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लाचारी पर कविता : हम तो स्वयं हैं रूखे सूखे

Lachari Par Kavita : Hum To Khud Hain Rukhe Sukhe

Lachari Par Kavita

लाचारी पर कविता : हम तो स्वयं हैं रूखे सूखे

हम तो स्वयं हैं रूखे सूखे,
आप तो हैं पैसों के भूखे।
पैसे कहाँ से अब लाऊँ मैं,
मैं सोच रहता स्वयं मनहूसे।।
निजि विद्यालय का शिक्षक,
घर परिवार भी तो हमारा है।
आय तो जाता घर के व्यय में,
चलता नहीं कोई चारा है।।
आरोप किसी पे मढ़ता नहीं,
हम पे आरोप मढ़ जाता है।
हम तो स्वयं भूख से पागल,
गैर समझे दारू से पगलाता है।।
किसको सुनाऊँ निज मजबूरी,
समस्या का समाधान कहाँ है ?
गाड़ी में चढ़ सफर कर पाऊँ,
दीखता कहीं पायदान कहाँ है ?
जितना सक्षम उतना करता,
शेष आहें भर मैं रह जाता हूँ।
अंदर की बातें रखता हूँ अंदर,
मन मसोस गम ही खाता हूँ।।
समूह समझे उल्टे ही लालची,
जैसे लालची दुनिया सारी है।
मैं भी सिमट रहता हूँ घर में,
यही सबसे बड़ी मेरी लाचारी है।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना।
अरुण दिव्यांश 9504503560

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