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आत्मा, आवरण व ब्रह्मार्पण! Atma Aavran aur Brahmarpan

आत्मा, आवरण व ब्रह्मार्पण! प्रथम भाग

(मधुकथा 220306) 15:40

प्रथम भागः

विशुद्ध रूप से आत्म परमात्म की ही संचर व प्रतिसंचर से गुजरी अपनी अवस्था है। व्यक्ति आत्म की ही अभिव्यक्ति है। उसके इर्द-गिर्द जो आवरण है, वही ब्रह्माण्ड है। जो चल रहा है, वही जगत है।

ब्रह्म वह सत्ता है जो

ब्रह्म वह सत्ता है, जो ब्रहत-ब्रहत है, महत है व सर्व नियंत्रक है! जगत परमात्म की प्रकृति का ज़ाया, उपजाया, तरजाया, तरासा, रचा, रसा, रसाया, सुराया, ताल पर नचाया व तराया सैलाव व फैलाब है! इसे वे जब चाहें प्रयोजनानुसार पसार, प्रसार, सिकोड़ व समेट सकते हैं!

व्यक्ति, देश काल (स्थान व समय) के बंधन में बंध, अपना असली अस्तित्व भूल, अपनी जागतिक अवस्थाओं या संस्थाओं के आवरण में उलझ जाता है।


व्यक्ति देश (स्थान) के आयामों में शनैः शनैः प्रवेश करते हुए अपने मन को बृहत् करते-करते अपने शरीर, घर, मुहल्ला, गाँव, पंचायत, तहसील, जिला, प्रदेश, देश, महाद्वीप, ग्रह, सौरमण्डल, निहारिका, ब्रह्म रंध्र, श्याम विविर व सृष्टि को यथासम्भव यथाशक्ति देखने, समझने, नियंत्रण करने, पैठने, प्रतिष्ठित होने, प्रबंधन व निदेशन करने का सफल-असफल प्रयास करता है।

एक व्यक्ति कितना कुछ कर पाता है, वह उसकी अपनी आत्म की अवस्था व चैतन्यता के साथ-साथ ब्राह्मी मन, अन्य व्यक्तियों, पंचभूतों व प्राणियों की आपेक्षिक उपस्थिति, अवस्थिति, मानसिक अवस्था, व्यवस्था, विचार, भाव, गुणवत्ता, गुण-दोष, गरिमा, महिमा, विकासशीलता, आदि के ऊपर निर्भर करता है।

काल (समय) देश व पात्र की आपेक्षिक गतिशीलता से परिलक्षित होता है। काल के भी अनेक आयाम हैं। व्यक्ति अपनी गति के अनुरूप व अनुसार काल के किसी भी आयाम में विचरण कर सकते हैं। अपनी गति को विकसित व नियंत्रित कर वे भूत व भविष्य की सीमाओं को लाँघ सकते हैं। उनका वर्तमान सुदूर भविष्य या व्यतीति का भूतकाल भी हो सकता है।


व्यक्ति यदि अपनी गति प्रकाश की गति से अधिक करलें तो उनके देश काल बदल जाएँगे और पात्र भी कुछ और हो जाएँगे। तब वे आज से पूर्णतः अलग प्राणियों, सभ्यताओं, संस्कृतियों, भाषाओं, व्यवहारों, विवेचनाओं, विवेकों, मर्यादाओं, आध्यात्मिक तरंगों व अवस्थितियों को देख पाएँगे। तब किसी भी ब्राह्मी मन, पंचभूत या प्राणी से कुछ भी कहना, करवाना, उनकी बात समझ उनकी सेवा करना या समभाव भव में रह प्रबंधन करना या समग्रभावेन सहयोग करना सहज होगा।

प्रत्येक व्यक्ति की आकुति है, प्रकृति है, प्रवंचना है; अभिव्यक्ति, अनुरक्ति, अनुभूति, विभक्ति, भक्ति, भुक्ति, मुक्ति, विचरण, विवेक, व्यंजना संयोजना व संलिप्तता है!

हर व्यक्ति का केन्द्र उसकी आत्म है। आत्म ही उसके मन व शरीर की स्वामी है। शरीर मन के नियंत्रण में है, मन आत्म के। शरीर के स्नायु तंत्र, नाड़ी, चक्र, आदि सब ऊर्द्ध्व चक्र से नियंत्रित हैं। ऊर्द्ध्व चक्र में बैठे कुल कुंडलिनी के संचालक शिव प्रति आत्म के निदेशक हैं। जीव की हर गतिविधि के वे हर क्षण के साक्षी व संचेतक हैं।


