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ज़कात पर कंफ्यूजन क्यों? Zakat Par Confusion Kyon

ज़कात पर कंफ्यूजन क्यों? Zakat Par Confusion Kyon

ज़कात पर कंफ्यूजन क्यों? 30/04/2022
किसी भी अमल को करने के लिए उसके अदा करने के उसूल का पता होना लाज़िम है। जैसे आप नमाज़ अदा करना चाहते हैं तो आप पर लाज़िम है की आपको मालूम हो कि नमाज़ के फराइज़ क्या हैं और नमाज़ अदा करने का तरीक़ा क्या है।


क्या आप जानते हैं कि ज़कात कब फर्ज़ होती है और कैसे अदा करनी होती है?

ठीक ऐसे ही अगर आप ज़कात अदा करना चाहते हैं तो आप पर लाज़िम है कि आपको मालूम हो ज़कात कब फर्ज़ होती है और कैसे अदा करनी होती है। फर्ज़ होने का मतलब ये है की आपकी माली हैसियत क्या हो कि आप पर ज़कात देना फर्ज़ हो जाए और अदा करने से मुराद ये है की आप ज़कात की रकम का ताय्युन (अमाउंट कैलकुलेट) करके उसको ज़रूरतमंद लोगो को तकसीम कैसे करें।

लेकिन जब आप किसी आलिम से ये मालूम करते हैं की ज़कात का निसाब (threshold) क्या है यानी कितना माल होने पर ज़कात फर्ज़ होती है तो सीधा सा जवाब आता है की अगर साढ़े सात तोले सोना हो या साढ़े बावन तोले चांदी हो तो आप साहिब ए निसाब हो जाएंगे। यानी आप पर ज़कात फर्ज़ हो जाएगी।


चलो कोई नहीं, अच्छी बात है। लेकिन अगर आप मालूम करें कि अगर सिर्फ 7 तोले सोना हो और कुछ ना हो तब? तो जवाब आता है की ज़कात फर्ज़ नही। अच्छा! चलो कोई नहीं, लेकिन दूसरा सवाल आप कीजिए की अगर 53 तोले चांदी हो तो तब? तो जवाब आएगा की अब आप पर ज़कात फर्ज़ हो गई।

गौर करने वाली बात ये है की 7 तोले सोना अगर 50000 रुपए तोला के हिसाब से लगाओ तो 350000 रुपए होते हैं जबकि 53 तोला चांदी अगर 700 रुपए तोला के हिसाब से लगाओ तो 37000 के करीब होगी।


यानी 350000 का माल रखने वाले पर ज़कात नहीं और 37000 वाले पर ज़कात? क्या मज़ाक बना रखा है? ज़कात तो मालदारों के माल में गरीबों का हक़ है, जो अमीरों से लेकर गरीबों में तकसीम किया जाता था। तो ये कैसे हो सकता है की ज़्यादा माल वाले पर ज़कात नही और कम वाले पर फ़र्ज़ होगी?


ये सारा का सारा कंफ्यूजन शुरू ही यहां से होता है जब आप सोने और चांदी के लिए अलग अलग कीमत का निसाब (threshold) बताते हैं। सोने का निसाब(7.5 तोले सोना) 400000 के आस पास जाता है जबकि चांदी (53.5 तोले चांदी) का 35000 या 36000 के आस पास। सवाल ये है की दो अलग अलग कीमत के निसाब क्यों?


रसूल अल्लाह के वक्त में साढ़े बावन तोले चांदी साढ़े सात तोले सोने के बरार थी। यानी साढ़े सात तोले सोने में साढ़े बावन तोले चांदी आ जाती थी। (उस वक्त पेपर करंसी ना हो कर सोने चांदी की ही करंसी थी। ) इसलिए चाहे आप ज़कात के लिए सोने का निसाब तय करो या चांदी का फ़र्क नही पड़ता था। मगर आज जब ये कहा जाता है की 7.5 तोले सोना हो या 52.5 तोले चांदी हो तो निसाब पूरा होगा, तो बुनियादी गलती यहीं हो जाती है क्योंकि दोनों तरह के निसाब की कीमत में ज़मीन आसमान का फ़र्क है।

