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बज्जिका भाषा का अमोल कथा संग्रह है – “अमोला”

बज्जिका भाषा का अमोल कथा संग्रह है – “अमोला”


बज्जिका भाषा का अमोल कथा संग्रह है – “अमोला”


समीक्षक-- प्रमोद नारायण मिश्र, वरीय पत्रकार

हिंदी और लोक -भाषा बज्जिका के समर्थ कवि / कथाकार उदय नारायण सिंह के सद्य प्रकाशित बज्जिका कथा संग्रह- " अमोला " इन दिनों खासी चर्चा में है। इस पुस्तक का नामकरण -अमोला" कहानी पर किया गया है। इस कथा संग्रह में 11 कहानियां संग्रहीत हैं। सभी कहानियां उद्देश्य पूर्ण और आकर्षक हैं। पाठकों को ऊबने नहीं देती हैं, बांधे रखती हैं। संवाद का जोरदार चयन और भाषा की सरसता पाठकों पर अप्रतिम प्रभाव छोड़ती हैं। सभी कहानियां नपी -तुली लंबाई की हैं। बज्जिका लोक -भाषा में लिखी गई इन कहानियों को पढ़ने से ऐसा महसूस होता है कि जैसे नानी -दादी के निकट बैठकर उन्हीं से कहानी सुन रहा होऊं। उपमा, उपमेय और अलंकार का भी कहानी में जमकर प्रयोग किया गया है, मसलन -" सुरसा लेखा मुंह अउर कुंभकरन लेखा पेट। "

lekhak ka Parichay Bajjika Bhasha Ka Anmol Katha Sangrah Hai Amola



पहली कहानी -" अमोला " में पेड़- पौधे के महत्व को बखूबी दर्शाया गया है। स्वप्न को माध्यम बनाकर कथाकार ने सिद्ध कर दिया है कि पेड़ पौधे भी मनुष्य की तरह चेतन हैं। उसे भी सुख-दुख की अनुभूति होती है। पेड़ लगाना पुण्य का काम है और काटना महापाप है। तभी तो स्वप्न में मां से यह कहलवाना -" कि एक पेड़ सौ बेटा के बराबर होइअ जेना तोरा पालली ओहिना हम अई पेड़ों के पालली। " ये बातें कहानी को उत्कर्ष पर ले जाती हैं और मानव तथा पेड़ में अभिन्नता प्रकट करती हैं।

दूसरी कहानी --" कथनी आ करनी" में कथाकार ने यह दर्शाया है कि बड़े लोग जो कहते हैं वह करते नहीं। गांव में कमिश्नर साहब प्रवासी पक्षियों का संरक्षण कैसे हो इस विषय पर लोगों को सचेत करने आते हैं। गांव वाले बहुत खुश होते हैं। प्रवासी पक्षियों के संरक्षण हेतु कमिश्नर साहब जोरदार भाषण देते हैं, किंतु भरपेट भोजन प्रवासी पक्षियों के मांस का स्वाद लेकर करते हैं। मरनी का बेटा मिरचइआ कहता है -" गे माए ई मास तऽ भरत चचा ओही प्रवासी पक्षी के बनलथीन हऽ, तऽ मरनी कहती है--" बड़का लोग एनाहिते बोलइत हई। चुप रह! नऽ तऽ जेल धऽदेथुन। " ये बातें कथनी और करनी के भेद को स्पष्ट कर देती हैं।

तीसरी कहानी --" कनिया दाई के खिस्सा" में यह दर्शाया गया है कि अधिक लालच मृत्यु का कारण बनती है। जिस तरह फोकचा मछरी तालाब के सभी जीवों को खा जाती है पर उसका पेट नहीं भरता है। वह पानी के ऊपर आकर बैलगाड़ी, गाड़ीवान, टमटम और टमटम चलाने वाले को खा जाती है फिर भी उसका पेट खाली ही रहता है। फिलमान के साथ एक हाथी को देख कर उसे भी खाने हित उसके मुंह में पानी आ जाता है और उसे खाने के लिए जब वह अपना मुंह खोलती है, तब फिलमान के इशारे से हाथी उस फोकचा के पेट के ऊपर अपना मोटा पैर रख देता है जिस कारण उसके प्राण -पखेरू उड़ जाते हैं और समाज को उस फोकचा रूपी दानव से मुक्ति मिलती है। यह कहानी यही कहती है कि अधिक लोभ करने वाले की ऐसी ही दुर्गति होती है।

