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बुढ़ापे पर शायरी Budhapa Shayari बुजुर्ग पर शायरी Buzurg Shayari

बड़े बुजुर्गों का दर्द शायरी Poetry On Old Age In Hindi बुढ़ापे का दर्द कविता

घर की टूटी-फूटी दीवार
आँखों पे चश्मा, झुकी हुईं कमर,
टटोलता हाथों से कभी इधर, कभी उधर।
लगता है शायद बेकार हो गया हूँ।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।

बुढ़ापे का दर्द कविता

हाथ में लाठी, उल्टी-सीधी चलती साँस,
एक ग्लास पानी ख़ातिर, रखता घन्टों आस।
लगता है झुकी हुई मीनार हो गया हूँ।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।

बुजुर्गों पर शायरी

न सुन पाता हूँ, न बोल पाता हूँ,
चलने में अक्सर लडख़ड़ाता हूँ।
हर किसी के दिल से दर-किनार हो गया हूँ।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।

न कोई क़ीमत मेरी, न दर्जा मेरा,
उड़ गया परिंदा, छोड़ कर बसेरा,
बेजान चीज़ों को अपनाकर मालदार हो गया हूँ।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।

मोहताज भरी ज़िन्दगी जीने लगा हूँ,
मिले हैं जो ज़ख़्म उन्हें सीने लगा हूँ।
अपनी ही बदहाली का शिकार हो गया हूँ।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।

कहता है, वृद्धआश्रम छोड़ आएगा,
फ़ुर्सत नहीं है, क्या ख़िदमत कर पायेगा।
नई पीढ़ी के आगे लाचार हो गयाहूँ।।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।
घर की टूटी-फूटी दीवार हो गया हूँ।
स्वरचित
नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
मुंबई
Nilofar Farooqui Tauseef
FB, ig-writernilofar

बुढ़ापे पर शायरी Budhapa Shayari बुजुर्ग पर शायरी Buzurg Shayari

बुढ़ापे पर शायरी - दाने-दाने को तरसता जीवन : Buzurg Shayari Budhapa Shayari

माटी में मिलाते हैं लोग
दाने-दाने को तरसता जीवन,
मृत्यु भोज कराते हैं लोग।
अकड़ कर मर गया ठिठुरन से,
मुर्दे पे चादर ओढ़ाते हैं लोग।
काँटें बिछाकर जीवन में,
फूलों से अर्थी सजाते हैं लोग।
दो पल के सहारे की फुर्सत नहीं,
काँधा बदल-बदल कर पहुँचाते हैं लोग।
पत्थर सा दिल लेकर जीवन भर,
माटी के पुतले को माटी में मिलाते हैं लोग।
माटी के पुतले को माटी में मिलाते हैं लोग।
नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
मुंबई
Nilofar Farooqui Tauseef
Fb, IG-writernilofar


बुढ़ापे की बेबसी और लाचारी पर कविता
मरकर भी खुली रही आँखें

पत्नी के मरने के बाद, पिता ने उठाया भार।
ममता का रूप बनकर, लुटाया बेटा पे प्यार।
पढ़-लिख हुआ बड़ा, चला अब शहर की ओर,
भूल गया वो गलियाँ, छोड़ गया गाँव की डोर।

दिन बदला महीना में, गुज़र गया साल दो साल,
ज़रूरत पड़ी जब पैसे की, आया पिता का ख़्याल,
गले मिलकर, पिता को बोला, शहर में घर बनाना है,
खेत बेच दो पिता जी, अब यहाँ नहीं ठिकाना है।

पिता ने सोंचा अब हाल मेरा बदल जायेगा,
खेत बेच, पैसा दिया, पूछा शहर कब बुलायेगा।
वादा करके लौट गया, काम तो बन गया था।
अगले साल आया फिर, जब पैसा झड़ गया था।

