Raisi aur Muflisi : Moral Story in Hindi
कहानी
रईसी और मुफलिसी
काफी अर्से के बाद..मैं, अपने "पत्रकार मित्र, सत्येंद्र शर्मा" के साथ, आसनसोल में उनके अज़ीज़ मित्र की शादी में शिरकत कर, वापस दुर्गापुर..उसकी मोटरसाइकिल पर आ रहे थे। सत्येंद्र के ज़िद भरी अनुग्रह के समक्ष, मेरी एक ना चली थी.. और वैसे भी कल इतवार होने के चलते, दफ्तर से अवकाश भी था, तो उसका मनुहार टाल ना सका। जल्दी वापस आ जाएंगे..कहते- करते, बरबस समय अधिक हो गया था। फिर भी मन प्रसन्न और मित्र के सानिध्य से उत्साहित भी था।
रात के तकरीबन, 10:30 बजे हम..शादी समारोह से रुखसत हुए। रास्ते में हंसी ठिठोली करते हुए, जैसे ही "दुर्गापुर स्टील प्लांट" के मेन गेट चौराहे पर पहुंचे, की, मोटरसाइकिल का पिछला पहिया पंचर हो गया! रात तकरीबन 11:30 का वक्त था। जीटी रोड पर चलती वाहनों की आवाजाही के शोर के अलावा, चारों हो निरबता थी। इस विकट घड़ी में, मदद की भी गुंजाइश ना दिख रही थी। परंतु, सतेंद्र हमेशा की तरह धीर, शांत था। हाथ के इशारे से मुस्कुरा कर कहा-- "रूक यार..कुछ करता हूं" फिर, फोन पर कहीं बात की। और मुझसे कहा- यार यहां से कोई 500 मीटर की दूरी पर, मेरी पहचान का मकैनिक है, जो, अपनी दुकान में ही सोता है! उसी से बात की.. बोला आ जाओ। बस बाइक को वहां तक ले चलना होगा"। मैंने राहत की सांस ली और मोटरसाइकिल धकेल कर ले चले..
वह एक गोल मार्केट थी। दुकानें बंद थी..सिर्फ एक "बेकरी" की दुकान और एक पान तंबाकू का "खोखा" खुला था। शायद वो भी, अपनी दुकानें बढ़ा रहे थे। हम एक खप्पर की छत वाली झोपड़ी नुमा दुकान के समक्ष रुक गए। सत्येंद्र ने मैकेनिक को आवाज लगाई- "बबलू"..और दरवाजा खटखटाने लगा। मैंने इधर उधर उस स्थान का जायजा लिया, तो एक ओर बैठने का, सीमेंट से बना बेंच पाया। बैठने की इच्छा से पहले, पान खाने की तलब जागी तो, टहलता हुआ पान की दुकान से, दो पानों के बीड़े लगवा लाया। एक खुद के लिए और दूसरा सत्येंद्र का। अपना पान मुंह में दबा कर, उस बेंच पर जा बैठे।
बेंच के पास ही, कुछ दूरी पर, बेघर, बेसहारा, गरीब, कुछ लोग व मासूम बच्चे, फुटपाथ पर ही सो रहे थे। इस गर्मी के दिनों में जहां, दिन का तापमान 40 से 45 डिग्री की वजह से, धरती की तपिश रात में भी ठंडी नहीं होती, वहां उसी धरती पर बेचारे एक फटी चादर या बोरी पर कैसे सो पाते होंगे। दिल स्वत: ही उनकी तकलीफ से द्रवित हो उठा। क्या पता..इनमें से कितनों ने खाना खाया होगा या नहीं! भूखे पेट भी कहां नींद आती है, साहब.. पर, मजबूरी सब कुछ करवा देती है। इसी उधेड़बुन में था की, सत्येंद्र ने मेरी तांद्रा तोड़ी। मैंने उसे पान थमाया और पूछा-- "बाइक का पंचर लग गया क्या?"
"अभी नहीं-- बस काम चल रहा है" और मेरे पास बैठ गया।
मुझे थोड़ा गंभीर देख मेरे कंधे पर थपकी मार कर पूछा-- "क्या हुआ यार? कहां खो गया?"
