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अपना अपना ज़ख्म Apna Apna Zakham Hindi Kavita

अपना अपना ज़ख्म : कविता

डॉ. कवि कुमार निर्मल

अपना अपना ज़ख्म


अपना अपना ज़ख्म लिए, सब फिरते हैं। 
पीड़ाहारी मरहम खोजा करते हैं।
जुल्म-सितम को भुला नहीं जो पाते हैं। 
ऐसे रिश्ते हरदम ढहते-गिरते हैं।।

पहली भेंट हजार ज़ख्म जो दे देगी।
तौबा-तौबा कह के रहिया कट लेगी।
करते हैं जो जार -जार, जज्बातों को।
ऐसे ही तो सम्बन्धों को चरते हैं।

अपने दोष भूलाकर तुर्रम बनते हैं।
साज़िश के ही तहत, मोहब्बत करते हैं।
गुमनामी की सफ़र सुनो वो बेहतर थी।
नाम बनाकर नाम से मेरे मरते हैं।

ये तो कोई रहा है जादूगरी नहीं।
हुश्न भूख हवसी की कबहूँ भरी नहीं। 
चट्टानों की ठोकर लगी नहीं होगी,
वरना कहाँ दाल दरिया में दरते हैं।

बिखरा हुआ मसीहा जन्नत जाता है,
बेंच-बेंच ईमान गुफ़्तगू पाता है।
जहाँ घाव पर मरहम कोई लगे नहीं,
उसका तो इलाज ख़ुदा ख़ुद करते हैं।

काँटे जो पहनाकरके चिनवाते हैं,
और शहादत को झूठा बतलाते हैं,
जेहादी इस सोच को आओ खतम करें,
जो सबको मरवाते हरदम रहते हैं।

डॉ. कवि कुमार निर्मल
एम. बी. बी. एस. (१९७८) 
साहित्यकार एवम् भूतपूर्व चिकित्सा पदाधिकारी 
बेतिया नगर निगम 
पश्चिम चंपारण जिला मुख्यालय 
बिहार

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