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आएगी कब समझ, तेरे ज़ेह्न-ए-शरीफ़ में : जदीद हिंदी ग़ज़ल

आएगी कब समझ, तेरे ज़ेह्न-ए-शरीफ़ में : जदीद हिंदी ग़ज़ल


जावेद अशरफ़ क़ैस फ़ैज़ अकबराबादी



“ तीसरी ग़ज़ल ”
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अश्आर हैं, जदीद क़वाफ़ी-रदीफ़ में !!
आयी समझ में बात ये, ज़ेह्न-ए-शरीफ़ में !!

“ इस्लाम ” से अज़ीम/ ह़सीन, कोई दीन/ धर्म ही नहीं !!
आएगी कब समझ, तेरे ज़ेह्न-ए-शरीफ़ में !?

“ आलूदा ” हो रहा है ये संसार, दिन-ब-दिन !?
हम जी रहे हैं अब तो “ फ़ज़ा-ए-कसीफ़ ” में !?

अंगूर की शराब के पीने के बाद, यार !!
दर-आया है “ शबाब ”, किसी इक ज़यीफ़ में !?

“ ऐ राम-चन्द्र ” !, “ साग़र-ए-उल्फ़त ” का है असर !!
पीते ही “ जाम ”, आ गयी त़ाक़त, नह़ीफ़ में !!

दिन-रात, पेल-पेल के, पैदा करो हो त़िफ़्ल/ फ़स्ल !?
शामिल हैं त़िफ़्ल/ फ़स्लें, फ़स्ल-ए-रबीअ-व-ख़रीफ़ में !?

“ शैख़-ए-ह़रम ” हैं “ शायर-ए-आज़म ”, मगर, जनाब !!
“ अश्आर ” कहते ही नहीं, “ बह़्र-ए-ख़फ़ीफ़ ” में !?

“ रामा ” !, “ जदीदियत ” का ज़माना है आज-कल !!
हैं ये सुख़न, जदीद क़वाफ़ी-रदीफ़ में !!

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इस त़वील ग़ज़ल के दीगर अश्आर फिर कभी पेश किए जायेंगे, इन्शा-अल्लाह-व-ईश्वर !!
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रामदास प्रेमी इन्सान प्रेमनगरी, ह़ज़रत जावेद अशरफ़ क़ैस फ़ैज़ अकबराबादी मन्ज़िल, सिन्गर जौन कुमार फ़रीद क़ैसर चाँद अकबराबादी बिल्डिंग्स, आशियाना, सन्तोष पूर्, बिसरा, सुन्दरगढ, ओडीशा, इन्डिया !

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