चौथी कहानी-" अक्किल के बलिहारी" में कथाकार ने दर्शाया है कि शब्द की भी अपनी गरिमा होती है। भाषा भी एक सीमा के अंदर होनी चाहिए नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अपनी शालीनता को दर्शाते हुए लुट्टा सिंह अपने अभिन्न मित्र सोंटा सिंह से अपने आलीशान भवन को -" मरई " कह कर संबोधित करते हैं। खाने वक्त छप्पनों व्यंजन को साग -सत्तु कह कर संबोधित करते हैं। इस संबोधन को उनके मित्र सोंटा सिंह ने समझा कि जो जितना बड़ा आदमी होता है वह अपनी चीज को उतना ही कमतर कर बोलता है। फलत: जब लुट्टा सिंह सोंटा सिंह के यहां भोजन पर आमंत्रित होते हैं तो वे अपने आलीशान महल को- " झरफिरवा- झोपड़ी " कह संबोधित करते हैं। और मित्र हित जो व्यंजन परोसे जाते हैं, उसे घास -फूस कह कर संबोधित करते हैैं। इस तरह बौद्धिक अयोग्यता के कारण शब्द का अर्थ, अनर्थ में बदल जाता है और सोंटा सिंह को उपहास का कारण बनना पड़ता है। यह कहानी शुरू से अंत तक हंसाती रहती है, गुदगुदाती रहती है। पांचवी कहानी-" शोभना खवास" में कथाकार ने बंधुआ मजदूरी पर प्रहार किया है और परिवार में पत्नी की महत्ता को दर्शाया है। शोभना की पत्नी कहती-" एकरा तऽ हम ओरे दिन सब्भे बात ओरिया के कहले रहिअई। हमर बात काट के ई खवासी करे गेल तऽ फल भोगो। एकरा भाग में इहे लिखल हई तऽ हम की करवई। " छठी कहानी-" सरपंची " कहानी है, जो कहानी में कहानी का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह कहानी बिल्कुल मनोवैज्ञानिक है। इस कहानी के द्वारा कथाकार ने यह बताने की कोशिश की है कि मानव मन को कैसे पढ़ा जाए इस दिशा में यह कहानी मील का पत्थर है। कहानी है कि एक बार तीर्थाटन हेतु चार मित्र एक साथ निकलते हैं। रास्ते में रात्रि विश्राम हेतु एक शिव मंदिर में रुकते हैं, जहां उन चारों मित्रों के रुपए गायब हो जाते हैं। सभी दोस्त हैं, किसी को किसी पर शक नहीं है, पर चोरी तो हुई है? आखिर रुपए गए तो कहां? वे सभी गांव के सरपंच के पास जाते हैं और पूरी कथा सुनाते हैं। सरपंच साहब का भी दिमाग चकरा जाता है। तब उनकी पत्नी कहती है-" आप चिंता नहीं करें। मैं चोरी गई राशि का पता लगा लूंगी। " वह उन चारों मित्रों को एक कहानी बारी- बारी से सुनाती है और सभी से अलग- अलग पूछती हैं इसमें दोषी कौन है? तीन मित्रों ने कहा -" कि इसमें दोषी कोई नहीं है। एक ने कहा इस कहानी में तो सब दोषी ही है। निर्दोष कोई नहीं है। " सरपंच की पत्नी ने समझा मुजरिम यही है। पैसा इसी ने लिया है। इस तरह दोस्ती में दरार आए बिना चोरी हुईं राशि भी मिल गई और दोस्ती भी नहीं टूटी। पूरी कहानी जानने हेतु तो " अमोला कहानी संग्रह " से गुजरना होगा।

