शाम की शायरी | शाम की तन्हाई शायरी | रंगीन शाम शायरी
हे संध्या ! रुको!
थोड़ा धीरे धीरे जाना
इतनी जल्दी भी क्या है?
लौट आने दो!
उन्हें अपने घरों में,
जो सुबह से निकले हैं
दो वक्त रोटी की तलाश में,
थोड़ा धीरे धीरे जाना
इतनी जल्दी भी क्या है?
लौट आने दो!
उन्हें अपने घरों में,
जो सुबह से निकले हैं
दो वक्त रोटी की तलाश में,
शाम की तनहाई और मैं: हिंदी शायरी
सांझ पर शायरी | सूर्यास्त पर शायरी
मैं बैठी हूं अकेली
ना सखिया ना कोई पहेली
छुप छुप के मैं तुम्हें
अपनी खिड़की से देखती हूं
सोचती हूं__क्षणिक है तुम्हारा है यौवन
अस्त हो रही हो!
मस्त बैठी थी
ले रही थी अंगड़ाई
सकुचाई आंखों से देख रही थी चौतरफा
पड़ी दृष्टि जब मेरी मार्तंड पर
ना सखिया ना कोई पहेली
छुप छुप के मैं तुम्हें
अपनी खिड़की से देखती हूं
सोचती हूं__क्षणिक है तुम्हारा है यौवन
अस्त हो रही हो!
मस्त बैठी थी
ले रही थी अंगड़ाई
सकुचाई आंखों से देख रही थी चौतरफा
पड़ी दृष्टि जब मेरी मार्तंड पर
ढलती शाम का खुला एहसास शायरी
हे गोधूलि!
लुकाछिपी खेलने लगी
तेरी मुग्धा छवि से कैसे बच पाते
स्वभाव धर्म जो ठहरा चित्रभानु का
प्रियतमा हो! उनकी यह मान बैठी मन में
संगिनी बन
धीरे धीरे साथ में ढल रही हो!
कितनी सच्ची है तुम्हारी निष्ठा
दे रही हो प्रणय का बलिदान
पावन हो!शुचिता तेरी रग रग में
अच्छा जाओ! मुझे भी याद आ गया
हैं कुछ मेरी नैतिक मूल्य
पूरा कर लूं ,सोची कुछ देर__
साझा कर लूं, हे सांझ! तुझसे!
मन के उदगार भाव
नहीं है समय किसी के पास
जो मुझे सुन सकें
अच्छा लेती हूं तुझसे अलविदा
दब गई मेरी व्यथा मेरे अंतर्मन में
चेतना की है विवशता
3/11/19,6:38pm
चेतना की कलम से, प्रयागराज
लुकाछिपी खेलने लगी
तेरी मुग्धा छवि से कैसे बच पाते
स्वभाव धर्म जो ठहरा चित्रभानु का
प्रियतमा हो! उनकी यह मान बैठी मन में
संगिनी बन
धीरे धीरे साथ में ढल रही हो!
कितनी सच्ची है तुम्हारी निष्ठा
दे रही हो प्रणय का बलिदान
पावन हो!शुचिता तेरी रग रग में
अच्छा जाओ! मुझे भी याद आ गया
हैं कुछ मेरी नैतिक मूल्य
पूरा कर लूं ,सोची कुछ देर__
साझा कर लूं, हे सांझ! तुझसे!
मन के उदगार भाव
नहीं है समय किसी के पास
जो मुझे सुन सकें
अच्छा लेती हूं तुझसे अलविदा
दब गई मेरी व्यथा मेरे अंतर्मन में
चेतना की है विवशता
3/11/19,6:38pm
चेतना की कलम से, प्रयागराज
मैं और मेरी तनहाई | तन्हाई शायरी | रात की तन्हाई शायरी Tanhai Shayari
मैं और मेरी तनहाई,
खूब दोनों ने प्रीति निभाई।
नहीं कभी संग हमने छोड़ा,
नहीं अन्य से रिश्ता जोड़ा।
जानें हम जग की सच्चाई,
मैं और मेरी तनहाई।।
नहीं जगत में कोई अपना,
हर तरफ फरेब और सत्य है सपना।
बचकर रहने में ही है भलाई,
मैं और मेरी तनहाई।।
रिश्ते नाते सब हैं कांटे,
हिला नहीं कि ये धंस जाते।
अपने ही हैं, चिता जलाते,
लूट लेते हैं, पाई पाई,
मैं और मेरी तनहाई।।
तनहाई ने साथ निभाया,
घर अपना, मेरे साथ बसाया।
चला छोड़ दुनिया को जब मैं,
अपनी चिता भी संग सजाई।
मैं और मेरी तनहाई।।
मैं और मेरी तनहाई,
खूब प्रीति दोनों ने निभाई।।
ओमप्रकाश
शाम नही तो सहर ढूंढ ले – सुहानी शाम शायरी
गज़ल
शाम नही तो सहर ढूंढ ले,
कहीं तो कोई दर ढूंढ ।।
ज्यादा उछल खुद ठीक नही,
थोड़ा सही सुकूँ मगर ढूंढ ।।
शहर से लेकर गाँव तक,
अब कोई नई डगर ढूंढ ।।
ऊँची इमारतें होती शहर में,
चढ़ने का इनपे जिगर ढूंढ ।।
खा गए पेड़ शहरी ईमारत,
परिंदे तू नया कोई बसर ढूंढ ।।
"केवल"आनंद
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