ब्रह्म मूल रूप से निर्गुण हैं

ब्रह्म मूल रूप से निर्गुण हैं पर आवश्यकतानुसार वे सगुण स्वरूप में आ एक समुचित आकार ले अपनी प्रकृति द्वारा संचर प्रक्रिया में ब्राह्मी मन धारण कर लेते हैं। उनका ब्राह्मी मन ही महत, अहं व चित्त बन जाता है। वही चित्त पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी) बन जाता है। जड़ (पृथ्वी) तीव्र संघात पा प्रतिसंचर प्रक्रिया में वनस्पति, जंतु, मानव, बुद्धिजीवी व आध्यात्मिक व्यक्तित्व धारण कर लेती है और अंततः सगुण ब्रह्म में विलीन होजाती है।

इसी दौरान आत्म अनेक आयामों से गुजरते हुए देश काल पात्रों के मोह में जगह-जगह बार-बार अटक अपना गंतव्य भूल कर भटक जाती है।

इस शून्य से अनन्त (संचर) व अनन्त से शून्य (प्रतिसंचर) की यात्रा में व्यक्ति (आत्म) हर सतह पर अपने शरीर, आभूषण, सौंदर्य, वैभव, परिवार, संस्था, जाति, समाज, देश, पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, कला, साहित्य, अध्यात्म, नेतृत्व, नृपत्व, ईश्वरत्व, इत्यादि में उलझ जाता है और अपने सगुण व निर्गुण ब्राह्मी स्वरूप का ध्यान नहीं कर पाता!


व्यक्ति भूल जाता है कि उसका ये तन, मन, स्थान, मकान, दुकान, दौलत, चमक-धमक, संस्था, पद प्रतिष्ठा, संबंध अनुबंध, रूप, आभूषण, आवास, देश, प्रदेश, गाँव, जाति, संबंधी, घर व परिवार सब अस्थायी, सामयिक व अस्थिर हैं। हमारे अगले स्थानांतरण, अवतरण, व जन्म में किसी भी समय सब बदल सकता है।

इस जन्म में भी न जाने कितने परिवर्तन, आघात, व्याघात, संघात, हृदयाघात, आपात, अपनों के हृदय परिवर्तन, महामारी, युद्ध-विश्व युद्ध, परमाणु विस्फोट, मानसिक चोटें, आत्मीय उत्कोच व प्रकोप व्यक्तियों की हुलिया कितना बदल देंगे, उन्हें कहाँ मालूम!

कई वार व्यक्ति अपने सूक्ष्म पर विशाल ब्राह्मी स्वत्व को न जान, अपने क्षुद्र जागतिक संस्थागत पद, पोशाक या पहनाव, ऐश्वर्य, नृपत्व या जागतिक नाटकीय स्वरूप में प्राकृतिक मोह वश इतना उलझ व अटक जाता है कि वह विवेक से भटक अपना कर्त्तव्य भूल जाता है।


सृष्टि के नाटक का हर दृश्य जो हर पल चलायमान है, वही तो यह जगत है। व्यक्ति जब प्रकृति के अस्थायी नाटक के कलाकारों के रूप, रंगों व रासों से रिश्ता बना उनके साथ नृत्य कर अन्यमनस्क हो सृष्टि के निदेशक से संपर्क नहीं रख पाता और उनकी अवहेलना कर उनका अनादर आरम्भ करने लगता है तो परमात्म की प्रकृति सक्रिय हो संचालन करने लगती है।

जो व्यक्ति अपेक्षाकृत अक्षम, क्षीण या बलहीन होता है, वह स्वयं को जागतिक आवरण ओढ़ (परिवार, जाति, पद, प्रतिष्ठा या संस्था की चादर लपेट) अपने असली ब्राह्मी अस्तित्व को भूल, असहज व्यवहार करने लगता है। इस अवस्था में वह प्रबंधन या प्रशासन क्रिया में ब्रह्म विज्ञान या आध्यात्मिक प्रबंधन के अनुरूप नहीं चल पाता और तब प्रकृति उसे समुचित रूप से अनुशासित कर सुधारने का प्रयास करती है।


सगुण ब्रह्म की अवस्था

सगुण ब्रह्म की यह सब अवस्था व व्यवस्था निर्गुण ब्रह्म की निरंतर निगरानी में रहती है। यद्यपि निर्गुण ब्रह्म, सगुण व प्रकृति की सारी प्रक्रियाओं के, निरपेक्ष निदेशक हैं पर वे सदा सर्वदा शक्तिमान व आभासी संचालक निदेशक रहते हैं।

निर्गुण ब्रह्म की गोद में सगुण ब्रह्म व उनकी प्रकृति संसार रच, लय प्रलय व विलय कराती है। वे अपनी ब्राह्मी विद्या से अविद्या माया को विद्या माया स्वरूप में उत्तरोत्तर प्रतिष्ठित कराते चलते हैं।

सृष्टि के सब अवयव ब्रह्म की प्रयोगशाला के उपकरण व यंत्र हैं। सब उनके प्रयोग के योग हैं। अंततः हर व्यक्ति व आत्म के साध्य, संवल, लक्ष, प्रणेता व प्रचेता वो ही हैं।

