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महात्मा गांधी और व्यवसायिक शिक्षा दर्शन Mahatma Gandhi

Gandhi Jayanti गाँधी जयंती 2021 पर विशेष प्रस्तुति : महात्मा गाँधी

महात्मा गांधी और व्यवसायिक शिक्षा दर्शन

Mahatma Gandhi Kaun The?

असलम आजाद शम्सी
मोहन दास करमचंद गांधी (महात्मा गांधी) का जन्म भारत के गुजरात राज्य के पोरबंदर में 2 अक्टूबर 1869 ईस्वी को हुआ था।वह भारत देश की स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी एवं बड़े नेता थे। वे देश के सच्चे हितैषी थे एवं देश तथा देश वासियों के लिए ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था। वे एक समाज सुधारक थे और भारत में एक आदर्श, सुव्यवस्थित, अनुशासित एवं सुखी समाज की चाहत रखते थे। ऐसा समाज जो नैतिक मूल्यों और परोपकार की भावना पर आधारित हो। समाज एवं आमजनों के प्रति उनके मन में गहरी चिंता थी। गांधी का चिंतन क्षेत्र बहुत ही व्यापक था। वह एक साथ राजनेता, दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु, विचारक, शिक्षाविद, वकील स्वतंत्रता सेनानी एवं बहुत बड़े समाज सुधारक थे । समाज के उत्थान एवं विकास के लिए कुछ भी कर गुजने का अटल जज़्बा रखते थे। अपने काम के प्रति समर्पण, ईमानदार और कर्तव्य निष्ठ थे उनका अटूट विश्वास उन्हें कभी रास्ते से भटका ना सकी। यही कारण था कि गांधीजी विश्व पटल पर स्थापित हो गए थे।वह एक सच्चे कर्मयोगी थे जो केवल अपने कार्य से ही समाज को सकारात्मक दिशा पर ला खड़ा करने में सक्षम थे।अपने कर्म के बदौलत वह भारतीय समाज में जड़ें जमा चुकी अनेक प्रकार की बीमारियां एवं कुरीतियां दूर करने की प्रबल इच्छा लिए अपनी लड़ाई लड़े थे।
भारतीय समाज को सशक्त, शिक्षित, आत्मनिर्भर, कुशल, आत्म विश्वासी, कर्म प्रधान एवं सभी प्रकार की भ्रांतियां एवं कुकर्म तथा बुराइयों से मुक्त देखना चाहते थे और वह इसके लिए निरंतर प्रयासरत रहे । उनका मानना था कि समाज का विकास पूर्ण रूप से व्यक्ति के विकास पर निर्भर है। उनका यह भी मानना था कि व्यक्ति को बुद्धि एवं गुण इसलिए प्रदान किया गया है ताकि मनुष्य अपने भीतर की आंतरिक शक्तियों एवं विवेक और बौद्धिक क्षमताओं को पहचान सके। गांधी जी का विचार था कि समाज में न्याय की स्थापना हेतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन किसी व्यक्ति की नैतिकता है जो एक ऐसे समाज के निर्माण में सहायक होता है जो हिंसा से मुक्त हो और इन सब में जो सर्वोपरि है वह है शिक्षा।
उनका मानना था कि किसी भी समाज के उत्थान एवं उन्नति में शिक्षा का योगदान महत्वपूर्ण होता है।
अतः गांधी जी का शिक्षा के क्षेत्र में भी अति महत्वपूर्ण एवं विशेष योगदान रहा है उनके जीवन का मूल मंत्र शोषण से मुक्त समाज की स्थापना थी जिसके लिए सभी का शिक्षित होना आवश्यक था।
शिक्षा से उनका अभिप्राय था बच्चों तथा मनुष्य में निहित शारीरिक,मानसिक, एवं आत्मिक शक्तियों का अधिकतम एवं श्रेष्ठतम विकास। गांधीजी भारत वासियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना चाहते थे और एक सुखी एवं संपन्न राष्ट्र की चाहत रखते थे। वह व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक गुलामी के घोर विरोधी थे तथा स्वतंत्रता, स्वावलंबन एवं आत्मनिर्भरता के पक्षधर थे। वह चाहते थे कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था की नींव रखी जाए जो मनुष्य के शरीर, आत्मा, मन मस्तिष्क तथा हिर्दय को पूर्णतः विकसित कर सके।वह शिक्षा के माध्यम से भारतीय समाज को सुखी एवं संपन्न देखना चाहते थे इसके लिए उन्होंने शिक्षा के सभी पहलुओं पर अपने विचार रखे हैं।
