काली पूजा का पर्चलन पुरातन नहीं वरन् ६०० साल से है
।।ऐं नमः क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा।।
शक्ति और शिव का मिलन प्रथम ब्रह्माण्डीय घटनाचक्र का शुभारंभ है, इनको पृथक करने का अर्थ हुआ सृष्टि विलय; संचर प्रतिसंचर धारा और ब्रह्म वा सृष्टि चक्र का अद्भुत परिलक्षित उद्भव है। प्रकृति शक्ति है और काली उसका कठोर स्वरूप हैं। दुर्गा का काली स्वरूप पौराणिक है परंतु इनका मन अतिकोमल और स्थान शीर्ष सहस्रार चक्र पर अवस्थित है। रौद्ध रूप में ये महाविनाश वा सर्वसंहारकारी भी हो सकती हैं, प्रलय या महाविनाश का कारण बन सकती हैं। कल्पना के भाध्यम से इनका रौद्ध स्वरूप आज काली भक्तों द्वारा परम अराध्या और प्रतिमा में भयावह लगता है।
ऐतिहासिक कृष्णानंद अगमबागीश ने पहली बार काली पूजन की प्रथा चलाई
यह काली पूजा का पर्चलन पुरातन नहीं वरन् ६०० साल से है। यह १६वीं सदी के पहले नहीं थी, ऐसा ऐतिहासिक शोधकर्ताओं का साक्ष्य आधारित कथन है।
ऐतिहासिक कृष्णानंद अगमबागीश ने पहली बार काली पूजन की प्रथा चलाई। १७वीं सदी में कालिका मंगलकाव्य ग्रंथ में यह वार्षिक अनुष्ठान कहा गया। बंगाल में १८वीं सदी में कृष्णनगर, नदिया के कृष्णचंद्र राजा ने इसे धूम धाम से राज्य स्तर पर मनाया। यह १९वीं सदी के प्रारंभ से लोकप्रिय हो देशव्यापि हो धार्मिक परंपरा तब बन गई जब रामकृष्ण महायोगी बंगाल में तपोबल से विख्यात हो नमन्य हुए और उनका शिष्य स्वामि विवेकानंद दिग दिगंत में जय ध्वजा फहराये। समृद्ध बंगाली इसे महोत्सव स्वरुप अंगिभूत किये। दुर्गा पूजा के साथ काली पूजा तमलुक और बरसाक का सबसे बड़ा पर्व बन गया। ऐसे पौराणिक माँ काली, शिव भार्या काली का वर्णन और मंत्रादि पुरातन माने जाते हैं। यह कार्तिक मास की दिपान्निता अमावस्या, सप्तमी तिथि के दिन विषेशत: बंगाल और बाद में मिथिला, ओडिसा, असम से टिटवाला, महाराष्ट्र तक पहुँच सारे हिंदुओं में वैश्विक हो गया। काली पूजा दिपवाली की लक्ष्मी पूजा के साथ धुल मिल गई। बंगाल, ओडिशा, असम और मिथिला वाले काली पूजन और अन्य प्रदेश मय सिमांचल के नेपाल प्रभित्त पडोसी देश लक्ष्मी पूजन और दीपवाली मनाते हैं।
प्रस्तुति: डॉ. कवि कुमार निर्मल
Read More और पढ़ें:
0 टिप्पणियाँ