कंफ्यूज़न मुख़्तलिफ किस्म के इन्वेस्टमेंट को लेकर भी हैं

ये तो मैने अभी सिर्फ एक कंफ्यूज़न की बात की जो सबसे पहले आता है। वैसे कंफ्यूज़न तो ये भी है की निसाब पर एक साल गुज़रना ज़रूरी है या साल गुज़रने पर आपके पास निसाब हुआ तो ही आप साहिब ए निसाब मान लिए जायेंगे? कंफ्यूज़न मुख़्तलिफ किस्म के इन्वेस्टमेंट को लेकर भी हैं।

सवाल ये है की ज़कात पर कंफ्यूज़न क्यों? जबकि ये तो एक बुनियादी फर्ज़ है

और ऐसे ही कई दूसरे कंफ्यूज़न भी हैं। सवाल ये है की ज़कात पर कंफ्यूज़न क्यों? जबकि ये तो एक बुनियादी फर्ज़ है और हर साल अदा किया जाता है। कंफ्यूजन है तो अदायगी कितनी सही होती होगी?


मैने इस बारे में काफी सोचा तो एक बुनियादी वजह ये समझ आई की ज़कात के मसाइल बताने वालों को अक्सर ज़कात देने का मसअला दरपेश नही आता। इसलिए इस मसले से मुतल्लिक़ प्रैक्टिकल प्रोब्लम पर उनका ध्यान ही नही जाता। बस किताबों में जो पढ़ा उसको बिना सोचे समझे बोल दिया जाता है।


दूसरी बात अवाम भी ज़कात की अदायगी के मामले में ईमानदार नही। ज़कात अदा करने वाले ही अव्वल तो कम ही लोग हैं और जो हैं उनमें भी ऐसे ईमानदार कम हैं जो ये सोच कर ज़कात निकालते हैं की ज़्यादा से ज़्यादा ज़कात अदा को जाए और कोई ज़कात का पैसा हमारे पास ना रुक जाए। बल्के अक्सर इस तरह ज़कात निकालते हैं की कैसे कम से कम माल ज़कात की ज़द में आए और कैसे हम कुछ माल बचा लें जिस पर ज़कात ना देनी पड़े। इसलिए ज़्यादा मालूमात का शोक नही पाया जाया अवाम में ज़कात के ताल्लुक़ से।

ज़कात एक टैक्स है

तीसरी एहम बात ये है की ज़कात एक टैक्स है जो दर असल वसूल किया जाता था और इस्लामी निज़ाम में ज़कात की वसूली का मामला इतना सख़्त है की हज़रत अबू बक्र र. ने अपने दौरे खिलाफत में ज़कात ना देने वालों से जंग की थी। तो जब गवर्नमेंट ज़कात वसूल करेगी तो ज़कात वसूल करने के दिन और तारीख़ भी तय और निसाब की हैसियत भी। तब सारे मसअले अपने आप संवर जाएंगे।

ज़कात से मुताल्लिक़ मसाइल आम डिस्कशन में लाने चाहिए

लेकिन तब तक के लिए उलमा हज़रात को ज़कात की प्रैक्टिकल प्रोब्लम समझना चाहिए और अवाम की सही रहनुमाई करते हुए ज़कात से मुताल्लिक़ मसाइल आम डिस्कशन में लाने चाहिए। कुल मिला कर बात ये है इस मअसले पर कंफ्यूज़न नही रहना चाहिए था अवाम और ख़्वास में क्योंकि ये हमारे दीन के सबसे एहम फरीजों में से एक फरीजा़ है। सबसे एहम बात निसाब या तो चांदी का हो या सोने का हो मगर सिर्फ किसी एक की बुनियाद पर ही होना चाहिए और उसको निसाब क्यों बनाया गया उसकी तमाम अकली और नकली दलाइल अवाम में आम करने चाहिए।

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