Ticker

6/recent/ticker-posts

आपका बंटी उपन्यास का सारांश - मन्नू भंडारी

आपका बंटी उपन्यास का सारांश - मन्नू भंडारी

आपका बंटी इस उपन्यास के रचनाकार का नाम मन्नू भंडारी है। यह उपन्यास हिंदी साहित्य जगत में बहुत प्रसिद्ध है और इसका प्रकाशन सन 1971 में हुआ है। इस उपन्यास की कहानी बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। इसमें एक छोटे से लड़के बंटी का सहारा लेकर बच्चों की मानसिकता का सुंदर चित्रण किया गया है। इस उपन्यास की रचना का मुख्य उद्देश्य समाज में असामान्य मनोस्थिति वाले बालक की मानसिकता का परिचय देना है।

इस उपन्यास के मुख्य पात्र अजय और शकुन दोनों पति-पत्नी हैं, जिनका एक बेटा है, जिसका नाम बंटी है। बंटी के जन्म के कुछ ही बरसों बाद दोनों पति-पत्नी के बीच संबंध विच्छेद हो जाता है और दोनों अलग-अलग रहने लगते हैं। दोनों पति पत्नी काफी पढ़े लिखे होते हैं। शायद यही वजह है कि उन दोनों में बात-बात पर टकराव होती रहती थी। दोनों ही खुद को एक दूसरे से बेहतर साबित करने में लगे रहते थे। पति-पत्नी का अहंकार इतना बढ़ गया था कि उन्हें अपने रिश्ते को लेकर कोई परवाह नहीं होती है और आखिरकार अहंकार की जीत होती है और रिश्तों की हार। इस तरह दोनों पति-पत्नी का तलाक हो जाता है।

इसके बाद अजय कोलकाता चला जाता है। अजय वहां जाकर मीरा नाम की लड़की से शादी कर लेता है। वहां पर मीरा और अजय से एक संतान भी होता है। तब तक बंटी की आयु चार पांच साल की हो जाती है। इस उपन्यास की कहानी यहीं से विधिवत रूप से शुरू होती है। बंटी की मां शकुन एक कॉलेज की प्रिंसिपल है। जिसके कारण कॉलेज के कैंपस में ही उसके रहने के लिए एक अच्छा सा बंगला मिला हुआ है। जब शकुन कॉलेज चली जाती है तब इस बंगले में बंटी बिल्कुल अकेला रह जाता है। मां के नहीं रहने के कारण अकेले में बैठे-बैठे बंटी तरह-तरह की बातें सोचता है। बंटी की देखभाल के लिए फूफी नाम की एक धाय मां रहती है जो बंटी को अपने बेटे की तरह प्यार और दुलार से पालती है।

मां बेटे की जिंदगी उदासियों और निराशा में कटती जा रही है। गर्मी की पूरी छुट्टियां गुज़र जाती हैं लेकिन फिर भी बंटी अपनी मां के साथ कहीं घूमने भी नहीं जा पाता। जब बंटी अपने आस-पास के बच्चों के साथ खेलने जाता है तो वहां भी उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं होता है जिससे उसके मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है वह और भी ज्यादा दुखी रहने लगता है। बंटी का सारा समय बंगले के कमरे में या लॉन में गुज़रता था।

वह माली के साथ लॉन में पानी देता था। बगीचे में माली के साथ गुड़ाई करता था। पेड़ पौधों को पानी की धार से साफ करता था। कभी दोनों मां बेटे लॉन में रखी कुर्सियों पर बैठे चाय पी रहे होते थे तो कभी बंटी रात को होमवर्क कर रहा होता था। बस यही उसकी हर दिन की दिनचर्या होकर रह गई। जिंदगी में ना कोई नया काम, ना नई बात, ना उमंग ना उत्साह कुछ भी तो नहीं था।

लगभग पूरे उपन्यास में इसी प्रकार की घटनाओं का चित्रण मिलता है। अगर कुछ खास घटनाएं और गतिविधियां हैं तो बस यही कि बंटी को उसके बचपन से अभी तक उसकी मां शकुन ने इतना अत्यधिक लाड़ प्यार से और दुलार से पालन पोषण किया है कि वह एक पल भी अपनी मां के बिना रहना पसंद नहीं करता है। बंटी का अपनी मां से इतना ज्यादा जुड़ाव हो चुका है कि वह अपनी मां का कॉलेज जाना भी बर्दाश्त नहीं करता है। बंटी जब स्कूल से लौटता है तो उसके बस्ते को उसकी फूफी ही संभालती है। वही उसके खाने-पीने को भी पूछती है और कपड़े भी बदलवाया करती है।