उनका कहना था कि शिक्षा का वृहद अर्थ ही मानव को समाज के अनुकूल बनाना है।अर्थात शिक्षा के द्वारा जब तक मनुष्य सही जीवन व्यतीत करना नहीं सीख लेता तब तक शिक्षा को शिक्षा नहीं कहा जा सकता है। वे शिक्षा को मानव कल्याण का जरिया तथा मनुष्य के पास मौजूद सबसे ताकतवर वस्तु समझते थे। उनका मानना था कि शिक्षा से ही मनुष्य को मनुष्य कहा जाता है। वे शिक्षा के द्वारा समाज में परिवर्तन लाना चाहते थे और आचरण आधारित शिक्षा के पक्षधर थे।इन सब के लिए उन्होंने 1937 में वर्धा शिक्षा योजना का सूत्रपात किया था, जिसमें नैतिक शिक्षा के साथ-साथ हस्त उत्पादन हस्तकला जैसे कार्यों को महत्व दिया गया था क्योंकि शिक्षा के बारे में गांधीजी का विचार व्यवसाय परक था।उन्होंने जब जब भी शिक्षा के विषय पर कोई बात कही तब तब शिक्षा के साथ-साथ शब्द "व्यवसाय" को जरूर दोहराया । उनका मानना था कि भारत जैसे गरीब देश में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धन अर्जित करने की क्षमता भी अर्जित करनी चाहिए।
हस्त कौशल का विचार गांधीजी ने प्राचीन भारतीय शिक्षा से ग्रहण किया था। हस्तशिल्प में क्रिया की प्रधानता होती है जो मनुष्य को कुशल,सशक्त, सक्षम एवं आत्मनिर्भर बनाती है। इसके लिए उन्होंने हस्त कौशल या कर्म आधारित पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जिसमें सभी प्रकार के कार्यों यथा कृषि, सिलाई, मिस्त्री, उद्योग,बुनाई, कताई, रंगाई, संगीत, नाट्य, शिल्प चित्रकला, ललित कला इत्यादि को शिक्षा का अभिन्न अंग माना जिसे आज शैक्षिक कार्यक्रम लागू करने पर बल दिया जा रहा है। विद्यालयों में व्यवसायिक शिक्षा की ओर सरकार कई तरह से प्रयासरत है और शिक्षा को व्यावहारिक बनाने पर निरंतर प्रयास जारी है। अगर हम नजर उठाकर देखें तो गांधी जी का शिक्षा दर्शन एवं वर्धा शिक्षा योजना आज के परिपेक्ष में भी प्रासंगिक है। उन्होंने आज के समय को ध्यान में रखकर ही उद्योगों पर आधारित शिक्षा पर बल दिया था ताकि हम शिक्षित होने के साथ-साथ कुशल तथा स्वावलंबी भी बन सके जैसा कि आज व्यवहारिक एवं व्यवसायिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है।गांधीजी ने शारीरिक श्रम पर भी अत्यधिक बल दिया उनका मानना था कि मनुष्य को अपना कार्य स्वयं करना चाहिए तथा किसी पर निर्भर नहीं होना चाहिए। शारिरिक शर्म पर अत्यधिक बल इसलिए भी मह्वपूर्ण है क्यों कि उनका मानना था कि व्यक्तियों के पास उनका हुनर और कौशल उनके जीवन में पूंजी की तरह काम करती हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा की कई एक विशेषताओं में से मुख्य विशेषता है पाठयक्रम का किर्या प्रधान तथा शर्म प्रधान होना तथा शिक्षा में नैतिक मूल्यों का होना है।उन्होंने वर्धा शिक्षा कमीशन के बारे में कहा था कि मुझे नहीं लगता कि मैं आने वाली पीढ़ियों के लिए इससे अधिक महत्वपूर्ण कोई चीज उनके लिए छोड़ सकता हूं।जिस नई दुनिया कि मैं कल्पना कर रहा हूं संभव है कि उस दुनिया को इस वर्धा शिक्षा योजना के द्वारा साकार कर लिया जाएगा। शिक्षा की इस योजना के द्वारा शारीरिक श्रम, टीमवर्क, (TEAM WORK)व्यवस्था, अनुशासन, शक्ति इत्यादि गुणों का को उभारने का प्रयास बचपन से ही किया जाता है ताकि बालक में किसी भी प्रकार की और अरूची तथा हीनता की भावना जन्म ना ले सके तथा बालक आत्मविश्वास से लबरेज हो सके।