कृमशः भाग 2
गोपाल बघेल ‘मधु'
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा

आत्मा, आवरण व ब्रह्मार्पण! भाग 2

आत्मा, आवरण व ब्रह्मार्पण!
(मधुकथा 220306) 15:40
भाग 2 (अंतिम)
(भाग 1 से आगे)
वस्तुतः जो हैं एकमात्र वे ही हैं और जो भी सृष्ट हैं उनकी ही लीला की कलाओं की लहरें व महरें हैं! अंततः हर आत्म को अपना आवरण हटा ब्रह्मार्पण करना है! आत्म व परमात्म को एक स्वरूप होना है। हर व्यक्ति को ब्रह्म बनना है।

ब्रह्म को अपनी संचर प्रतिसंचर क्रिया द्वारा व्यक्ति, अभिव्यक्ति, अनुरक्ति, भुक्ति, अनुभूति, मुक्ति,
सुक्ति, युक्ति व प्रयुक्ति कर स्वयं को और ब्रह्म (बृहत्, महत, सतत व सनातन) बनाना है!

ब्रह्म के संचर प्रतिसंचर में उत्पन्न हर ब्राह्मी मन (महत, अहं व चित्त), पंचभूत व प्राणियों (वनस्पति, जंतु व मनुज) की उर लहरियों को अंततोगत्वा योग-तंत्र में नहला-धुला, बहला-फुसला, सजा-संवार, नख़रों से निकालना व निखार व दुलरा कर स्वयं में चाहे-अनचाहे मिला लेना, स्वयं में सतत सनातन रूप से समाते चलना कोई आसान काम तो नहीं!


यह अद्भुत योग संयोग व रास लीला वे हर आत्म के साथ परम रहस्यमय रीति से बिना प्रतीति के गोपन प्रीति किए पल-पल किए चलते हैं!

हर क्षण वे सृष्टि की अपनी किसी उमड़ी लड़ी, कुसुमाती कड़ी, खिली-अधखिली कली, चहचहाती चिड़ी, चुलबुली चमगादड़, खुले खिले खिलखिलाए कुसुम, साधक के सुर को सुनते मृग, महिमा में उलझे महीप, रचना में डूबे कवि, शासन की श्रँखला में उलझे प्रशासक या प्रभुता में डूबे नृप को अपने कुसुम कोरक या बज्र कठोर परश से लय विलय किए विलयन करते चलते हैं।

उनका अपने ही स्वरूप की इन कलिकाओं को हर पल विलय कर आनन्द में अभिभूत कर परमानन्द लेते देते चलना, अलौकिक अनुभूति है!


परमाणु ऊर्जा या विस्फोट, आत्मा के आनन्द के आगे नगण्य है!

परमाणु ऊर्जा या विस्फोट, आत्मा के उस आनन्द के आगे नगण्य है! ब्राह्मी भाव व संकल्प से ही प्रकृति, ब्राह्मी मन, पंचभूत या प्राणी संचालित हैं। पंचभूतों या प्राणियों की कोई कोशिश या कशिश ब्रह्म के आगे क्या करेगी! वे जब चाहेंगे, सृष्टि के कल्याण के विरुध्द आई किसी भी बाधा को धराशायी कर देंगे! उनकी बिना अनुमति के कोई घास के तिनके को भी आहत नहीं कर पाएँगे!

इतनी बड़ी सृष्टि के हर कण व हर गण का सृजन, पालन, संवरण व विलय सतत रूप से करते रहना और उत्तरोत्तर उन्हें अपने स्वरूप में समाहित करते चलना अति सूक्ष्म ब्राह्मी- प्रबंधन प्रक्रिया है!

अपने एक-एक अवयव के साथ उनका यह अभिनव अनन्त अभिनय, प्रबंधन व निदेशन अपार आनन्दकारी है! हर आत्म को अपने ब्राह्मी अंक में लेने की उनकी यह अनूठी, निराली, अनन्य व परम आकर्षक कला परम रहस्यमय है!


जो उनका परम स्नेह पा लिए, वे उन्हें साक्षात् देख लिए, समझ लिए और जगत को तर लिए! उनके लिए जगत अनन्त व विकराल न होकर सूक्ष्म शून्य होगया! सब कुछ उनमें समाहित, वे सबमें समाहित!

तब आत्म, आवरण व ब्रह्मार्पण सब एक रस व एकात्म होजाता है! कोई कहीं दूर न रह, सब अंक में सिमट जाता है! निर्गुण में सगुण दिख जाता है, सगुण में निर्गुण! सृष्टा में सृष्टि लख जाती है और सृष्टि के हर कण में सृष्टा!

आयाम नदारद हो, जीव नारद बन जाता है! तब उनके नाद में विभोर हो आत्म परमात्म के हर सृष्ट कण की सेवा सुश्रुषा में आत्मसात् होजाता है!
गोपाल बघेल ‘मधु’
6 मार्च 2022 सायं
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा

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