दादा बन गए हैं पिता जी, अब जल्दी शहर बुलाऊँगा,
बहु और पोता से तुम्हारी मुलाक़ात करवाऊँगा।
मूल से ज़्यादा सूद प्यारा, पोता सुन हुआ निढाल,
घर बेच कर दिया पैसा, कहा रखना पोते का ख़्याल।

उम्र धीरे-धीरे बढ़ती रही, अकेला बुढ़ापा काटता रहा,
कभी चीख़ता रहा तन्हाई में, तो कभी चिल्लाता रहा।
ज़रूरत और तमन्ना ने फिर किया, बेटा को मजबूर,
हाथ जोड़ कर आते ही बोला, पिता न करो मुझे दूर।

आपके पोता को बड़े विद्यालय में पढ़ाना है,
पैसे की ज़रूरत है, मेरा कोई नहीं ठिकाना है।
बेचारा पिता, झूठी झाँसा में फिर आ गया,
लाला से क़र्ज़ लेकर, बेटा को दिला गया।

समय बीता और फिर लाला माँगने लगा रक़म,
ज़मीन, घर तो बिक चुका, टूटने लगा था भ्रम।
अस्पताल जाकर, अपना किडनी बेच आया।
जीवन बेचकर पिता, क़र्ज़, बेटा का चुका आया।

दिन-ब-दिन-दिन कमज़ोरी ने उसे झकझोर दिया,
हालात और वादों ने, उसे पूरी तरह से तोड़ दिया,
स्वर्गवास हुआ पिता का, अंत तक किया इंतज़ार,
मरकर भी खुली रही आँखें, तकती रही दीवार।
मरकर भी खुली रही आँखें, तकती रही दीवार।
नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
मुंबई
Nilofar Farooqui Tauseef
Fb, ig-writernilofar

autumn- पतझड़ आने वाला है

पतझड़ आने वाला है : ढलती उम्र पर कविता | बुढ़ापे का दर्द कविता | बुढ़ापा शायरी इन हिंदी

पतझड़ आने वाला है..
जब, उजालों की रोशनी में,
सब धुंधला सा दिखने लगे,
जब, सोच की कलम..दिल पे,
बीती बातों को लिखने लगे..
जब...उमरों का काफिला,
यादों में सिमटने लगे....
जब.. हड्डियों का ये जिस्म,
चरमरा कर... चटकने लगे,
बुलंद.. हौसलों का जज्बा,
जब लगे..डगमगाने वाला है,
तब समझो, वक्त आ गया है,
और...पतझड़ आने वाला है।

पतझड़ में टूटी पत्तियां

जब, बाप के पैरों के जूते..
औलाद के.. पैरों में आने लगे,
जीवन की सारी उलझनें..
खुद...औलाद सुलझाने लगे,
जब, अपने सुनाएं फैसले को,
सब....अनसुना करने लगे,
जब, परिवार की भरी रौनक में,
सब, सूना-सूना सा लगने लगे,
जब, आवाज दो किसी को,
और, कोई अपने पास ना आए,
तकलीफ में देख कर भी...
जब कोई, दूर से निकल जाए,
ऐ बंदे,..इसे नजरअंदाज ना कर,
तेरा...वर्चस्व, डूबने वाला है,
तब, कमर कस लेना अपनी,
क्योंकि, पतझड़ आने वाला है।

Pathjhad Ki Patiya

जब, एक सुखद दृष्टि पाने को,
अपने... नयन बरसने लगे..
दो मीठे बोल सुनने को...
जब, कान तरसने लगे..,
जब, अपनी मौजूदगी परिवार में,
अजनबीयों सी.. लगने लगे,
"आपने आज तक किया क्या है"?
जब औलाद, तंज कसने लगे,
कुछ कहने को मुंह खोलो,
पर, आवाज गले में फंसने लगे,
डाली से अटके.. सूखे पत्ते सा,
ऐ बंदे,..तू अब झड़ने वाला है,
अब, दुनिया को तेरी गरज नहीं,
क्योंकि...पतझड़ आने वाला है।

