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मन को तोष देतीं आशुतोष की ग़ज़लें Man Ko Tosh Deteen Ashutosh Ki Ghazalen

मन को तोष देतीं आशुतोष की ग़ज़लें Man Ko Tosh Deteen Ashutosh Ki Ghazalen

गिरे हैं आंख से मोती
ई० अवधेश कुमार 'आशुतोष' जी अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व और मोहक मुस्कान से हर किसी को अपना बना लेते हैं। इनकी आवाज में एक अलग कशिश है, मिठास है। इनकी विद्वता और साहित्यिक ज्ञान इनके मनमोहक व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देते हैं। मृदुभाषी 'आशुतोष' जी की रचना की भूमिका लिखना मुझ जैसे साधारण कलमकारों के वश की बात नहीं है।
अभियंत्रण का क्षेत्र हो या साहित्य का, जिस क्षेत्र में भी "आशुतोष" जी रमे, पूरे दिल से रमे। साहित्य की जिस विधा में भी हाथ आजमाया, उसमें खूब जमकर लिखा। दोहा हो या कुंडलिया, बरवै हो या मनहरण, गजल हो या भजन हर विधा में इनकी लेखनी जम कर चली। उनकी आने वाली नई पुस्तक में विविध छन्दों की रचनाओं से पाठक का परिचय हो सकेगा। खगड़िया हमेशा से ही साहित्यिक गतिविधियों में अग्रणी रहा है। यहाँ की मिट्टी बहुत ही उर्वरा है, जो विभिन्न प्रकार की फसल ही नहीं उगाती, बल्कि विभिन्न तेवर के साहित्यिकारों की भी जन्मदात्री है। खगड़िया के साहित्यकारों में इनकी रचनाओं की अलग ख़ुशबू है, जो लोगों को सहज आकर्षित करती है। पाँच वर्षों की छोटी अवधि में ही इन्होंने साहित्य के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनायी है।
"आशुतोष" जी की ताजा-ताजा आयी ग़ज़ल की पुस्तक अपनी खूबसूरत अदा और कमनीयता के साथ सबके मन को लुभाने के लिए हमारे समक्ष उपस्थित है। वैसे तो "आशुतोष" जी की लेखनी बहुत-सी विधाओं में चलती है, लेकिन कमसिन ग़ज़ल की तो बात ही कुछ और है, उसमें भी जब वह आकंठ श्रृंगार की चाशनी में डूबी हो तो। पाठक उस ग़ज़ल की मिठास को अपने अंतर्मन में महसूस कर सकेंगे। "आशुतोष" जी की रचनाएँ काव्र्मज्ञ के गले का कण्ठहार बन जाती हैं।
अवधेश कुमार 'आशुतोष'

अवधेश कुमार 'आशुतोष'


अपने खाने के लिए तरुवर तो सभी लगाते हैं, परन्तु जब निःस्वार्थ भाव से दूसरों के फल पाने के लिए तरुवर लगाया जाय, तो उसमें अलग आत्मसंतोष होता है। उम्र अस्सी महज एक संख्या है, जो यह एहसास दिलाती है कि अब जिंदगी के कुछ ही दिन शेष  हैं। इस उम्र में अपने लगाये तरुवर के फल को खाने की वे आशा नहीं कर सकते हैं, फिर भी वे दूसरों को सुख पहुँचाने के लिए लगायेंगे-
"जानता हूँ उम्र मेरी साल अस्सी की हुई,
फल इतर ही खायेगा, क्या तरु जमाना छोड़ दें"
गुलाब के फूल से हमें विपरीत परिस्थितियों में भी सदा मुस्कुराते रहने की, अपना धैर्य नहीं खोने की प्रेरणा लेनी चाहिए। हमेशा संयम से रहते हुए मुसीबतों का प्रतिकार करना चाहिए।
"फूल पाटल से हमेशा सीख लेनी चाहिए
दुष्ट से घिरकर कभी क्या मुस्कुराना छोड़ दें"
हमारे देश की कैसी विडम्बना है कि गाँधी जी जिस रस्सी से अपनी बकरियों को बाँधते थे, वे भी संग्रहालय में सुरक्षित हैं, परन्तु देश की आज़ादी के लिए जो नवयुवक हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूमते हुए झूल गये, उनकी कहीं कोई निशानी नहीं है। इतिहास के लिए गाँधी जी की बकरियाँ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयीं, फाँसी चढ़ने वाले शहीदों की तुलना में। उनकी जान ज्यादा सस्ती थी। इसलिए किसी भी संग्रहालय में वे ऐतिहासिक रस्सियाँ सुरक्षित नहीं रखी गयीं। ये कैसी विडम्बना है?
"भगत जो चूमते झूले वही फंदा नहीं मिलता,
उन्हीं-सा देश में अब एक भी बंदा नहीं मिलता"
आजकल सफ़ाई अभियान भी खूब चर्चा में है। उस पर बड़ी-बड़ी राशियाँ खर्च की जा रही हैं। समाचार पत्रों और मीडिया में खूब सुर्ख़ियों में आ रही है। फिर भी हर ओर गंदगियों का अंबार लगा है। यदि हम थोड़ी सावधानी बरतें, कचड़ों को सही जगह पर फेंकें, ध्यान रखें, तो कचड़ों का अम्बार फैलेगा ही नहीं। और जब कचड़ा फैलेगा ही नहीं, तो उसकी साफ़-सफ़ाई के लिए बड़े-बड़े फंडों की आवश्यकता नहीं होती है।
"सफ़ाई का यहाँ अभियान तो है खूब चर्चा में
अगर हम सख़्त होते तो फ़लक गंदा नहीं मिलता"
समसामयिकता और राजनीति तो कवि की ग़ज़लों का विषय हैं ही। ये कवि के संवेदनशील मन को झकझोरती रही हैं, उद्वेलित करती रही हैं। साथ ही साथ प्रकृति की सुषमा में भी कवि का मन खूब रमता है।
मन को तोष देतीं आशुतोष की ग़ज़लें Man Ko Tosh Deteen Ashutosh Ki Ghazalen

