कर्बला का वाकया: हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की पूरी कहानी
भूमिका
कर्बला का वाकया जानने से पहले यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि कर्बला क्या है? कर्बला का नाम आते ही हमारे दिलों में एक गहरे दर्द और अक़ीदत की लहर सी उठने लगती है। यह न सिर्फ़ इस्लामी इतिहास की एक अहम घटना है बल्कि इंसानियत, सच्चाई, इंसाफ और बलिदान की ऐसी कहानी है जिससे हर धर्म और हर युग को संदेश मिलता रहेगा। कर्बला का वाकया हमें यह सिखाता है कि सच्चाई की राह में चाहे जान भी क्यों न देनी पड़े, लेकिन बुराई के आगे झुकना नहीं चाहिए।

कर्बला का ऐतिहासिक संदर्भ
कर्बला इराक़ का एक शहर है जो बग़दाद से लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में पड़ता है। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक, 10 मुहर्रम 61 हिजरी (680 ईस्वी) को इसी जगह पर वह दुखद घटना घटी, जिसमें हज़रत इमाम हुसैन (रज़ि.), जो पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे थे, अपने परिवार और साथियों सहित शहीद कर दिए गए थे।
वक़्त की पृष्ठभूमि
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के इन्तेक़ाल के बाद इस्लाम का नेतृत्व विभिन्न ख़लीफाओं के द्वारा किया गया। चौथे खलीफा हज़रत अली (रज़ि.), जो पैगंबर के दामाद भी थे, उनके बाद धीरे-धीरे इस्लामी सत्ता में विभाजन होने लगा। इसके बाद बनू उमय्या ख़ानदान के मुआविया खलीफा बने और अपने बेटे यज़ीद को उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।
यज़ीद की सत्ता और विरोध
यज़ीद का का तौर तरीका इस्लामी क़ानून के बिल्कुल ख़िलाफ़ था। वह ख़ुद शराब पीने पीलाने, लोगों पर ज़ुल्म करने और कई तरह के दूसरे गलत कामों में लगा रहता था। जिसकी वजह से बहुत से सहाबा और मुसलमानों ने उसे अपना खलीफा मानने से भी इंकार कर दिया था। उन्हीं इंकार करने वालों में सबसे आगे थे इमाम हुसैन (रज़ि.)। इन्होंने यजीद का कड़ाई से विरोध किया। जिसके कारण यह यजीद इनका जानी दुश्मन बन बैठा।
कूफ़ा वालों की चिट्ठियाँ और इमाम हुसैन की रवानगी
कूफ़ा (वर्तमान इराक) के लोगों ने इमाम हुसैन को चिट्ठियाँ लिखीं और उन्हें वहां बुलाया कि वे आएं और उन्हें यज़ीद के ज़ुल्म और ज़बरदस्ती से निजात दिलाएं। इमाम हुसैन ने पहले अपने चचेरे भाई मुस्लिम बिन अकील को कूफ़ा भेजा, ताकि वहां के सही हालात मालूम हो सके कि क्या सचमुच वहां के लोग हमारे साथ हैं या नहीं। मुस्लिम बिन अकील को शुरू में कुफ़ियो का ज़ोरदार समर्थन दिखा पर बाद में वो सब इनके खिलाफ हो गये और यज़ीद के गवर्नर इब्न ज़ियाद ने उन्हें शहीद करवा दिया।
इस घटना के बावजूद, इमाम हुसैन ने अपने 72 परिजनों और साथियों के साथ कूफ़ा की ओर कूच किया।
कर्बला का मैदान
जब इमाम हुसैन का काफ़िला कर्बला पहुँचा तो देखा कि यजीद की फ़ौज वहां पहले से मौजूद थी। इनके कर्बला के मैदान में पहुंचते ही यज़ीद की फौज ने उनके काफिले को चारों तरफ़ से घेर लिया। उन्हें न तो कूफ़ा जाने दिया गया और न ही वापस मदीना। यहाँ तक कि पानी तक बंद कर दिया गया, जबकि वहाँ छोटे बच्चे और महिलाएँ भी थीं। नदी के किनारे होते हुए भी इन लोगों को तीन दिनों तक बिना पानी के घेर कर रखा गया। इमाम हुसैन और उनके साथियों को पानी से महरूम कर दिया गया।