"कुछ नहीं दोस्त..सोच रहा हूं, भगवान सब के दरमियान, फर्क क्यों छोड़ देते हैं! किसी को बेशुमार और किसी को मुफलिसी की जिंदगी क्यों देते हैं?.. और अपने दिल में उथल-पुथल की वजह उसे सुना दी।
"यही तो जिंदगी है दोस्त.. सब कर्मों का फल होता है। तू छोड़ इन बातों को, ज्यादा तनाव ना ले.." उसने कहा।
अभी बातचीत चल ही रही थी, की, अचानक तेज़ गानों की धमक, हो हल्ला और सीटीयों की आवाज़ से वातावरण गूंज उठा। आवाज़ की ओर नजर गई, तो देखा, नई चमचमाती..लंबी लंबी तीन चार मोटर कारें आ कर, उस बेकरी की दुकान पर रुक गईं। उस पर सवार कई रहीस जादे, हाथों में बीयर की बोतल और सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाते हुए, नीचे उतरे और नाचने- चिल्लाने लगे। दो-तीन लड़के बेकरी से तीन- चार "जन्मदिवस का केक" ले आए। शायद वे किसी का जन्मदिन मनाने आए थे!
हम दोनों दोस्त यह मंजर देख रहे थे। इस शोरगुल में नन्हें मासूम जो, फुटपाथ पर सो रहे थे..उठ कर बैठ गए। उनकी हरकतें अय्याश पूर्ण थी! केक लाते ही, वह हुल्लड़ मचाने लगे। सभ्य समाज में, केक काट कर जन्म दिवस को मनाया जाता है, परंतु ये सभ्य..असभ्यता दिखाते हुए, केक के आते ही जिस लड़के का जन्म दिवस था, उसे पकड़ कर, उसके चेहरे..बदन..कपड़ों पर, केक लगाने लगे। देखते ही देखते, सारे रहीस जादे उस लड़के पर पिल्ल पड़े और केक की धज्जियां उड़ा दीं। कितना वाहियात दृश्य था। कोई मुबारकबाद नहीं..कोई अभिवादन नहीं...था तो अय्याशी और भद्दी गालियों का माहौल। यह कैसी जन्मदिवस की खुशी..??
कुछ देर यह चलता रहा..फिर चीखते चिल्लाते जैसे वो दनदनाते आए थे, वैसे ही गाड़ियों में बैठ, सड़क पर पड़े केकों के टुकड़ों को रौंदते हुए चले गए। जैसे एक तेज़ आंधी आई और सब तहस-नहस कर गुज़र गई!
उनके जाते ही हमारी नजरें उन मासूमों पर पड़ी, जो, कातर निगाहों से एक टक, सड़क पर बिखरे केक के टुकड़ों को देख रहे थे..शुष्क होठों पर जीभ फिरा कर व पेट पर हाथ फेर कर जैसे, अपनी क्षुधा जता रहे हों। उन्हीं में एक नन्ही बच्ची ने अपने भाई से शायद, ज़मीन पर गिरे केक खाने की मांग की। परंतु, भाई ने उसे गले लगा ऐसा ना करने दिया। उस नन्हीं बच्ची की आंखों से, अश्रु की एक खामोशी धारा बहते हुए देखा। बेचारे दोनों भाई बहन फिर उसी धरती की गोद पर लेट कर सोने की कोशिश करने लगे। कैसा वेदना पूर्ण माहौल हो गया था...
हम दोनों का मन भी, भावना में बह गया था। अचानक मैकेनिक बबलू ने, आवाज़ देकर मोटरसाइकिल ठीक हो जाने की सूचना दी। सत्येंद्र बाइक लेने चला गया।
मेरा अंतर्मन विचलित हो गया था। आंखें उस मासूम के आंसू देख, झिलमिला उठी थी। क्या कर सकता हूं.. यह सोच रहा था, कि, एक उपाय सूझा! मैं उठकर बेकरी की ओर दौड़ पड़ा। दुकानदार.. दुकान का शटर गिरा रहा था। उसे रोककर मैंने एक केक की मांग की, तो दुकानदार ने शटर उठा मुझे केक दे दिया। मैं केक लेकर बेंच पर आ गया। तब तक सत्येंद्र बाइक ले आया। मैंने उसे मोटरसाइकिल खड़ी करने को कहा। उसने- "क्या हुआ".. पूछा, तो मैंने उसका हाथ थाम कर, लगभग खींचते हुए उसे नन्हे भाई बहन के पास ले गया! वहीं फुटपाथ पर बैठ, मैंने केक खोला और मासूमों को आवाज़ लगाकर पास बुलाया। उनके सर पर हाथ फेरा, उनका नाम पूछा-- "गुड्डू और गुड़िया" नाम थे। फिर पास खड़े अपने दोस्त सत्येंद्र की ओर इशारा कर उनसे कहा-- "आज इन अंकल का जन्मदिन है। और रात के बाराह बजने को है..और अगर बाराह बज गए, तो दिन बीत जाएगा! इसलिए मैंने सोचा..क्यों ना यहीं खुशियां मना लें! तो, चलो केक काटते हैं"...
