कितने पिछड़ गये हैं हम : हिंदी कविता Kitne Pichhad Gaye Hain Ham : Hindi kavita
कविता
कितने पिछड़ गये हैं हम
कितने पिछड़ गये हैं हम इस जमाने में,
खूद को बहुत आगे बता रहे हैं,
भूल रहे हैं लोग अपने माँ-बाप को,
फिर भी स्वंय को सभ्य जता रहे हैं।
कितने पिछड़ गये हैं...।
गिर गया जिनकी आँखों का पानी,
वे लोंगो को फ्री पानी दिलवा रहे हैं,
बसाना था जिन्हें अपने स्वदेशियों को,
वो आज विदेशियों को बसा रहे हैं।
कितने पिछड़ गये हैं... ।
कितने सिमट गये शहरी आशियाने में,
और अपने गाँव,घर भूलते जा रहे हैं,
कभी खेलते थे हम खेत-खलिहानों में,
आज के बच्चे छत को मैदान बता रहे हैं।
कितने पिछड़ गये हैं... ।
जिनको बसाया था अपना समझकर,
वे आज हमें अपनी आँख दिखा रहे हैं,
करत हैं वे शादी पहचान बदलकर,
शादी कर उसके कई टुकड़े लगा रहे हैं।
कितने पिछड़ गये हैं...।
वह आता हैं अक्सर बहुरूपिया बनकर,
फिर भी लोग उसे पहचान नहीं पा रहे हैं,
हम जा रहे हैं सभी अपने पतन की ओर,
फिर भी खूद को वो मजबूत बता रहे हैं।
कितने पिछड़ गये हैं...।
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अरविन्द अकेला, पूर्वी रामकृष्ण नगर, पटना-27
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