Patjhad Mein Tooti Patiya

🍁🍁🍁🍁🍁
हरजीत सिंह 'मेहरा'

अब मेरी उम्र हो गई है : ढलती उम्र के अहसास पर शायरी, बुढ़ापे पर कविता

अब मेरी उम्र हो गई है..
उसने धीरे से हिलाया, और मेरी आंख खुल गई,
नजर सामने खड़ी मुस्का रही, पत्नी पे पड़ गई,
हौले से बोली"आपकी चाय ठंडी हो गई.!"
"ओह..अच्छा" कह चेतना जैसे सचेत हो गई!
एक हाथमें ऐनक, दूसरे में अखबार लटक रहा था,
अभी कुछ देर पहले ही तो अखबार पढ़ रहा था!
आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे चाय की तलब जताई,
इसलिए पत्नी से, चाय लाने की इच्छा थी बताई।
वह बेचारी मेज़ पर, चाय रख के चली गई..
पर, ना जाने कब मुझपे नींद की खुमारी चढ़ गई!

पहलू बदला ही था कि, वो चाय गर्म कर ले आई,
पास पड़ी कुर्सी पर बैठ, मेरे चेहरे पे नजरें गड़ाई।
सकपका गया मैं, सोचा..जाने क्या बात हो गई है?
मंद-मंद मुस्काके बोली"अब तुम्हारी उम्र हो गई है"
नजर उठा के, गहरी आंखों से देखा..मुस्कुराया,
नश्तरकी तरह चुभी थी बात.. गहरा असर पहुंचाया।
हमने चाय पी, उसने कप समेटे, हौले से कंधा दबाया,
'अब बुढ़ापे की चौखट पे हो' कुछ ऐसा जताया.!
बिना बताए ही मानो, वह कई बातें कह गई..
मैंने भी सोचा..क्या वाकई में अब मेरी उम्र हो गई?

कुर्सी से उठा..दीवार पर टंगे आईने में देखा,
चेहरे को इधर-उधर घुमा, बड़ी बारीकी से परखा,
आज..आंखों के कोरों पर, झुर्रियों का बसेरा पाया,
बालों की काली बस्ती में, सफेद रंग..गहरा पाया।
यह देख रगों में, बुढ़ापे का अनुभव सा दौड़ा था..
आज..उसकी मासूम हरकतों ने, मुझे झंझोड़ा था।
यह वही थी जिसने कभी मुझे "हीरो"बताया था..
आज उसीने बढ़ती उम्र का, एहसास जताया था!

दिल नहीं मानता पर, बात सच हो गई है...
हां...वाकई.! अब मेरी उम्र हो गई है...!!!
हरजीत सिंह मेहरा
लुधियाना पंजाब

लौट आया मेरा बचपन अब इस बुढ़ापे में

लौट आया मेरा बचपन
अब इस बुढ़ापे में
खेल रहा हूँ बच्चों संग
अब इस बुढ़ापे में
वही खिलखिलाना
वही इतराना इठलाना
मिट्टी में लोटना
फिर डाँट सुनना
अच्छा लगता हैं
अब इस बुढ़ापे में
मेरे दोस्त मेरे बच्चें
लड़ना झगड़ना
फिर मुँह फुलाना
फिर मान जाना
अच्छा लगता है
अब इस बुढ़ापे में
मेरे बच्चे अंगुली थामे
शहर गली घुमाते
नवयुग राह दिखाते
याद आता अपना बचपन
सफर सुहाने वही दिन
अच्छा लगता हैं
अब इस बुढ़ापे में
काँपते हाथो में डंडे
मोटे ऐनक कानों बँधे
लड़ाखड़ाना संभलना
बच्चों का चिढ़ाना
फिर ठहाके लगाना
अच्छा लगता हैं
अब इस बुढ़ापे में
मेरे बच्चों ने लौटाया
मेरे सुनहरे बचपन
लौट आया मेरा बचपन
अब इस बुढ़ापे में
सुधीर सिंह आसनसोल

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