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कीमत मटके की : हिंदी कविता | Keemat Matke Ki Hindi Kavita

कीमत मटके की : हिंदी कविता | Keemat Matke Ki Hindi Kavita

कीमत मटके की
मटके की क़ीमत क्या ख़ूब लगाई।
बच्चे ने तेरी ख़ातिर जान गंवाई।
मिट्टी को ख़ुद पे कितना ग़ुरूर आया।
माटी के पुतले ने माटी में मिलाया।

नीच जाति होना भी एक अभिशाप।
उच्च में जन्म लेने से चढ़ता नहीं पाप।
भात-भात बोलकर, कोई मर जाए,
घोड़े पे चढ़े कोई, तो जान गंवाए।

उच्च जाति ही करे स्वंय पे अभिमान,
बलात्कारी को भी मिलता है सम्मान।
कब तक ऊंच-नीच, काले-गोरे होंगे,
इंसानियत की नींव ही क्या अधूरे होंगे।

क़ीमत प्यास की कैसे कोई लगाता है,
मृत्यु शैय्या पे निच जाति बड़ा काम आता है।
कर्म से ही क्यों नहीं आंका जाता है,
ख़ून है एक, आत्मा एक फिर जाति कौन बनाता है।

मटका भी आज ख़ुद पे शर्मसार हुआ,
प्यास बुझा न पाया यही सोंच गुनहगार हुआ।
बूँद-बूँद की क़ीमत आज समझ आई।
मटके तेरी क़ीमत, जान देकर चुकाई।
मटके तेरी क़ीमत, जान देकर चुकाई।

नोट-किसी भी एक जाति या धर्म की अवहेलना नहीं कि गयी है। सोंच बदलने की सिर्फ़ एक कोशिश।
©नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़
मुंबई
©Nilofar Farooqui Tauseef ✍️
Fb, ig-writernilofar

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