व्यंग्य कविता : नोटों का जखीरा
“जय बोलो भ्रष्टाचार की, जय बोलो,
जय बोलो अंधकार की, जय बोलो!”
व्यंग्य कविता : नोटों का जखीरा
नेताओं के घर में नोटों का जखीरा मिलता है,
लेकिन नहीं कोई, अपनी जगह से हिलता है।
जैसे कुछ हुआ ही नहीं, सोच कितनी बढ़िया?
कैसे कहीं कालाधन का एक गुल खिलता है?
नेताओं के घर में……….
अगर आज इस दुनिया में होते कहीं कबीरा,
कुछ नए दोहे लिखते देख नोटों का जखीरा।
अब समझ में आया, देश क्यों पिछड़ा रहा,
गरीबों के घर, मुश्किल से चूल्हा जलता है।
नेताओं के घर में…………
नोट गिनने की मशीन यहां थक जाती है,
गर्म होकर गिनते गिनते ही रुक जाती है।
संबंधित दल के लोग छुपते फिर रहे कहीं,
सुबह तो होती नहीं है और दिन ढलता है।
नेताओं के घर में………….
फंसे मुर्गे को छोड़ दिया गया है बेसहारा,
दल के नेताओं ने कर लिया है किनारा।
किसी की बांछें खिल उठी हैं इस लूट से,
दूर खड़ा हुआ कोई अपना हाथ मलता है।
नेताओं के घर में…………
इस बार मौसम बिल्कुल नहीं है मेहरबान,
पर्दे के पीछे कुछ बड़े नेता हुए हैं परेशान।
जनता हैरान है इस कलाकारी को देखकर,
कोई घबराता है, किसी का मन मचलता है।
नेताओं के घर में………….
क्या यही होती है, गरीब जनता की भलाई?
कैसे नेता कंबल ओढ़कर, खा रहे हैं मलाई।
कोई जवाब नहीं है, पर्दे के पीछे है खिलाड़ी,
मोम की तरह, डर डरकर बदन पिघलता है।
नेताओं के घर में…………..
प्रमाणित किया जाता है कि यह रचना स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसका सर्वाधिकार कवि/कलमकार के पास सुरक्षित है।
सूबेदार कृष्णदेव प्रसाद सिंह,
जयनगर (मधुबनी) बिहार/
नासिक (महाराष्ट्र)
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