अमरकांत की कहानी “डिप्टी कलेक्टरी” की समीक्षा
अमरकांत की कहानी डिप्टी कलेक्टरी हिन्दी साहित्य जगत में बहुत प्रसिद्ध हो चुकी है। हिंदी साहित्य के बड़े-बड़े आलोचक इस कहानी के बारे में चर्चा करते रहे हैं। हिंदी साहित्य के जाने-माने आलोचक डा. नामवर सिंह के साथ साथ बाकी बड़े-बड़े आलोचकों ने भी इस कहानी के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि यह कहानी स्वतंत्रता के बाद भी भारत के सामान्य नागरिकों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असमर्थ व्यवस्था का पर्दाफाश करती है। सत्ता और शासन व्यवस्था का संपूर्ण नियंत्रण कुछ विशेष व्यक्तियों तक सीमित रहने के कारण आम जनता में भारी निराशा है और वो इस व्यवस्था से उकताए हुए दिखाई देते हैं। इसी पक्षपात पूर्ण व्यवस्था के कारण शकलदीप बाबू को अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने में बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है! अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टर बनाने के लिए वो कठिन परिश्रम और दिन रात परिश्रम करते हैं लेकिन अंत में उन्हें निराशा हाथ लगती है।
शकलदीप बाबू कोई और नहीं बल्कि वही व्यक्ति हैं जो मुख़्तार साहब कहलाते हैं और कचहरी में काम करते हैं। कहानी की शुरुआत में ही वो अपने बेटे पर पत्नी को यह कहते हुए गुस्से में आगबबूला हो जाते हैं कि वह अभी तक बेरोजगार हैं। दो बार परीक्षा में असफल भी हो चुका है। पत्नी तो चाहती है कि तीसरी बार परीक्षा दिलवाई जाए तो कहीं सफल हो जाए लेकिन शकलदीप बाबू का कहना है कि दो बार फेल हो जाने के बाद तीसरी बार परीक्षा में बैठने की कोई आवश्यकता नहीं है। और वो एक देहाती कहावत भी कहते हैं कि — “अगर सभी कुक्कुर काशी ही सेवेंगे तो हंडिया कौन चाटेगा?”
बेटे को कामयाब देखना कौन नहीं चाहता है! शकलदीप बाबू किसी तरह से इस बात पर राजी हो जाते हैं कि बेटा तीसरी बार परीक्षा में शामिल हो। जल्द ही वो इधर उधर से पैसों की व्यवस्था करते हैं और बेटे की सफलता के लिए पूजा पाठ में तल्लीन हो जाते हैं। जिस दिन बेटा परीक्षा देने जा रहा होता है तो वो स्टेशन पहुंच कर चलती गाड़ी में भगवान का प्रसाद देते हैं। जब कोई पूछता है कि क्या दे रहे हैं तो कहते हैं कि पैसे दिए हैं। परीक्षा का परिणाम घोषित नहीं हुआ है लेकिन शकलदीप बाबू को पूरी उम्मीद रहती है कि उनका बेटा परीक्षा पास करके डिप्टी कलेक्टर बन जाएगा। वह हर दिन भोर में यह सपना देखा करते हैं कि बेटे का चयन डिप्टी कलेक्टर के लिए हो गया है। वह मन ही मन बहुत खुश रहने लगते हैं और इधर उधर शेखी बघारते फिरते हैं। लेकिन जब परीक्षा का परिणाम उल्टा निकलता है तो उनके होश उड़ जाते हैं! उन्हें यह चिंता सताने लगती है कि यह खबर सुनकर बेटे पर क्या असर होगा, वह यह सदमा कैसे बर्दाश्त करेगा। जब वह बेटे को सोता हुआ देखते हैं और सांसें चलती हुई पाते हैं तब जाकर कुछ राहत मिलती है।
डिप्टी कलेक्टर के पद के बारे में ऐसी सामाजिक धारणा बनी हुई है कि लोगों का मानना है कि इस पद पर आसीन हो जाने के बाद आदमी अचानक से अपने बराबर वालों से बहुत ऊपर उठ जाता है। आदमी अचानक से रोब और दबदबा कायम करने की ताकत आ जाती है। दरअसल ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी की छवि भी कुछ ऐसी ही थी। लेकिन अब जबकि भारत मे न तो ब्रिटिश सरकार है और ना ही ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी फिर भी जनता के प्रति सरकार का रवैया वैसा ही है जैसा कि ब्रिटिश शासन में था। अमरकांत की कहानी डिप्टी कलेक्टर में सरकार की इसी मानसिकता का पर्दाफाश किया गया है।
शकलदीप बाबू के बेटे नारायण के डिप्टी कलेक्टर बन जाने की आशंका मात्र पर ही शहर के सारे लोग बधाई देने के लिए दौड़ पड़ते हैं। लेकिन बाद में सबकुछ बेकार साबित होता है और लोगों को निराशा हाथ लगती है।
अमरकांत ने इस कहानी को किसी विशेष पीढ़ी को निशाना बनाकर नहीं लिखा है बल्कि समस्त भारतीय समाज में यही संस्कार पनपने लगा है।
भीष्म साहनी की कहानी “चीफ की दावत” में शामनाथ बाबू भी युवा पीढ़ी के हैं। वे सिर्फ नौकरी में प्रमोशन पाने के लिए अपनी बुढ़िया माँ का और माँ जैसी ही लोक परम्परा का घटिया इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। और यहाँ शकलदीप बाबू अपने बेटे का इस्तेमाल करते हैं। नारायण नामका यह युवा पूरी कहानी में अपनी तरफ से एक शब्द भी नहीं बोलता है। और न ही वह कहीं सामने ही आता है। उसके बारे में हर जानकारी उसके माँ बाप की बातों और हरकतों से मिलती है। बेरोज़गारी में वो बाप की गालियाँ सुनता है, परीक्षा की तैयारी करता है और असफल होकर सो जाता है। इस तरह की घटनाएं इस ओर इशारा करते हैं कि उसका चित्रण पिता की इच्छापूर्ति के साधन के रूप में हुआ है। अपने अतीत के हाथों भविष्य के दुरूपयोग का यह चित्रण जितना उदघाटक है उतना ही त्रासद भी।
अपने बेटे को डिप्टी कलेक्टरी का पद दिलाने का यह सपना शकलदीप बाबू ने कचहरी में मुख्तारी करते हुए देखा था। मुख्तारी के दाव पेंचों का इस्तेमाल घर में करने से वे कभी नहीं चूकते थे। उनके सारे फैसले सफलता असफलता की संभावना से तय होते हैं। सफलता की उम्मीद में उन्होंने ज़मीं आसमान एक कर दिया था। असफल होने के बाद वे फिर कहेंगे---सभी कुक्कुर। नारायण इसे जानता है इसीलिए उसने इस बार जी जान लगा कर परीक्षा दिया था। कहानी में नारायण की चुप्पी और रिजल्ट के बाद पिता की बेचैनी के बावजूद आराम से सोना इस बात का सबूत है कि यह सपना उसका नहीं था। कोई भी आलोचक इसे नोट नहीं कर सके क्योंकि उनकी संवेदना नारायण की अपेक्षा शकलदीप बाबू के निकट अधिक थी।
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