बंटी इस क्रियाकलाप का आदी हो चुका है वह स्वयं अपने लिए कुछ भी नहीं कर पता है। वह इतना चिड़चिड़ा और झुंझलाहट से भर चुका है कि जब नाश्ते में फूफी इसको दूध और दलिया देती है तो झट से कटोरी फेंक देता है। वह हर दिन दलिया देने पर लड़ाई करने लगता है। इस तरह बंटी मम्मी के लाड़ प्यार से दिन-ब-दिन बिगड़ता जा रहा था।

बंटी के पिताजी का नाम अजय बत्रा था। वह कोलकाता में रहते थे। वह कभी कभार ही घर आते थे, साल में एक दो बार आते तो बंटी के लिए कुछ खिलौने ले आते थे। बंटी उन्हीं खिलौने से बहुत खुश हो जाया करता था। बंटी को आइसक्रीम खिलाते थे और अपने साथ घुमा दिया करते थे। बस इतना से ही बंटी का काम हो जाता था। अगर अजय साहब बंटी की ओर ज़रा सा भी ध्यान न दें या बातें न करें तो वह तुरंत बिगड़ उठता था।

बंटी भले ही खुलकर कुछ नहीं कहता था लेकिन मन ही मन उसके अंदर अपने मां-बाप के लिए आक्रोश बढ़ने लगा था। जब एक बार उसकी मम्मी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी हुई बनाव श्रृंगार कर रही थी तो बंटी को उस दिन मम्मी में बहुत बदलाव नज़र आया उसे ऐसा लगा जैसे यह मेरी पहले वाली मम्मी नहीं बल्कि कोई और है। धीरे-धीरे बंटी मम्मी से भी दूर होने लगा था मम्मी के साथ उसे अजनबीयत सी महसूस होने लगी थी। फूफी जब कभी बंटी को लोक कहानियां सुनाती थी तो बंटी खुद को उस कहानी का पात्र समझने लगता था। उन कहानियों में आने वाले विभिन्न राजा और रानियों की, डायनों के मनचाहा रूप बदलने की, बंगाल के काला जादू वगैरह की बातें वह हरदम सोचता रहता था। उसे यह सब सोचकर डर भी लगता था और उपेक्षा करने पर शीघ्र ही विद्रोह और क्रोध की ज्वाला में जलने भी लगता था।

कभी कभी तो इस बात को लेकर बहुत चिंतित और डरा सहमा भी रहता था कि कहीं उसकी मम्मी नाराज़ न हो जाएं। एक दिन जब कोलकाता से वकील चाचा अजय का यह सन्देश लेकर पहुंचे कि किस तारीख को कोर्ट में जाना होगा और तलाक़ के कागज़ात पर दस्तखत करने होंगे। उस समय पति-पत्नी की इसी बातचीत में बंटी को भी एक वाक्य सुनाई पड़ गया, जिसका मतलब वह ठीक से नहीं समझ पाया, लेकिन जब उसने देखा कि उस दिन से उसकी मम्मी बिल्कुल उदास रहने लगीं, तो वह इस चिन्ता में डूब सा गया कि आखिर ऐसी कौन सी बात है?  वह मन ही मन मम्मी से पूछना तो चाहता था, लेकिन डर के मारे नहीं पूछ पाता था।

इसी तरह जब एक बार बंटी के पिता अजय बत्रा आये तो वहां के सर्किट हाउस में ठहरे और बंटी को अपने पास बुलाया। बंटी ज़िद करके अजय को घर ले आता है। वहां पर अजय बहुत कम समय के लिए रुके। अजय और शकुन की छोटी सी मुलाक़ात हुई। उन दोनों में पहले की अपेक्षा बातें भी बहुत कम हुई। बंटी को इस पर भी बहुत आश्चर्य हुआ। उसके मन में अनगिनत सवाल घूम रहे थे कि उसके पापा घर में क्यों नहीं रहते हैं? बंटी जब भी पड़ोस में जाता और पड़ोसी बच्चों के माता-पिता की बात चीत सुनता तो उसमें भी वह अपने माता-पिता के कुछ संकेत पा जाता तो उन्हीं बातों के बारे में सोचता रहता था।