मन को तोष देतीं आशुतोष की ग़ज़लें Man Ko Tosh Deteen Ashutosh Ki Ghazalen

श्रृंगार - वर्णन में कवि की ग़ज़लों की कमनीयता और भी बढ़ जाती है और इनकी ग़ज़लों से श्रृंगार की सरस निर्झरणी बह निकलती है। आज के समय में जीवन की आपाधापी में हर कोई परेशान है। सभी भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं। जिंदगी सबों को नचा रही है। ऐसे में "आशुतोष" जी की श्रृंगारपरक गजलें मन को असीम शीतलता प्रदान करती हैं। तपते हुए रेगिस्तान में बारिश की बूंद के समान राहत देती हैं, मन-मंदिर के कमल खिलाकर उसे राहत प्रदान करती हैं। ये जीवन में संजीवनी की तरह हैं। इनकी ग़ज़ल के अश्आर देखते हैं:-
"लरजते होठ से जब प्यार को मनुहार पर रक्खा
छुपाकर आँख में सबसे उसे अभिसार पर रक्खा।

मुड़ी है धार, जब दिल को, किसी तलवार पर रक्खा
हुआ दो टूक जब दिल को, नजर के वार पर रक्खा।

सहज नित फूल श्रद्धा का चरण करतार पर रक्खा
कभी परब्रह्म पर रक्खा, कभी साकार पर रक्खा।

