घर की मुर्गी दाल बराबर : हिन्दी कविता
घर की मुर्गी दाल बराबर
जिंदगी को सुबह की रोशनी चाहिए।
इंसान को वक्त की पहचान चाहिए।
गम के सायों में छिपी हो तस्वीर -----
फितरत है हर दिल में कद्र चाहिए।
आज पहले -सी गर्म जोशी कहाॅं मिलती?
हर साये में स्वार्थ की गंध ही महकती।
फिर भी रिश्ते की डोर को सॅंभाले हुए ----
घर की मुर्गी दाल बराबर कद्र कहाॅं झलकती?
पढ़े लिखे माॅं बाप भी हो जाते बेकार।
बच्चों के खातिर तन, मन, धन दिया वार।
घर की मुर्गी दाल बराबर ठोकर खाते-
बिन पैसे कद्र नहीं दूर हो गया उनका प्यार।
माता पिता को सम्मान देने की बात।
पन्नों को स्याही से उलटने की घात।
भूल जाते उन्होंने कितना श्रम किया -
फर्ज अदा किया बिताए दिन रात।
कद्र इंसान की नहीं आज तो धन की।
कद्र रिश्ते में नहीं है अब तो मन की।
मतलब की बात ही समझ आती है -----
घर की मुर्गी दाल बराबर बुद्धि भ्रष्ट बूढ़ों की।
स्वरचित
डॉ सुमन मेहरोत्रा,
मुजफ्फरपुर,बिहार
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