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धूप छाँव और प्रभु कृपा : भक्ति काव्य Dhoop Chhaon Aur Prabhu Ki Kripa : Bhajan

धूप छाँव और प्रभु कृपा : भक्ति काव्य Dhoop Chhaon Aur Prabhu Ki Kripa : Bhajan

धूप की प्रचण्ड अगन, देह जला भी सकता है।
भादो मास में धूप दिख, आह्लाद बिखेरती है।।

छाया तले कथित पथिक को, शितलता मिलती है।
छाया पड़ती दुख की तो ये आँखें सदा झड़ती हैं।।

प्रभूवर! कई भक्त तुम्हें पाने हेतु, लालायित रहते हैं।
जप-तप-कीर्तन करते, सारी रात जागरण करते हैं।।

योगी बन 'विहंगमयोग' में खो, रिक्तता पाते हैं।
तुम्हें पाने के लिए क्यों (?) सभी लगे रहते हैं।।

तुम्हारी चाह लिए भक्तगण, सारी रात जगे रहते हैं।
शुभागमन् हेतु आशान्वित मन को, सांत्वना देते हैं।।

कुछ भक्त मधुर कण्ठों से, गीत गा कर भी अपनी,
मनोव्यथा व्यक्त करनेे की, चेष्टा में असफल होते हैं।
तुम्हारे सामिप्य का अभाव, बहुत खलता तो रोते है।।

भक्त तुम्हारी याद में द्रवित हो, अश्रुपूरित हो बात करते हैं।
कुछएक माया में लिपटे मगर, तुझे बिसरा नहीं पाते हैं।।

तुम्हारा सानिध्य मानो, अब स्वप्न बन तड़पाता है।
ध्यान- जप- श्रवण- मनन- चिंतन- दान- पुण्य से,
अन्तरंगता- मधुरिम संबंध प्रगाढ़ बन न पाता है।।

कई लोग युग - युगांतर से माला गुँथ अर्पित करते हैं।
बाट जोहते- कि कब तुम आओ- परन्तु नहीं पाते हैं।।

Shiv Shankar Bhajan


धूप छाँव महज, खगोलीय घटनाक्रम Dhup Chhav Mahan Khagoliy Ghatna Kram

धूप छाँव महज, खगोलीय घटनाक्रम मानते है‌।
दु:ख सुख, एक साथ होना भी संभव, जानते हैं।।

संवेदक इंद्रियों (१४) से, जागतिक खेल सारा चलता है।
ध्यानोत्कर्ष में साधक मुक्त हो, छद्म- माया समझता है।। 

लोग परंपरा की डफली बजा, समय व्यर्थ गवाँते हैं।
ढोकर परंपरा- अंधविश्वास, अधोगति भ्रांत पाते हैं।।

चतुर शोषक, धूप-छाँव का यह खेल खेलते हैं।
समर्पित भक्त, धूप-छाँव सह, सुखी सदा रहते हैं।।

वो कभी तुझे दूर तो, कभी आस-पास अपने पाते हैं।
कभी दुनियावी तिलिस्म में फंस, आशियाना उठाते हैं।।

कुछ लोग तुम्हारी अनुभूति हेतु, जीवन व्यतित करते हैँ।
वे भक्त धन्य- जो तुम्हारी, अहेतुकी कृपा पात्र बनते हैं।।

तुम रहते साथ तो, धूप छाँव की परवाह नहीं होती।
हर नासूर की दवा, मरहम कारगर दुआ बन पाती।।

डॉ. कवि कुमार निर्मल__✍️
बेतिया, बिहार

विश्व बंधुत्व

आज झूम झूम कर, प्रगति गीत गाना है।
अवतरण हुआ प्रभु का, कथा सुनाना है।।

प्रथम महासंभूति, सदाशिव जब आए थे।
मानव समाज में, मानव पशुवत् छाए थे।।

तंत्र साधना, अध्यात्मिकता का परचम लहराया।
मूढं मानव को, ज्ञान प्रदान कर सद् विप्र बनाया।।

दानवगण समस्त धरातल पर छा, अत्याचार करते थे।
अतिक्रमण कर नारी को, भोग की वस्तु समझते थे।।

सदाशिव प्रथम अंतरजातीय विवाह कर, परिवार बसाये।
सात्विक आहार, विचार, व्यवहार, यम-नियम वे बतलाये।।

ऐसा लगा कैलाश पर्वत शिखर पर, देवों की टोली उतर आई।
दानवों ने तप से वरदान लिया, धरा नरसंहार देख अश्रु बहाई।।

सभ्यता का विकाश अद्भुत, क्रांतिकारी शुभ युगसंधी थी।
देवों का तीर्थ धरा धाम बन, ब्रह्माण्ड में सजी सँवरी थी।।

पाँच हजार वर्ष प्रगतिशीलता, आर्यावर्त भू खण्ड उभरा।
धीरे धीरे पशुवत् दानवों का, टिड्डिदल चहुंओर बिखरा।।

द्वितीय महासंभूति कृष्ण, अमावस्या रात्रि, चुपके से आये।
मथुरा-वृंदावन के चितचोर, निधिवन में लीला; फाग रचाये।।

कंस-कालिया वध कर, द्वारिकाधीश कृष्ण महाभारत रचाए।
कुरुक्षेत्र युद्ध, सुदर्शन चक्र, अधर्म कुचल धर्मध्वज फहराए।।

मुक्त आत्मायें तन धर, धर्म प्रचार कर वर्ण व्यवस्था हटाए।
तीर्थंकर- पैगंबर बन, सुनीति सुपथ जन जन को बतलाए।।

जातिवाद का कुचक्र चला, मुगल फिरंगी आर्यावर्त को लधु बनाए।
अनैश्वरवादी पुंजिपती, फुफकार धरा पर, जाति का विष फैलाये।।

तृतीय महासंभूति धर्मस्थापनार्थ, मानव बन सुनिश्चित हुआ आना।
वैशाखी पूर्णिमा, महामारी कोप, लाख साधु संतों का कुंभ जाना।।

प्रयागराज महानद स्नान- ध्यान, तब से भारत में नियम बना था।
धर्म के नाम पर शोषण प्रचण्ड, दमन चक्र तब त्वरित हुआ था।।

अंतर्जातीय विवाह को, "आर्य समाज'' ने मानवीयता कहा था।
भारतीय संविधान जातिमुक्त विवाह को, वैद्य करार किया था।।

डॉ. कवि कुमार निर्मल

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