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एक अविस्मरणीय संस्मरण - आपबीती Ek Avismarniya Sansmaran - Aap Beeti

एक अविस्मरणीय संस्मरण - आपबीती Ek Avismarniya Sansmaran - Aap Beeti

आपबीती
मैं उन दिनों मेडिकल कॉलेज (चतुर्थवर्ष) का विद्यार्थी था। एम. बी. बी. एस. द्वितीय परिक्षा सामने, कवि था हताश!

हटात् 18 मार्च 1974 को जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना में छात्र आंदोलन की विहंगम शुरूआत हुई और देश भर में देखते देखते विराट् "जे.पी. आंदोलन" के रूप में इतिहास का एक अध्याय बन गया। इसी आंदोलन के चलते ही देश को लोकतंत्र का सबसे काला समय यानी इंदिरा सरकार बैचैन हो डोल गई और 'आपातकाल' आ सारे देश को रुलाया।

हर ओर धर-पकड़ और गिरिफ्तारियां, देश के सारे कारागृह भरने लगे। हमारे बेतिया राज परिसर अवस्थित तात्कालिक आवास के सामने से गुजरती सड़क पर लगभग नौ विद्यार्थियों की मौत हुई दमदार पुलिसिया बंदूकों की गोली से, हर और पुलिस और सुरक्षाबल के जांबाज! सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। हमारे क्षात्रावासों के सभी मेस बंद हो चुके थे। फल, दूध और पावरोटी मात्र सहारा था हमारा उन दिनों धनवंतरी क्षात्रावास (150 चौकियों में सिर्फ तीस पर परिक्षार्थी, बाकी घर चले गये अपने अपने) में। कभी कौर्न फ्लैक्स या फिर सत्तू। दस-पंद्रह दिन येन-केन-प्रकारेण गुजरे। कैरियर का सवाल, पढ़ना जारी रहा। ऊब गये हम मानो तिहाड़ कारा में कैद हों। यातायात के सभी साधन ठप्प, चक्का जाम जो था उन दिनों। शहर पाँच किलोमिटर दूर! कैसे जा कर एक अच्छे से 'मारवाड़ी बासे' में भर पेट भोजन खा कर तुष्ट हों!?


हम चार सहपाठी मित्रियों की एक टोली थी, एक दूजे के सभी अंतरंग। निकल पड़े हम एक दिन बाहर जा कर खाने का मन बना कर। कड़ी धूप ऊपर और नीचे जल रही पीच की हाई वे सड़क! पस्त थे हम तपिश से कि अचानक आधे किलोमिटर बाद पुआल से भरी एक बैल गाड़ी समिपवर्ति किसी गाँव की कच्ची सड़क से निकल हाईवे पर आती दिखाई दी। कुछ आशा जगी मन में। जैसे तैसे दो के लिए वह वृद्ध चालक राजी हुआ। दो मित्र लपक कर चड़ गये। तय हुआ कि आधा रास्ता तय कर हम बचे दो मित्र सवार होंगे ताकि बराबर हिसाब हो सके और सभों को पैदल चलने से राहत मिले कुछ। समय पर एक मित्र उतरा तो साथ वाले मित्र सरदार राजिन्दर (Rajinder Singh Chawla) को मैं बोला कि चढ़ जाओ, सबसे बड़ा था उनमें उम्र में, कर्तव्य कुछ तो बनता था मेरा। पर जब एक सहपाठी मित्र नहीं उतरा, बात भी तय हुई थी, तो मुझे क्रोध आया और चिकड़ कर बोला कि उतर विरेन्द्र (विरेन्द्र गुप्ता अंबाला से था, स्तैथोस्कोप की एक बड़ी फैक्ट्री थी उसके पिता की, टॉपर भी रहा हमेशा कक्षाओं में; धमंडी था वह कुछ)। मैं चढ़ने लगा तो उतर कर मेरा हाथ पकड़ कर सड़क की ओर खींचने लगा। मैं गुस्से में बोल बैठा, "अगर मैं एक सच्चे ब्राह्मण का पुत्र हूँ तो तेरा यह हाथ गया समझो।''


दुसरे दिन सुबह हमारे धनवंतरी क्षात्रावास में वह मित्र विरेन्द्र एक शीशे के ग्लास में पानी पीने का भरने बाजू के शौचालय में गया। आधा ग्लास भरा था कि ग्लास हटात् हाथ से छुट कर गिरा और टूट गया। वह महसूस किया कि अचानक बहुत कमजोर हो गया वह हाथ। स्थिति स्थिर रही। मेडिकल कॉलेज के वरीय डॉ. जंग बहादुर अमर गुप्ता, एच. ओ. डी., मेडिसिन (कानपुर मेडिकल से स्थानांतरित हो आये थे कुछ माह पहले) उसका परिक्षण कर जल्द हीं पी. जी. चण्डीगढ़ में दिखाने की राय दिये। घर पर खबर गई और उसके पिता जी आ कर बेटे को तत्काल घर ले गये अंबाला इलाज हेतु। लगभग छ माह बाद जांच में पी. जी. चण्डिगढ़ संस्थान में वृहत जाँच से पता चला कि उसको "ब्रेन ट्युमर" है। हर संभव इलाज के बावजूद वह बच नहीं पाया।


सरदार मित्र राजिन्द्र मेरा अंतरंग था, बोला, "कवि तुमसे मुझे बहुत डर लग रहा है- तुम्हारी हर बात लग जाती है।" तुम्हारा वह सड़क वाला गुस्से में दिया श्राप संभवतः रंग लाया। मैं पश्चाताप की अगन में जलता रहा कई दिन।

मैंने अंततः फैसला किया मन हीं मन में कुछ दिन बाद कि आइन्दा कभी भी जाने-अनजाने हीं सही किसी भी परिस्थिति में किसी को श्राप ऐसा कुछ भी उत्तेजना में नहीं बोलुंगा।

आज उस बात को लगभग ४७ साल हो गए पर स्वप्न में भी किसी का बुरा नहीं सोचा और नहीं कुछ ऐसा-वैसा हीं बोला किसी को। भगवान् सबका भला करें।

डॉ. कवि कुमार निर्मल
बेतिया, पश्चिम चंपारण (बिहार)

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