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उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की १४२वीं जयंती

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की १४२वीं जयंती

हिंदी साहित्य पुरोधा मुंशी जी मेरे पिता जी के अग्रज शीरर्स्थ आधुनिक हिंदी साहित्य के नाभि स्तंभ थे। अपने पिता जी से सुनी और जानी कुछ यादों को मैं सुधिजनों को समर्पित कर रहा हूँ।

मेरे परम अराध्य पिताश्री कीर्तशेष कविवर विमल राजस्थानी जी उर्फ पुरुषोत्तम शर्मा "प्रियदर्शी" विख्यात गीतकार कवि गोपाल सिंह नेपाली जी के कवि बालसखा थे। वे हांलाकि दशकवय थे, अपने बेतिया प्रवास में और अंत तक अंतरंग मित्र रहे। १९४४ में नेपाली जी मुंबई की फिल्मी दुनिया की ओर रुख किये। लगभग ४५ फिल्मों के ३०० गीत लिख सीनेजगत् के सिरमौर बन लोकप्रिय हुए (पूजा के दो फूल चड़ा कर कहता है इंसान कि मुझको मिल गया भगवान्)। पिता जी शैशवकाल से हीं कविता लिखना प्रारंभ कर दिये थे। राष्ट्रियस्तर के शीर्स्थ साहित्यकारों संग बैठना उठना था उनका।

नेपाली जी पिता जी को मायानगरी की चकाचौंध, शौहरत भरे और ऐश्वर्यमयी जीवन का हवाला देते हुए बार बार आमंत्रण भेजते थे रह-रह कर, इनको साथ देखने की पुरजोर तमन्ना। पर पिता जी के मन में अग्रज (४० साल बड़े) मुंशी प्रेमचंद जी की एक बात याद थी।

दरअसल मुंशी जी अपने गाँव लमही, वाराणसी, उत्तर प्रदेश से (१९३१) मायानगरी पटकथा लेखन के लिये फिल्मी निर्देशकों के आमंत्रण पर गये थे। मुश्किल से तीन साल वहाँ टिके। वहाँ का माहौल कत्तई रास नहीं आया उनको। गाँव का सामान्य जीवन, एक किसान का जीवन भला था, जीवन के अंतिम साल वहीं व्यतीत कर अमरत्व पाये सदाशिव की काशिनगरी में।

कवि कुमार निर्मल


तब पिता जी १३ साल के तरुण थे। जब नेपाली जी के भेजे पोस्टकार्डों की मोटी थाक जमा हो गई तब पिता जी १९६० में नेपाली जी को हिंदी साहित्यजगत् के पितामह मुंशी की मुंबई से "खीज'' का हवाला देते हुए मायानिरी जाने से साफ इंकार कर दिये। लिखे नेपाली जी को, "देखो बुद्ध और गाँधि चंपारण को अपनी कर्म भूमि बनाये और हम आजाद हैं और अहिंसा के पथगामी भी। दिनकर जी यहीं से भाया पटना आकाशवाणी दिल्ली राष्ट्रकवि तक बन पहुँच गये। मैं ना छोड़ूं अपनी सोंधी मिट्टी बेतिया की। नेपाली जी १९६३ में ५२ आयु की देहरी पर अचानक हृदयाधात से भागलपुर रेलवे स्टेशन पर इहजगत से चुपचाप कूच कर गये और पिता जी को ऐसी गहरी नींद लगी अचानक कि बीन पर गहरी नींद सो गये ६ मार्च २०११ ई. पुर्वान्ह। वे अपने ९० सावन पार कर चुके थे। तब मैं बेतिया में हीं अपना एम. बी. बी. एस. आदि पठन पाठन पूर्ण कर अपनी निजी क्लिनिक चला रहा था। एक अध्याय पूर्ण हुआ। साथ हैं उनकी अमर कृतियां और सीख सर पर। हांलांकि गाँवों से प्रेम रहा और आसपास न दूर दराज के ग्रामिण मरीजों के इलाज में २१ साल भटका पर अब घर पर हूँ ७२वां सावन चल रहा है।

डॉ. कवि कुमार निर्मल
बेतिया, पश्चिम चंपारण, बिहार

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