बंटी वकील चाचा के आने पर बहुत खुश रहने लगता था, और उनके जाने पर चिन्तित और उदास हो जाता था। वकील चाचा के माध्यम से डॉक्टर जोशी के बारे में कहना, मम्मी का कभी-कभी बिल्कुल अकेले बाहर जाना भी उसे बर्दाश्त नहीं होता था। डॉक्टर जोशी का कभी कभी घर पर आना और चाय पीना भी उसे पसंद नहीं था। इसके साथ ही कभी फूफी के द्वारा तो कभी वकील चाचा के द्वारा यह कहने पर कि बंटी को अधिक लाड़-प्यार करना उसे बिगाड़ना है, शकुन को और अधिक चिंतित और उदास करता था। शकुन ने अपने बेटे बंटी को अपने जीवन का एकमात्र सहारा बनाना चाहा, उसे अपने मोह-ममता का केन्द्र बिंदु बनाया।

एक दिन शकुन ने अपने कॉलेज की सहकर्मी शिक्षिका को अपने घर पर चाय के लिए बुलाया और उनसे बातचीत की, इसकी भी प्रतिक्रिया बंटी पर अच्छी साबित नहीं हुई। दीपा आंटी द्वारा बंटी की बहुत प्रशंसा करने पर भी वह भीतर से खुश नहीं हुआ, बल्कि समझने लगा कि यह आंटी उसकी मम्मी को खुश करने के लिए ही उसकी ज़ोरदार तारीफ़ कर रही हैं। बंटी के पापा एक बड़ी एयरगन लाये। जब वह गुस्से में आता तो अपने साथी बच्चों से लड़ता - झगड़ता और पेड़ पर चढ़कर धांय-धांय गोलियाँ चलाने लगता था। हाँ, घर के माली दादा से वह घुट-घुटकर खूब बातें करता था। एक दिन उसने छोटी आम की गुठली बो दी। जब आम का पौधा उग आया, तब वह बहुत खुश हुआ। उसके पापा आये तो उसने उन्हें अपना बगीचा दिखाया और कुछ फूल तोड़कर उन्हें दिये। जब से तलाक़ के कागज़ात पर दस्तखत हुए, शकुन ने बहुत दिन तो उदास रहकर काट दिये, लेकिन वकील चाचा के द्वारा किये गये इशारे को उसने समझ लिया कि उसको नये सिरे से अपनी ज़िन्दगी गुज़ारनी है। इसीलिए धीरे धीरे डॉ. जोशी के साथ उसने उठना-बैठना बढ़ा लिया।

शकुन डॉक्टर जोशी से शादी करना चाहती थी। उनके पहले से ही दो बच्चे थे। पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। वह यहाँ तक सोचने लगी थी कि अगर कॉलेज के मैनेजर ने दख़लंदाज़ी की तो वह नौकरी ही छोड़ देगी। उधर बंटी पर इस रिश्ते की गम्भीर प्रतिक्रिया हुई। वह बहुत उदास रहने लगा, पढ़ने में उसका थोड़ा भी मन नहीं लगता था। यही हाल फूफी (सेविका) की भी थी। उसने तो अपना गुस्सा जाहिर करने के साथ-साथ नौकरी छोड़कर हरिद्वार जाने की प्रार्थना भी कर दी। फूफी अपनी बात पर इतनी अड़ गयी कि शकुन को उसका टिकट मँगाना पड़ा और आखिरकार फूफी भी बंटी को छोड़कर घर से चली गयी। अब बंटी और अधिक उदास रहने लगा था। फूफी वैसे तो कॉलेज के चपरासी थी, लेकिन जो स्नेह उसे फूफी से प्राप्त होता था, जितनी चिन्ता फूफी करती थी, उतनी और कोई नहीं कर सकता। इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण घटना सोमवार के दिन तब घटी, जब शकुन कॉलेज वाला बँगला छोड़कर डॉ. जोशी की कोठी में चली गयी।