इस संग्रह की सातवीं कहानी- " निर्मला " है जिसमें कथाकार ने यह दर्शाया है कि सच्ची सुंदरता तन की नहीं मन की होती है। प्रसून अपनी पत्नी नीलू को छोड़कर कलेक्टर की बेटी रूपा के रूप लावण्य और शोख आदा में खो जाता है और वह अपनी पहली पत्नी को छोड़कर प्रभा से शादी कर लेता है। । किंतु प्रभा की हैसियत के सामने प्रसून की हैसियत एक कुत्ते से अधिक नहीं है। वह हर समय प्रसून को अपमानित करती है। एक दिन प्रसून ने कहा प्रभा इस घर में एक जूनियर प्रसून आना चाहिए तो प्रभा ने कहा मैं तुम्हारे पिल्ले की मां नहीं बनना चाहती। प्रभा प्रसून को तलाक दे देती है। उसका जीवन बिखरने लगता है, टूटने लगता है। ऐसी परिस्थिति में उसका जिगरी दोस्त अमर उसे नीलू के पास भेजता है, जो उसके जीवन को खुशियों से भर देती है। यह कहानी कहती है कि प्रेम सूरत से नहीं सीरत से करना चाहिए।

इस कथा संग्रह की आठवीं कहानी -" तनिका हमरो सुनू " में कथाकार ने बज्जिका पात्र के माध्यम से बज्जिका भाषा की अथ से लेकर वर्तमान तक कथा कह दी है। इस कहानी को पढ़कर पाठक बज्जिका भाषा का आदि और वर्तमान आसानी से जान सकते हैं, समझ सकते हैं। इस कहानी में एकल पात्र बज्जिका है जो अपनी कहानी स्वयं कहती है। यह कहानी रिपोर्तजा- शैली में लिखी गई है, जो निश्चित रूप से एक प्रयोगात्मक कहानी कही जा सकती है। इस कहानी में गर और पत्रों को भी स्थान दिया जाता तो यह कहानी और आकर्षक बन सकती थी।

नैवीं कहानी -" गरव गमावे आबरू" देवासुर संग्राम से प्रभावित है। इस कहानी में कथाकार ने यह दर्शाया है कि अहंकार बुरी चीज है। अहंकार के कारण व्यक्ति को अपनी मान- प्रतिष्ठा गंवानी पड़ती है। देवासुर संग्राम के बाद देवताओं में अभिमान हो गया। सभी देवता जीत का ताज अपने सिर पहनना चाहते थे। तब देवताओं का अभिमान तोड़ने के लिए परम ब्रह्म परमेश्वर स्वयं एक भीमकाय यक्ष के रूप में प्रकट होते हैं और देवताओं के अहंकार को तोड़ते हैं।

दसवीं कहानी में-" करम के महिमा " के माध्यम से कथाकार ने यह संदेश दिया है कि प्रतिभा के समक्ष जाति गौण हो जाती है। महर्षि मांडुकि अपनी परिचारिका इतरा से परिणय -पाश में बंध जाते हैं, जिससे उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। एतरेय को विदर्भ राज्य में इसलिए अपमानित होना पड़ता है कि वह दासी पुत्र है। जब एतरेय की मां इतरा ने महर्षि मांडुकि को सारी बातें बताई तो उन्होंने एतरेय की प्रतिभा को इतना विकसित किया कि वह" ऋग्वेदीय-- एतरेय

ब्राह्मण ग्रंथ का प्रणेता " बन गया और अपनी प्रतिभा के बल पर विदर्भ राज्य के हाथों पुरस्कृत हुआ।

