शृंगार रस की मर्मज्ञा : डॉ० कंचन माला
संस्कृत की अग्रगण्य विदुषियों में एक नाम बिहार के मुंगेर जिला की डॉ० कंचन माला पंडित का भी है, जो 'कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा' के अंतर्गत संस्कृत कॉलेज की प्राचार्य हैं। श्रृंगार-विभूषण महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के आभूषण हैं। संस्कृत साहित्य में उनके जैसे विलक्षण साहित्यकार विरले ही मिलते हैं। "महाकवि कालिदास के काव्यों में श्रृंगार रस" विषय पर डॉ० कंचन माला ने तुलनात्मक रूप से श्रृंगार रस की सरस निर्झरिणी प्रवाहित की है।
कालिदास के महाकाव्य के नाम, भाषा शैली, काव्य शैली प्रमुख रचनाएं कौन सी थी?
'कविषु कवीनां वा कालिदास: श्रेष्ठोस्ति' यह कथन चाहे जिस मनीषी का है, वह कालिदास के समस्त कला चातुर्य का चरम उत्कर्ष है। कालिदास सिर्फ भारत के ही कवि न होकर विश्व के उन गिने-चुने कवियों में से हैं, जिनकी कविता का आस्वादन संसार के अधिकांश व्यक्ति किसी- न-किसी भाषा के माध्यम से निरन्तर कर रहे हैं। वे भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हैं। महाकवि कालिदास की कविता देववाणी का श्रृंगार है। इसमें माधुर्य गुण का मधुर निवेश है, प्रसाद गुण की स्निग्धता है, प्रवहमान पदों की सरस शय्या है, अर्थ-गौरव का सौष्ठव है तथा अलंकारों का मंजुल आकर्षक प्रयोग एवं रसों का स्निग्ध प्रवाह है। श्रेष्ठ कमनीय काव्य के समस्त लक्षण कालिदास की कविता में विद्यमान हैं। इसमें पुण्य सलिला जाह्नवी का पीयूष प्रवाह है।
कालिदास के काव्य में हृदय पक्ष की प्रधानता है। कवि मानव हृदय की परिवर्तनशील वृत्तियों को समझने तथा उन्हें अभिव्यक्त करने में निपुण हैं। कालिदास श्रृंगार और प्रेम के भावुक कवि हैं। उनका रसमय हृदय-सौंदर्य वर्णनों में झाँकता हुआ दिखाई पड़ता है।
इस पुस्तक में कालिदास के प्रिय रस श्रृंगार के दोनों पक्षों– संयोग एवं वियोग की आलोचना के क्रम में उन पर सांगोपांग विचार किया गया है, जो मुख्य रूप से रस पर केंद्रित है।
द्वितीय अध्याय में, काव्यों में श्रृंगार रस के अंतर्गत श्रृंगार का सैद्धान्तिक स्वरूप, रसराज के रूप में उसकी कल्पना तथा उसकी काव्यात्मक विशेषताओं की चर्चा की गई है।
तृतीय अध्याय में महाकवि कालिदास के काव्य का वर्गीकरण, उनके काव्य में रसों का स्वरूप, श्रृंगार के प्रति कालिदास की काव्यात्मक अवधारणा की चर्चा की गई है।
महाकाव्य में:- कुमारसम्भवम्, रघुवंशम्,
गीतिकाव्य में:- ऋतुसंहारम्, मेघदूतम्
नाटकों में:- मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम्, अभिज्ञानशाकुन्तलम् में रस के विभिन्न रूपों की चर्चा की गई है।
चतुर्थ अध्याय में कालिदास के दृश्यकाव्य:- "विक्रमोर्वशीयम् से लेकर अभिज्ञानशाकुन्तलम् पर्यन्त श्रृंगार का चित्रण तथा उसके वस्तुगत वैशिष्ट्य पर चर्चा की गई है।
पंचम अध्याय में कालिदास के श्रव्य काव्य:- "ऋतुसंहारम्" से लेकर "रघुवंशम्" पर्यंत वर्णित श्रृंगार की भूमिका तथा उसकी काव्यात्मक विशेषताओं की मीमांसा की गयी है।
छठे अध्याय में कालिदास के काव्य में वर्णित श्रृंगार पर एक आलोचनात्मक दृष्टि, अन्य कवियों की तुलना में कालिदासीय श्रृंगार की विशेषताएँ, त्रिवर्ग के साथ श्रृंगार का नैतिक पक्ष और उसकी समर्थ व्यंजना पर प्रकाश डाला गया है।
उपसंहार में कालिदास की सभी रचनाओं की सम्यक् विवेचना है। सम्पूर्ण पुस्तक में कालिदास के काव्यों में रसराज के दोनों पक्षों की विवेचना की गई है।
डॉ० कंचन माला के शब्दों में:- "महाकवि कालिदास का साहित्य विश्व-वाङ्गमय में अपना उच्च स्थान रखता है। उनकी रसवंती वाणी निर्जीवों में भी प्राण फूँकने वाली सुधा की माधुरी है। दृश्यकाव्यों में अभिज्ञान शाकुंतलम् विश्व प्रसिद्ध नाटक है।"
महाकवि कालिदास श्रृंगार वर्णन में अत्यधिक सफल हुए हैं। इन्होंने केवल मानव प्रकृति ही नहीं, अपितु संपूर्ण प्रकृति को भी चेतन के रूप में चित्रित कर प्रकृति-श्रृंगार के कई चित्र दिखाये हैं। श्रृंगार के आलंबन विभाव के अंतर्गत नारी के सौंदर्य वर्णन में कालिदास अतुलनीय हैं। कुमारसंभवम् के प्रथम, तृतीय तथा सप्तम सर्ग में पार्वती के रूप का वर्णन तथा मेघदूत की यक्षिणी का वर्णन कालिदास के श्रृंगार रस के "नख-शिख" वर्णन के प्राण हैं। उनके अप्रस्तुत विधान पृष्ठ-पोषित न होकर एक अपूर्व व्यंजना शक्ति लेकर आते हैं। रति-विलाप एवं अज-विलाप महाकवि की कृतियों में अपना विशेष स्थान रखते हैं।
कालिदास संस्कृत साहित्याकाश में "अंतरमणि" के समान देदीप्यमान हैं। भारतीय कवि होते हुए भी वे विश्वकवि हैं। उनके ग्रंथों में भारत के भौगोलिक चित्रों, प्राकृतिक दृश्यों, सामाजिक जीवन के विविध पहलुओं तथा जातीय भावनाओं का ऐसा सूक्ष्म तथा सजीव चित्रण हुआ है कि उन्हें विश्व के किसी भी कोने में पढ़ा जाय, भारत की झाँकी अनायास ही आँखों के सामने आ जाती है। कालिदास के साहित्य में मानवीय भावना है, यद्यपि उनके पात्र देव, दानव, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, अप्सरा आदि हैं। उनके भीतर हृदय का स्पंदन हमारे समान ही हैं।
यह पुस्तक संस्कृत साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगी एवं श्रृंगार रस पर कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिए यह संजीवनी बूटी के समान होगी। इस पुस्तक का पाठकों के बीच स्वागत हो, ऐसी मंगलकामना है।
स्वस्ति।
डॉ० विभा माधवी
नेट एवं जेट उत्तीर्ण
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