"लेकिन यार.."सत्येंद्र ने कुछ कहने को मुंह खोला ही था, कि, मैंने उसे आंखों से इशारा कर, चुप करा दिया। अब शायद सतेंद्र को भी मेरा अभिप्राय समझ आ गया था। वह भी वहीं बैठ कर, उस खुशी में शामिल हो गया। मेरे कहने पर सतेंद्र ने अपनी उंगली से केक काटा..मैंने"हैप्पी बर्थडे टू यू" कहा और केक का एक टुकड़ा उसके मुंह में डाला! नजरें दोस्त की नजरों से मिली तो, आभास हुआ जैसे वो भी, अपने जज़्बात छुपाने का भरसक प्रयास कर रहा हो। आंखों में जैसे..सैलाब बहने की प्रतीक्षा कर रहा है। मैंने अपनी नजरें चुरा ली, क्योंकि हालत मेरी भी कुछ ऐसी ही थी। मुस्कुराते हुए केक का टुकड़ा उठा, नन्हे मासूम की और बढ़ाया, तो उसने मेरा हाथ पकड़ कर कहा-- "नहीं अंकल, पहले मेरी बहन को दीजिए.." मैंने उस नन्हीं परी के मुंह में केक का ग्रास दिया तो अपने भावों को रोक ना पाया और आंखों से अश्रु गंगा बह गई। सोच रहा था-- कितना अंतर था उन सभ्य कहलाए जाने वाले, अमीर जादों की सभ्यता में, और इस फुटपाथ में रहने वाले असभ्य कहलाए जाने वालें की सभ्यता में। इस मुफलिसी सी हालात में भी, इन्हें पूरे संस्कारों की तहज़ीब है, और उनमें तहजीब नाम की कोई चीज ही नहीं...
कुछ देर बाद, उन मासूमों को ये कहकर कि.. "यह केक अब हम घर नहीं ले जा सकते, क्योंकि मोटरसाइकिल पर पकड़कर बैठना आसान नहीं। इसे तुम खा लेना.." हम चल पड़े। अपनी मोटरसाइकिल के पास आ..मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा। बड़े आराम से दोनों केक खा रहे थे। उनकी मुस्कुराहट देख मन को सुकून सा मिला.!
सत्येंद्र..जो अब तक खामोश था, अचानक मुझे आलिंगन में ले..मेरे कंधे पर सर रख फफक पड़ा। मैंने भी उसे भींच लिया और मन हल्का करने दिया!
"यार हरजीत...ग्रेट यार! मैंने आज तक इससे बेहतर जन्मदिन नहीं मनाया..थैंक यू दोस्त। आज तूने एक नायाब तोहफा दिया है..मैं प्रण करता हूं, अपना जन्मदिन ऐसे ही मनाऊंगा... हमेशा!
फिर सत्येंद्र ने बाइक चालू की और हम बैठकर अपने गंतव्य पर चल पड़े...
मैं सोच रहा था-- अगर भगवान ने हमें बेशुमार शोहरत व दौलत से नवाजा है, तो..क्या फर्क पड़ता है अगर थोड़ी सी ख़ुशी, किसी को दें! उन अमीरजादों ने काफी धन अपनी अय्याशी में बर्बाद कर दिया..अगर एक कतरा किसी मजलूम की मदद में दे देते, तो, दुआओं के साथ..जीवन सफ़ल हो जाता! बारहाल मुझे अपने जीवन में कुछ और अनमोल वह मधुर पल मिल गए थे..जिसे अपनी दिल की तिजोरी में संचित कर चुका था...
धन्यवाद सत्येंद्र..मेरे दोस्त, जो तेरी बदौलत यह मौका प्रदान हुआ और इन पलों का तू सहायक बना..!
(अगर सामर्थ्य है, तो, सहायक बने और सहायता करें..)
🙏समाप्त🙏
हरजीत सिंह मेहरा,
मकान नंबर-179,
ज्योति मॉडल स्कूल वाली गली,
गगनदीप कॉलोनी, भट्टियां बेट,
लुधियाना, पंजाब। (भारत)
पिन कोड- 141008
फोन नंबर- 85289-96698
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