इस कहानी संग्रह की अंतिम और ग्यारहवीं कहानी -" चालू हमारा बागमती में डूबा दूं" है। यह कहानी जिन कवियों /साहित्यकारों को छपास की भूख है, उन पर करारा प्रहार है। यह कहानी कहती है कि व्यक्ति को अपनी प्रतिभा की पहचान हर समय रहनी चाहिए वरना जो गति घुमक्कड़ कवि की हुई उस गति हेतु उसे भी मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। घुमक्कड़ कवि ने संपादक शंकर शांडिल्य को अपनी कंधा पर चढ़ा कर इसीलिए नदी पार कराया कि उसकी कविता " सर्वोत्तम" में छप जाएगीऔर वह कविवर के नाम से इलाका में मशहूर हो जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं। घुमक्कड़ कवि की बेजान कविता जब सर्वोत्तम कार्यालय को मिली तो लाख कोशिश के बावजूद उनकी कविता सर्वोत्तम में नहीं छप पाई। इस पर घुमक्कड़ कवि आग -बबूला होकर सर्वोत्तम कार्यालय पहुंच गए और संपादक शंकर शांडिल्य से कहा -" गर नदी पार करते वक्त मेरा थोड़ा भी पैर फिसलता तब तो आप वहीं डूब के मर जाते, हमारा क्या हम तो तैर कर निकल जाते? मैंने इतने परिश्रम से आपको कंधे पर चढ़ाकर नदी पार कराया पर आपने मेरी एक छोटी कविता नहीं छापी" ? तब शंकर शांडिल्य ने कहा -" घुमक्कड़ जी! चलिए मैं चलता हूं मुझे आप वहीं पर बागमती में डूबा दीजिएगा, पर मैं आपकी कविता छाप कर अपनी पत्रिका सर्वोत्तम को नहीं डूबने दूंगा। " इतना सुनते ही घुमक्कड़ कवि के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई।

इस बज्जिका खिस्सा संग्रह- " अमोला " से गुजरते हुए मैंने पाया कि शास्त्रकारों ने सुघड़ कहानी लेखन हेतु जिन छह आवश्यक तत्वों की चर्चा की है यथा- कथानक, चरित्र चित्रण, संवाद, देश -काल, भाषा -शैली और उद्देश्य। ये सभी तत्व -" अमोला कहानी संग्रह " में कुंडली मारकर बैठे नजर आते हैं। इस कसौटी पर भी उदय नारायण सिंह जी का यह कहानी संग्रह 24 करंट सोने की तरह शुद्ध है। सभी कहानियों में ये सारे तत्व माला में मोती के दाने की तरह पिरोए गए हैं। हां सिर्फ एक कहानी -" तनिका हमरो सुनूं " जो रिपोर्ताज शैली में लिखी गई प्रयोगात्मक कहानी है। गर यह कहानी भी कथानक के संवाद के साथ लिखी जाती तो और प्रभावी हो सकती थी। । सारांशत: मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस बज्जिका भाषा के -" अमोला कहानी संग्रह" से गुजरते हुए जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद और रामवृक्ष बेनीपुरी की याद सहसा मेरे मानस पटल पर भित्ति-चित्र की तरह उभर आती है। इस कहानी संग्रह में प्रसाद का शब्द लालित्य, मुंशी प्रेमचंद की चेतना और बेनीपुरी की कलम का कमाल एक साथ देखने को मिल जाता है, जो बरबस मन -प्राण को आनंदित करते हैं। ऐसी जीवन्त कथा लेखन हेतु कथाकार निसंदेह बधाई के पात्र हैं। मुझे लगता है कि बज्जिका भाषा में लिखा गया यह किस्सा संग्रह-" अमोला" बज्जिका एवं हिंदी साहित्य के लिए धरोहर है। उदय जी की यह कृति अमूल्य और अमोल हैं। विश्वास है कि ऐसी ही कहानियों से उदय जी बज्जिका भाषा के पिटक को भरते रहेंगे। इनकी लेखनी में पर लगे। मुझे इनके और कहानी संग्रह की प्रतीक्षा है। समीक्षक-
प्रमोद नारायण मिश्र
वरीय पत्रकार मुजफ्फरपुर

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