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लघुकथा : शहर की हवा Shahar Ki Hawa : Short Moral Story In Hindi

लघुकथा : शहर की हवा Shahar Ki Hawa : Short Moral Story In Hindi

(लघुकथा)
शीर्षक: शहर की हवा
शहर से पढ़-लिख कर लौटने वाला गबरू को सचमुच शहर की हवा लग चुकी। हरेक पग में गाँव की व्यवस्था व रहन सहन पर नुस्क निकालते लौंडेबाजी करना उसकी लत बन चुकी थी जिस कारण उसका ब्याह करा दिया गया। इसके बावजूद वह शहर की रंगीनियों को भुलाने में असमर्थ है।


एक शाम उसके बूढे बाप ने बुला कर उससे कहा,-- 'अरे बेटा! नौकरी जब मर्जी कर लेना, लेकिन कल सुबह बैलगाडी के पहिये और कील की मरम्मत वास्ते जरा मदद कर देना,बस। वर्ना खेत से शहर तक की ढुलाई नहीं हो पायेगी।" दूसरे दिन सुबह दस बजे वह खुली आँखों से देख रहा था कि उसका बाप लोहा गर्म कर रहा था और उसकी नई नवेली दुल्हन घन चला रही थी, फिर भी अनदेखा करते एक छड़ी उठाई और उसे हवा में लहराता मस्ती में गाता चला जा रहा था --- "मैं तो बेलपुरी खा रहा था... गाँव में शहर बसा रहा था, तूने शादी रचा दी मैं क्या करूँ।
रामा श्रीनिवास 'राज'
बंगलुरु, कर्नाटक।
१६/२/२१

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