बंटी ने मां के फैसले का कड़ा प्रतिरोध किया, क्योंकि उस कॉलेज वाले बँगले में उसने अपने हाथों से पेड़-पौधे लगाये थे, उसको अपनी मां के साथ सोने को मिलता था, उसके घर में उसके अलावा और कोई होड़ करने वाला या हिस्सा बँटाने वाला बच्चा भी नहीं था, वहां बंटी का ही एकछत्र राज्य चलता था। उस बंगले का चप्पा-चप्पा बंटी का जाना पहचाना था। डॉ. जोशी की कोठी दुल्हन की तरह सजायी गयी थी। उसमें उठने बैठने के लिए पर्याप्त सामान, डबल-बैड वगैरह सभी सुख-सुविधा की बहुमूल्य वस्तुएं एकत्रित की गयी थीं। वहाँ जाकर शकुन तो उस घर में खुशहाल हो गयी, क्योंकि डॉ. जोशी की पत्नी मर चुकी थी, लेकिन बंटी उस घर में न तो खुश हो सका ना ही संतुष्ट। उसके मन में हर समय छोटी-छोटी बातों को लेकर उग्र आक्रोश भरने लगा। वह इन बातों को तुलना के साथ देखता और अपने कॉलेज वाले बँगले में अपनत्व अनुभव करता था और यहाँ परायापन। डॉ. जोशी का कठोर व्यवहार उसे बिल्कुल पसंद नहीं था। उनके बच्चों में छोटा लड़का था - अनि, उससे तो बात बात पर बंटी का झगड़ा होने लगा, क्योंकि वह हर बात पर झगड़ा करता या अधिकार जताता था। डॉ. जोशी के बच्चों को स्कूल छोड़ने कार ही जाती और स्कूल से लौटने पर वापस भी लाती, उसकी मम्मी भी कॉलेज तक कार में ही जाती और आती थीं। लेकिन वह महसूस करता था कि उसे स्कूल की मोटर में जाना पड़ता है। इसी प्रकार की और भी अनेक बातें थीं जो उसे परायेपन का अनुभव कराती रहती थीं। डॉ. जोशी का लड़का कभी मेज़ पर न बंटी को किताबें लगाने देता था और न कुर्सी पर बैठने ही देता था।

एक दिन बंटी ने उसे इन्हीं सब बातों की वजह से पीट दिया, तो उसने बंटी को दाँतों से काट लिया। अब बंटी का मन विद्रोह करने पर उतारू हो गया। वह न स्कूल में मन लगाकर पढ़ पा रहा था और न ही ठीक से सो पा रहा था, क्योंकि उसकी मम्मी डॉ. जोशी के साथ सोती थीं। बंटी ने जब एक दिन उन दोनों को नग्न अवस्था में देखा, तो उसके मन में भी काम अपराध जाग्रत हो गया। वह बिस्तर में ही पेशाब करने लगा और उसमें हीनता की भावना भर गयी। उसके मन में डॉ. जोशी के प्रति ग्लानि बढ़ गयी। उसे पापा के साथ कोलकाता भेज दिया गया। वहाँ अजनबी लोगों के बीच वह कसकर पापा की उँगली पकड़े रहता था। कोलकाता में बहुत छोटा सा घर था, वहाँ भीड़ भरी सड़कों को एक खिड़की पर बैठकर वह बहुत देर तक देखता रहता था। वहाँ सौतली माँ मीरा का भी एक छोटा बच्चा था। वह बड़ा प्यारा था, परन्तु उसका आकर्षण भी बंटी को न बाँध पाया। पापा के घर से चले जाने पर बंटी बहुत दुखी और उदास रहने लगा था। वह न किसी से बोलता, न कुछ खाता-पीता। पापा एक दिन जब उसे स्कूल में दाखिल कराने ले गये तो टेस्ट में वह किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाया। अन्त में परेशान होकर उसके पापा अजय बत्रा उसे एक हॉस्टल में भर्ती करने लोकल ट्रेन से ले जाने लगे तो वह फूट-फूटकर रोने लगा और इसी दृश्य के साथ उपन्यास समाप्त हो गया।

इस प्रकार से उपन्यास में यह विस्तार पूर्वक चित्रण किया गया कि तलाकशुदा परिवारों में बच्चों की क्या दुर्दशा होती है। मन्नू भण्डारी ने यह उपन्यास बाल मनोविज्ञान का आश्रय लेकर तैयार किया है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