और
लुभाया दिल सनम तुमने, इशारों ही इशारों में
कि जैसे फूल मन मोहे, तितलियों का बहारों में"
नीचे के मतला में कवि दिलदार को परिभाषित करते हुए कहते हैं:-
"सज़ा दे स्वप्न जो दिल के, उसे दिलदार कहते हैं
करे जो तीर-सा घायल, नज़र का वार कहते हैं"
प्यार एक सुखद एहसास की तरह है, जो हमारी राहों में खुशी के फूल बिछा देता है और सुखद नींद में सुलाता है। दिलदार के साथ मिलकर जो प्यार की दुनिया बसाते हैं, उसे परिवार कहते हैं और उस प्यार की दुनिया की जो अमानत होती है,उसे परिवार कहते हैं।
"सुखद अहसास यह देता, बिछाकर फूल राहों में
सुला दे नींद जो मीठी, उसे हम प्यार कहते हैं
जहाँ दो प्राण मिलते हैं, बसाते एक दुनिया को
अमानत छोड़ जो जाते, उसे परिवार कहते हैं"
मीठा वचन अमृत के समान होता है। वह लोगों में संजीवनी का संचार करता है। जिस प्रकार सूर्य की किरण पाकर कुमुदिनी खिल जाती है, उसी प्रकार मीठे बोल सुनकर हृदय रूपी कमल खिल जाता है। यहाँ अलंकार का बहुत खूबसूरत प्रयोग हुआ है।
"किरण पाकर सुबह में ज्यों कमल मुस्कान लाता है
शहदरूपी वचन भी त्यों हृदय में जान लाता है"
मनुष्य चाहे जितना भी जतन क्यों न कर ले, होता वही है, जो ईश्वर की मर्जी होती है। उनकी मर्जी के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता है। "ईश्वरीय इच्छा बलियचसी" को व्याख्यायित करता मतला और शेर।
"विवश इंसान दिखता है, सदा सैलाब के आगे
न बुझती प्यास भी जन की, करे क्या आब के आगे
जतन तू लाख चाहे कर, चले मर्जी खुदा की ही
मनुज की एक ना चलती, परम अरबाब के आगे"
आज विकास के अंधाधुन्ध दौड़ में पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। वन -के - वन उजाड़े जा रहे हैं। हरियाली कंक्रीट के ढेर में तब्दील हो रही है। बड़ी- बड़ी बहुमंजिली इमारतें, शापिंग मॉल, कमर्शियल बिल्डिंग विकास के नाम पर इतरा रहे हैं। गाँव-देहातों को मुँह चिढ़ा रहे हैं।
सभ्यता और संस्कृति को धता बता कर विकास का जामा पहन मनुष्य आगे बढ़ रहा है, लेकिन किस कीमत पर यह कोई नहीं देखता? इसी ओर ध्यान आकर्षित करती "आशुतोष" जी का यह अश्आर:-
"कैसा विकास है ये, तुम काटते शज़र को
जो वायु में घुला है रोको उसी जहर को
दोनों तरफ लगी हो, तरु की रुचिर कतारें
वैसा हमें बनाना, हर राह, पथ, डगर को"
विकास के नाम पर जंगलों की कटाई की वजह से पर्यावरण आज इतना दूषित हो गया है। लोगों को प्रकृति-प्रदत्त जो अनमोल उपहार हवा, धूप, पानी, धरा मिली है, वे इतने प्रदूषित हो गये हैं कि मनुष्य का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है। तरह-तरह की बीमारियाँ फैल रही हैं। लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए पहाड़ी स्थानों पर जा रहे हैं। विकास के इस अन्धाधुन्ध दौड़ में हम जहरीली हवा साँस ले रहे हैं। उसका उपाय बताते हुए "आशुतोष" जी कहते हैं कि जहरीली हवा से बचने के लिए हमें सड़क के दोनों ओर पेड़ों की सुन्दर कतारें लगानी होंगी। घर के आस-पास छायादार वृक्ष लगाना होगा तभी हमें स्वस्थ पर्यावरण मिल सकेगा।
हम हिंदुस्तान के निवासी हैं और हिंदी हमारी शान और मान है। हमें अपनी भाषा पर गर्व है। हम हमेशा हिंदी साहित्य के भंडार को समृद्ध करेंगे। उसका सर उन्नत रखेंगे। इसी भाव को दर्शाती "आशुतोष" जी का यह मतला:-
"हमारी शान है हिंदी, हमारी जान है हिंदी
हमारे देश की यारो, सदा पहचान है हिंदी"
कवि दो विरोधाभास को लेकर भी ग़ज़ल कहते हैं। गली में कुत्ता भी खुद को शेर समझता है। परन्तु वहीं जो शेर पर जो भारी होता है, उसे सवा शेर कहते हैं। हवा जब मंद-मंद चलती है, तो ऐसा लगता है कि गोद में लेकर पेड़ उसे झूला रहा है। वहीं जब तेज हवा या आँधी चलती है, तो पेड़ की टहनी क्षत-विक्षत हो जाती है। हवा का आक्रोश पेड़ को सहना पड़ता है।
"गली का श्वान भी खुद को हमेशा शेर कहता है
न जो हो शेर पर भारी, सदा वह सेर रहता है
झुलाती है हवा जो बाँह में ले डाल डाली को
वही जब क्रुद्ध होती है, थपेड़ा पेड़ सहता है"
हमारा समाज तरह-तरह के लोगों से भरा हुआ है। कुछ लोग मतलब के यार होते हैं, जो अपने स्वार्थ से दोस्ती करते हैं और मतलब निकलते ही दूर भाग जाते हैं । ऐसे दोस्तों से हमेशा सावधान रहना चाहिए।
"मतलबी कुछ लोग होते इस जहाँ में
काम बनते दूर भागे इस जहाँ में"
हमारे देश में कुछ अशांति के पुजारी भी हैं, जो अपने स्वार्थ की रोटी सेंकने के लिए देश में नफरतों के बीज बोते रहते हैं। वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें, तो हर ओर अशांति व्याप्त है। कुछ जयचंद जैसे लोग होते हैं, उन्हें शान्ति रास नहीं आती है। उनका काम ही होता है सुलगाना।
"शांति उनको रास कब आती धरा पर
नफरतों के बीज बोते इस जहाँ में"
ग़ज़लगो "आशुतोष" जी की ईश्वर में असीम आस्था है। उनका मानना है कि ईश्वर की कृपा से सब कुछ सम्भव है और यदि ईश्वर अपने नयन मूंद लें, तो मनुष्य पामाल हो जाता है।
"कृपा जब ईश की होती, बधिर वाचाल होता है
नयन प्रभु मूँद लेते जब, मनुज पामाल होता है"

डॉ० विभा माधवी

"आशुतोष" जी के इस गजल-संग्रह में एक - से बढ़कर- एक ग़ज़ल एवं गीतिका हैं, जिसके लालित्य का समायोजन इस तरह है कि ग़ज़ल के शेर स्वयं पाठकों के अधरों पर चढ़कर थिरकने लगते हैं और पाठक इसे गुनगुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। यह पाठक के मर्म को सहलाता भी है और उद्वेलित भी करता है। उनके मन में श्रृंगार की मधुर तान भी छेड़ता है और मन में रागिनी भी बजाता है। प्राकृतिक सुषमा "आशुतोष" जी की ग़ज़लों में खुल कर अंगड़ाई लेती है। यह पुस्तक ग़ज़ल की दुनिया में अपना विशेष प्रभाव छोड़ेगी और ग़ज़ल प्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
डॉ० विभा माधवी
प्राचार्य सी० एस०+2
स्कूल माडर, खगड़िया
पो०-कोशी कॉलेज खगड़िया
जिला-खगड़िया
बिहार- 851205
संपर्क सूत्र- 7372874844
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