प्यास और मुसीबतें
कर्बला की तपती रेत पर तीन दिन तक इमाम हुसैन और उनके साथियों को भूखा-प्यासा रखा गया। बच्चे तड़पने लगे, छातियों में दूध सूख गया, ज़हर से भी ज्यादा दर्दनाक यह घड़ी थी।
10 मुहर्रम की सुबह: अंतिम युद्ध
10 मुहर्रम की सुबह इमाम हुसैन ने अपने साथियों से कहा: “आज हमारा आख़िरी दिन है, जो जाना चाहे चला जाए।” लेकिन किसी ने साथ नहीं छोड़ा। एक-एक कर सभी साथियों ने जंग लड़ी और शहीद हो गए। हालांकि इसको जंग कहना कहीं से भी दुरुस्त नहीं होगा क्योंकि एक तरफ सिर्फ 72 लोग थे और दूसरी तरफ़ यजीद की भारी भरकम फ़ौज ऐसी हालत में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शिकस्त पहले ही से तय थी। 10 मोहर्रम जिसे आशूरा का दिन भी कहा जाता है उस दिन शहीद होने वालों में हज़रत अली अकबर (हुसैन के बेटे) हज़रत अब्बास (भाई) 6 माह का मासूम अली असगर और कई छोटे-बड़े रिश्तेदार भी शामिल थे।
इमाम हुसैन की शहादत
आख़िर में, जब इमाम हुसैन अकेले रह गए, उन्होंने घोड़े पर सवार होकर दुश्मन की सेना का बहादुरी से सामना किया। उन्हें तीर, तलवार, भाले से घायल कर दिया गया और आखिरकार शहीद कर दिया गया। उनके सर को तन से जुदा किया गया, और घोड़े को उनकी लाश पर दौड़ाया गया।
शहीदों के सिरों को दमिश्क भेजना
यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों के क़त्ल के बाद उनके सिरों को कंधों पर लादकर दमिश्क ले जाया गया। वहीं उनके परिवार की महिलाओं और बच्चों को क़ैद कर लिया गया। हज़रत ज़ैनब (हुसैन की बहन) ने दरबार में डटकर बात रखी और यज़ीद की ज़ालिम हुकूमत को ललकारा।
कर्बला का संदेश
कर्बला सिर्फ एक युद्ध नहीं था, यह एक सत्य-असत्य के बीच का संघर्ष था। कर्बला हम सब को यह संदेश देता है कि सत्ता के लिए नहीं बल्कि सत्य के लिए जीना चाहिए। इमाम हुसैन ने जान दे दी, पर यजीद जैसे ज़ालिम के आगे झुके नहीं। कर्बला का पैगाम है – “ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना ही असल इबादत है”
इस्लामी इतिहास में कर्बला की अहमियत
कर्बला की घटना ने इस्लाम को दो शाखाओं – सुन्नी और शिया में विभाजित कर दिया। शिया समुदाय विशेष रूप से मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन की शहादत का ग़म मनाते हैं।
मुहर्रम का मातम
कर्बला की याद में शोक सभाएँ होती हैं। नौहा, मातम, ज़ंजीर ज़नी की जाती है। ताज़िये और अलम निकाले जाते हैं। इमाम हुसैन की बहादुरी और सच्चाई को याद किया जाता है।
आज के दौर में कर्बला की प्रासंगिकता
आज जब समाज में अन्याय, भ्रष्टाचार और स्वार्थ का बोलबाला है, तब कर्बला हमें रास्ता दिखाता है: सच के लिए खड़े हो जाओ। ज़ालिम के खिलाफ आवाज़ बुलंद करो। न्याय के लिए संघर्ष करो और धर्म और इंसानियत का साथ दो, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े।
निष्कर्ष
कर्बला की मिट्टी आज भी पवित्र मानी जाती है। वहाँ की ज़मीन पर जो बलिदान हुआ, वह केवल एक धर्म का नहीं, पूरी इंसानियत का हितैषी है। इमाम हुसैन ने केवल एक व्यक्ति या कौम के लिए नहीं, बल्कि सत्य, इंसाफ और मानवता के लिए अपने परिवार सहित बलिदान दिया।
कर्बला हमें यह सिखाता है कि –
“सर कट सकता है, लेकिन झुकाया नहीं जा सकता।”
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