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ओ वितस्ते, दीप्तिवान चलायमान - कविता

ओ वितस्ते, दीप्तिवान चलायमान.....


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ओ वितस्ते

चिर चिरंतन अनवरत तू ओ वितस्ते, दीप्तिवान चलायमान तू ओ वितस्ते, ममता भरी प्रलयन करी तू तेरा इतिहास ये,
फेनिल कूल लहराते तेरा आँचल जब चलती तू,
स्नेहिल हाथों से दुलराती अपनी निर्बोध संतति को ओ मां वितस्ते,
निर्बाध तू अगम तेरी गति
मुड़कर न देखती पीछे
ऐसी गूढमती तू
"हूं स्वतंत्र मैं रहो न परतंत्र तुम" उपदेश देती संतति को।
भूली पर भूली तू।
बालबोध होता मूढमति।
वेग में चली तू छूटा तेरा आंचल
उनसे ओ दरपमई वितस्ते।।
हरित्वसना थी तू
पीत से रक्तिम हुई
ले बही संग अपने संतति की मलिन भावना तू।
काल चक्र सी चली चिन्मय।
रोके न रुकी
 गर आया महाकाल भी राह में। बिछाती गई संदेश अति गुप्त ओ रहस्यमयि वितस्ते।युगों से चलता आया सत्य। एक अमोघ सत्य। वात्सल्य ही बनकर तप्त अंगार तप्त करे।
सुप्त प्राणावली हुंकार करे। बन अग्नि शिखर।
भर दे ज्वाला सुप्त जड़ मतियों में। फूंक दे फैनिल भावावेग यौवन में। हो ऐसा मंथन कि तेरी संतति। करे लंघन क्षुद्र सीमा का।
कूद जाए चिर मधुर तेरी क्रोड में।
ओढ़े आंचल की गरिमा।
ले विश्राम स्नेहिल छाया में ममतामयि वितस्ते,
कात्यायनी तू कालरात्रि तू,
अब सिंहवाहिनी बन नेतृत्व कर अपने नवबीज का
फहरा दे नभमण्डल पर रजत लहरों का आंचल।
बना के विजय ध्वज नवनिर्माण कर संस्कृति का
दुस्वप्न में जो डूबी जा रही थी उलट दिशा में।
घुमा त्रिशूल और भारहीन कर चिर पीड़ित धरती को। ओ खड्गधारिणी पूज्या ओ वितस्ते।।

स्वरचित
डा. कौशल्या चल्लू लाहोरी
मुजफ्फरपुर, बिहार

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