़ी मनहूस रात थी वो..माता भी सो ना पाईं थीं,
आधी रात को उनके कक्ष में, आई एक परछाईं थी!?

पहचान लिया माता ने गंगू को, पर वो कुछ ना बोली थी, 
ले गया मोहरों की थैली, माता ने आंखें ना खोली थी।

सुबह जब माता ने गंगू को... आवाज़ लगाई थी,
वो मोहरों की कहां है थैली, जो रात तूने उठाई थी!

आग बबूला हो गया गंगू..गुस्से से आंख तमाई थी,
क्या कहती हो तुम मुझे, क्या मैंने थैली चुराई थी?

मैंने तुमको पनाह दी..तुम मुझ पे दोष लगाती हो,
तुमने खो दी होगी कहीं थैली, तोहमत मुझ पे लगाती हो?

तुमने बेइज्जत किया है मुझे, मैं इसका मजा चखाऊंगा,
वज़ीर खां को बताके तेरा पता, इनाम भी ऐंठ लाऊंगा।

लाख मना करने पर भी गंगुने, माता की एक न सुनी थी,
कर गया वह कपटी गंगू..जो उसने मन में ठानी थी।

लालच ने हावी हो गंगू पर, कैसा गद्दारी का खेल खिलाया था,
पता बता दिया मुगलों को, उसने दादी-पोतों को पकड़वाया था!
हरजीत सिंह मेहरा

गंगू ब्राह्मण एक वफादार नौकर था..तब तक जब तक उसने मां गुजरी कि वह मोहरों की थैली न देखी थी। मुगलों से बचाते हुए उसी ने तो मां गुजरी और बाबा जुझार सिंह और फतेह सिंह को अपने गांव अपने घर में ठहराया था.. अतः वह गद्दार होता तो यह काम कतइ ना करता! गद्दारी तो इसने तब की जब उसके दिल में लालच पनपा! उसने मोहरों की चोरी की और पहचान लिया गया। अपनी गलती को छुपाने और झूठ को सच साबित करने के लिए, और अपने अपमान का बदला लेने के लिए, वजीर खां को उनका पता बताया और सब पकड़े गए। तो ऐसे वह वफादार से बेईमान बन गया और गद्दारी कर बैठा। मैंने अपनी रचना में भी या उल्लेख किया है। बाकी आप श्रेष्ठ है।
लुधियाना पंजाब।
85289-96698

धन्य है गोविंद पिता जीनने धर्म पे परिवार वार दिया : गुरु गोबिंद सिंह पर कविताएं

धन्य है गोविंद पिता जीनने धर्म पे परिवार वार दिया,
पर जगने देखो उनसे"धूप-छांव" जैसा व्यवहार किया,
एक गंगू ब्राह्मण ने वफ़ा करके द़गा को अंजाम दिया,
एक टोडरमल, अपनी दौलत लुटा साहिबजादों का संस्कार किया!
आज छोटे साहबजादों का अंतिम संस्कार का दिन है..
दुनिया के सबसे छोटे शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि..
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