कविता
बोलो बेटी क्या कमी थी
बोलो बेटी क्या कमी थी,
हम माँ-बाप के संस्कार में,
छोड़ दी तुम घर-द्वार अपना,
आशिक, पिया के इकरार में।
बोलो बेटी क्या...।
बड़ी श्रद्धा से पाला था तुमको,
कई कष्टों से निकाला था तुमको,
हमें छोड़कर तुम चली गयी,
कसाई, जालिम के परिवार में।
बोलो बेटी क्या...।
जाने कितनी तुम तड़पी होगी,
सनकी, आशिक के घर-द्वार में,
मिली सेकुलर प्यार की सजा,
अपने प्रेमी के घर संसार में।
बोलो बेटी क्या...।
पैंतीस टुकड़ों में काटकर तुमको,
फेंक दिया जंगल झाड़ में
दिखा दी उसने औकात अपनी,
अपने मजहबी प्यार में।
बोलो बेटी क्या...।
कर रहा हूँ बेटियों से विनती,
नहीँ रहना भेड़ियों के सरोकार में,
नहीं तो मिलेंगे तेरे कई टुकड़े,
गाँव;शहर, जंगल, पहाड़ में।
बोलो बेटी क्या...।
आज सेकुलर होंठ क्यों चुप हैं,
गंदी राजनीति के दरवार में,
देख रहे सब जालिम का तमाशा,
सेकुलरिज्म के बाजार में।
बोलो बेटी क्या...।
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अरविन्द अकेला, पूर्वी रामकृष्ण नगर, पटना-27
बेटियाँ : महिलाओं की सुरक्षा पर कविता | समाज और नारी कविता
बेटियाँ
सब कहते बेटा होता भाग्य से,
औ बेटी होती बहुत सौभाग्य से।
बेटी हेतु हम मन्नतें भी माँगते,
बेटी रचती जीवन ये दुर्भाग्य से।।
जिन मात पिता ने है जन्म दिया,
वही मात पिता आज अरि बना।
अपरिचित चेहरा आया सामने,
वही इस जीवन का कड़ी बना।।
रखा था अरमान मात पिता ने,
बेटी हेतु सुन्दर सुसभ्य वर हो।
परिवार भी मिले सुखी सम्पन्न,
नहीं कहीं कोई किसी से डर हो।।
जन्म दिया जिन मात पिता ने,
अपना जीवन सुख त्याग दिया।
उसी बेटी ने निज कुकर्तव्यों से,
आज मात पिता को दाग दिया।।
बेटी होती मात पिता की पगड़ी,
बेटी ने ही पगड़ी वह गिरा दिया।
आनेवाले वंशज कुल खानदानों में,
सदा के लिए उसने दाग लगा दिया।।
कौन इसका आज है जिम्मेदार,
जो चल रही आफत यह आज है।
किसपर करूँ आज दोषारोपण,
स्वयं माता - पिता औ समाज है।।
जिम्मेदारी नहीं यहीं तक सीमित,
जिम्मेदार फिल्म औ सरकार है।
जिम्मेदारी जिनकी है प्रजापालन,
आज उन्हीं को नहीं दरकार है।।
कहानियाँ सुनीं देखी भी बहुत हैं,
बंद करो लैला मजनूँ हीर राँझा।
सब में है यह हबस ही समाहित,
जनता बीच जो करते हो साझा।।
फिल्मों में होती बहुत अश्लीलता,
नग्न अर्द्धनग्न आती हैं तस्वीरें।
फैल रही यह समाज में गंदगी,
बन रहे कोयले आज के हीरे।।
फिल्मी दुनिया धन का आशिक,
ऐसी दुनिया में है संस्कार कहाँ ?
धन कमाने हेतु हर कुछ दिखाते,
संस्कृति की उन्हें दरकार कहाँ ?
हम भी बेटे बहू बेटी संग मिल,
वही फिल्में देखते हम साथ में।
चाह रहे हम यह आदर संस्कृति,
बेटे बेटी भी आएँ कहाँ हाथ में।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार।
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