गांधी जी का कहना था कि शिक्षा बेरोजगारी के विरुद्ध एक बीमा की तरफ होना चाहिए इसके लिए वह व्यवसायिक शिक्षा पर अधिक बल देते थे । बापू की शिक्षा योजना ने आधुनिक भारतीय शिक्षा को नई दिशा प्रदान की है । उन्होंने अपने देश की परिस्थितियों के अनुकूल शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित कर पाठ्यक्रम का निर्धारण किया तथा क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम का निर्माण किया। उनका शैक्षिक विचार मात्र दार्शनिक विचारधारा पर आधारित नहीं था अपितु उपयोगिता पर आधारित था। उनका मानना था कि यदि हम शिक्षा के साथ-साथ उद्योगों पर भी ध्यान केंद्रित करें तो हम संसार में क्रांति ला सकते हैं। सारांश में हम यह कह सकते हैं कि महात्मा गांधी ने दूरदरशिता का परिचय देते हुए आज के इस भौतिकवादी युग के परिपेक्ष में अपने विचार प्रस्तुत किए थे । जिस शिक्षा प्रणाली और पद्धति के प्रतिपादन उन्हों ने किया आज वह अति आवश्यक प्रतीत हो रहे हैं। फल स्वरुप जैसे की हम देखते हैं कि समाज में प्रकार की बुराइयां एवं कुरीतियां पैर पसार रही है जिसे केवल नैतिक शिक्षा के माध्यम से ही दूर किया जा सकता है। परंतुआज हमारे पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं है।
इसी प्रकार हम यह भी देखते हैं कि जिस प्रकार गांधीजी व्यवसाय  एवं उद्योग पर आधारित शिक्षा को बढ़ावा देने की वकालत करते थे तथा उनकी अनिवार्यता के पक्षधर थे आज हमें वो भी चरितार्थ होता दिख रहा है। आज हम यह पाते हैं कि यदि गांधीजी के समय से ही व्यवसाय परक शिक्षा पर बल दिया गया होता तो आज भारत बेरोजगारी इस भयानक दौर से कभी ना जूझता। गांधी जी के विचार आज भी हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक है जितने आज से पहले था।
आज हमारी मौजूदा सरकार जिस तरह से देश के युवाओं को आत्मनिर्भर एवं स्वावलंबी बनाने की बात कर रहे हैं उसकी शुरुआतगांधी जी 1937 में ही कर चुके थे।गांधीजी के शब्दों में आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन, कुशलता, निष्ठा, नैतिकता, परोपकार की भावना, सामाजिक समरसता, सौहाद्र,प्रेम, अनुशासन ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ट होना ही शिक्षा की सच्ची कसौटी है। इसके बिना शोषण मुक्त समाज एवं आत्मनिर्भर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। क्रियात्मक शिक्षण एवं कौशल विकास से व्यक्ति ना केवल आत्मनिर्भर बनेगा अपितू यह आत्म सम्मान एवं बेरोजगारी की समस्या का समाधान भी कर सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि गांधीजी के नजदीक शिक्षा मात्र बौद्धिक विकास का माध्यम नहीं था बल्कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास की जरिया है। शिक्षा का उद्देश्य केवल चरित्र निर्माण या शारीरिक एवं मानसिक विकास ही नहीं है बल्कि अंतिम उद्देश्य तो शीर्ष पर स्थित लक्ष्य की प्राप्ति करना होना चाहिए।
* ये शिक्षक के निजी विचार हैं।
लेखक : असलम आज़ाद शम्सी
Hanwara Godda
azadaslam736@gmail.com

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