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रहीम और कबीर की परंपरा का सामयिक पाठ करते दोहे

रहीम और कबीर की परंपरा का सामयिक पाठ करते दोहे


भूमिका

 हिन्दी कविता की रसबोधी यात्रा अनेक पड़ावों की साक्षी रही है किन्तु इस रचनात्मक यात्रा में कुछ छंदों का निरंतर बने रहना उनकी सार्वकालिक लोक स्वीकृति का द्योतक है। 'दोहा' एक ऐसा ही मात्रिक छंद है जिसकी संघनित लघुता में गुँथे जीवन को प्रभावित करने वाले कथ्य और गेयता ने विराट महाकाव्यों की गत्यात्मकता को सार्थकता प्रदान की है। चार चरणों वाले इस 13-11 मात्रा के लघु छंद को साधना इतना सहज नहीं है जितना कि लगता है क्योंकि इस छंद की अपनी शब्द सीमा भी है और इसी सीमा में इसके व्याकरणिक निर्वाह की बाध्यता और उसका अनुशासन भी, जो कि कवि के कौशल की खूब जाँच - परख करता है। आजकल इसे साधने की कोशिश में कई चतुर - सुजान गाहे-बगाहे सोशल मीडिया पर लड़खड़ाते नज़र आते हैं। वस्तुतः अनुभूति और अभिव्यक्ति के सम्यक संतुलन को दोहे जैसे लघु आकार के छंद में साध लेना कोई आसान काम नहीं है।

ग़ज़ल और दोहों

 वर्तमान में जब छांदसिक रचनाएं समीक्षा द्वारा एक साजिश के तहत मुख्य धारा की कविता होने की कश म कश में लम्बे समय से विस्थापित होती आ रही हों तब वे ग़ज़ल और दोहों से प्राण शक्ति लेकर पुनः अपने लोक संवादी स्वभाव से व्यापक जन स्वीकृति के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने लगी हैं। हिन्दी ग़ज़ल और दोहों की ये अद्यतन परंपरा जो कविता की स्मरणधर्मी लोक चेतना की संवाहक होकर आज समीक्षा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए छांदसिक रचनाओं को मुख्य धारा की कविता के पद पर पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए सन्नद्ध नज़र आती हैं।

दोहों की एक समृद्ध परंपरा रही है —

 हिन्दी में दोहों की एक समृद्ध परंपरा हमारी तात्कालिक बोली - भाषाओं के गलियारों से लोक का कंठहार बनती हुई जायसी, तुलसी, कबीर, रहीम, बिहारी, वृंद, नागार्जुन रामनिवास मानव, निदा फ़ाज़ली से होती हुई विनय मिश्र तक खड़ी बोली में अपनी प्रभावी संश्लिष्ट विशिष्टता के चलते आज भी जनधर्मी लोकप्रियता के पायदान पर शीर्ष पर विराजमान है। इसी कड़ी में उर्दू के परिवेश में पली- बढ़ी, संस्कारित हुई कवयित्री अतिया नूर का नाम उर्दू ग़ज़ल की रिवायतों में परवीन शाक़िर के मिज़ाज की तरह अपनी अलहदा पहचान के लिए जाना जाता है। ग़ज़ल की बहरों पर बाजाप्ता काम करते-करते छंदों पर इनका अधिकार उस्तादाना मेयार हासिल किए हुए है इसीलिए दोहे जैसे मात्रिक छंद को साधना इनके लिए अधिक श्रमसाध्य नहीं रहा होगा। 

कविता की सर्वाधिक लोकमान्य विधा 'दोहा'

 हिन्दी कविता की सर्वाधिक लोकमान्य विधा 'दोहा' में रचित - 'दोहे बोलते हैं' - दोहा संग्रह के द्वारा मोहतरमा अतिया नूर की उपस्थिति हमारी भारतीय संस्कृति की गंगा - जमुनी परंपरा को पुष्टि प्रदान करने के लिए बहुत आश्वस्ति कारक है। 'दोहे बोलते हैं' - संग्रह में विषयों की विविधता, कथ्यों की कसावट व भाषा का हिन्दुस्तानी रंग-रूप हमारी समन्वयपरक संस्कृति के चित्र जिस आत्मीयता के साथ उकेरे गए हैं उससे लगता है कि अतिया नूर लोक की धड़कनों पर और उसकी संवेदनाओं पर गहरी पकड़ रखती हैं तभी उनके दोहों में लोक में पैंठ बनाने की तासीर जज़्ब है। इस मायने में अतिया नूर ने अपने समय का भाष्य करते हुए दोहों का सृजन कर रहीम और कबीर की परंपरा को और समृद्ध किया है।

 बहुत आवश्यक होता है कि सृजन में ढाली गई लयात्मकता सामयिक हो समीचीन और समय सापेक्ष हो। इस कसौटी पर अतिया नूर का श्रम सार्थक कहा जाएगा। उनके दोहों को पढ़कर बारबार लगता है कि इनमें कवयित्री का अनुभूत बाहर आने के लिए कितना छटपटाया होगा।

dohe bolate Hain


'दोहे बोलते हैं' - संग्रह के दोहों से गुजरते हुए कवयित्री की संवेदनाओं के फलक का विस्तार चकित कर देता है। वे अपने दोहों में - प्रकृति, पर्यावरण, देशभक्ति, प्रेम, जीवन - दर्शन, स्त्री विमर्श, बाल मनोविज्ञान, आस्था, विश्वास, प्रार्थना, त्योहार, गाँव, शहर, आँगन, परिवार, मौसम, किसान, राजनीति, सामाजिक यथार्थ, यादें, तस्वीरें और उम्मीद के साथ - साथ राम - सीता, राधा - कृष्ण, शिव - पार्वती हीर - रांझा, काशी- कश्मीर, होली - दिवाली, बाज़ारवाद, उपदेशात्मकता व गुरू महिमा जैसे अपने समय - समाज और परिवेश के कई शेड्स अपनी वैचारिकी के साथ इतनी सरलता और तरलता से रखती हैं कि उनकी सादगी का आकर्षण बरबस ही पाठक को अपनी ओर खींच लेता है।

अतिया नूर

इन दोहों में अतिया नूर की सर्जनात्मकता जीवन व परिवेश के हर पहलू पर अपने हस्ताक्षर करती दिखाई देती है जो उन्हें औरों से खास बनाती है। भूमिका में दोहों की सोदाहरण विशद व्याख्या पाठक की उत्सुकता और उसकी जिज्ञासा को कुंद करनेवाला सिद्ध न हो जाए इसीलिए इससे बचने का उपक्रम किया है। मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में अतिया नूर के लगभग 300 दोहों के इस संग्रह का स्वागत भी होगा और समुचित मूल्यांकन भी। दोहों से जाहिर हुई अतिया नूर की भारतीय जीवन मूल्यों के प्रति गहन आस्था के प्रति हृदय से बहुत साधुवाद। इस अनूठे संग्रह के लिए बहुत - बहुत बधाई व असीम मंगल कामनाएं।


रामचरण 'राग'
अलवर ( राजस्थान)

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