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शहर में जनसंख्या विस्फोट निवारण एवं नियत्रण | Population Explosion Prevention And Control in The City

शहर में जनसंख्या विस्फोट निवारण एवं नियत्रण | Population Explosion Prevention And Control in The City

विधा : अभिव्यक्ति
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शीर्षक : दूसरा मोहम्मद गजनवी
अच्छा है, और यह भी अच्छी बात है कि भारत वर्ष के शहरों में जनसंख्या विस्फोट, व निवारण - नियंत्रण के बारे मे हम जैसे अनियंत्रित मष्तिष्क वालों को भी सोचने व अभिव्यक्ति व्यक्त करने का मौका मिला प्रतियोगिता की कडी के रूप में, जो साधारणतः सरल विषय नहीं है। मैं समझता हूँ कि यह केवल प्रतियोगिता ही नहीं बल्कि एक ऐसा अंतर्देशीय विचार है या गंभीर विषय व्यवस्था के प्रति है जो संसद भवन से निकल कर हम तक पूछ रहा हो कि कुछ तो निवारण का सूत्र होगा। और यही तो गणतांत्रिक अंग की भूमिका है। मैं पटल को इस नाते धन्यवाद देता हूँ कि मेरे निरक्षर मस्तिष्क को भी सुझाव देने का मौका मिला भले आपको पसंद आये या न आये।

भारत वर्ष के शहरों में जनसंख्या विस्फोट, निवारण नियंत्रण

हम सब जानते हैं भारत में वर्तमान समय में लगभग चार हजार शहर हैं। इनमें से भारत में 40 ऐसे शहर हैं जिनकी आबादी 10 लाख से ऊपर हैं और चार सौ के लगभग ऐसे शहर है जिनकी एक लाख से दस लाख के बीच में है। इसी तरह हमारे कृषि प्रदान देश में गाँव की कुल संख्या 2021 तक, 6,28,221 हैं। प्रत्येक जनगणना गांव में कई गांव हैं (टोला या बस्तियों),। भारत में कुल ६४० जिले है और उनमें से जिनमे २५० जिले २०११ की जनगणना के अनुसार अति पिछड़े जिले है।

भारत के शहरों में जनसंख्या विस्फोट के नियंत्रण निवारण

अब इस सामान्य अंक ज्ञान को देखकर भारत के शहरों में जनसंख्या विस्फोट के नियंत्रण निवारण की ओर सोचने से पहले बहुत ही आवश्यक है कि हम बिना भेद भाव के सभी तथ्यों जैसे आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, भौगोलिक आदि परिस्थितियों के विषय पर भी नितांत चिंतन करना चाहिये जो ग्रामीणों को शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर करता है और इन विचारों का गहन अध्ययन व मानसिक सुधार के बिना भारत की स्वतंत्र राजनीति इकाई को कभी भी वैश्विकता के चरम पर नहीं खडा कर सकता, भले ही देश की सुरक्षा व संसाधनों की व्यवस्था में हमने क्यों न बेहद शालीन भरी जीत हासिल करी हो विज्ञान की सहायता से। पर,अब आपको इस छोटी सी समस्या को समझने के लिये पी एच डी करने की जरूरत ही नहीं है जब कि करोडों की संख्या में गाँव से शहरों में पलायन करने वाले उन भारतीय नागरिकों की दुर्दशा स्वतः अपने आँखों से ही देखी है आज से दो वर्ष पहले 2020 मार्च की लॉकडाउन समय काल के समाप्ति के उपरांत।अदृष्य वाइरस कोरोना ने ऐसी दशा दिशा दिखाई कि करोडों गरीब अपने ही घर शरणार्थी सा व्यवहृत होते लगने लगे। शहर के शहर खाली हो गये, और गाँव उनकी प्रतीक्षा में कह रहा था,--बेटा अब तो समझ जाव। बहुतों ने कसमें भी खा लीं, -- ना! मर जाऊँ पर गाँव न छोडूँ।

जब गाँव छोड शहर में जीने का इरादा बनाया

हमें पूछे जाते हैं व्यंग में क्यों मालिक शहर का आनंद समाप्त हो गया? सर, आँसू पोंछना आदिकाल में छूट गया जब गाँव छोड शहर में जीने का इरादा बनाया। शहर भी बनाई, जींस भी पहनी लेकिन वहाँ से भी वो सपने पूरे नहीं हुए जिसके लिये गाँव छोडा था मैं। मेरी नानी से ताऊ तक सब गये रास्तों में लेकिन शहर के किराये के कमरे में ताऊ की फोटो टाँगने को टीन के बक्से ही थे जो वापस आ गयी मेरे साथ लॉकडाउन बाद। और यहाँ पहुँच कर हम देख रहे हैं कि शहर शहर को ही चाप कर मेरे गाँव तक घुस गयी। ये बढते शहर के भौगोलिक हिस्से ने मेरे पडोस के गाँव को इस तरह छुपा लिया जिस तरह कोई द्वीप को महा समंदर ढक ले। ये विलीन गाँव मेरी पुस्तैनी थी, आज तीस बरस बाद भी आँखो के सामने कोई खबरी नहीं मिला जिससे कुछ समझ आती कि ताऊ की जमीं बेची तो किसने और कैसे।

सरकार की उन विफल योजनाओं को दोबारा लागू करनी चाहिए

दोस्तों,चरित तो बनती है बिगडती है। सरकार की उन विफल योजनाओं को दोबारा लागू करनी चाहिए जिसे कभी गाँव के विकास के लिये लागू किया गया था कृषकों की सहायता के लिये।गाँव हो या शहर शिक्षा नीति में परिवर्तन का आधार धनार्जन के साथ साथ मानसिक कुव्यवस्था को भी बदलनी वाली होनी चाहिये जिससे जमींदार और किसानों के बीच की दूरी कम हो। सरकारी दस्तावेजों के पालन करने वालों को भी मजदूर की उपाधि दे और उनका वेतन का भार उसके आला अफसरों से अधिक हो।यह एक ऐसा सुझाव है जो रिस्वतखोरी समाप्त करने को सहायक है। भौगोलिक इकाई को बदलने से पूर्व कम से कम पिचहत्तर सालों की नफा नुकसान को समझ लेना ही श्रेष्ठता का परिचय है, अन्यथा ज्ञान विज्ञान की शिक्षा का मतलब ही क्या?अपने जेब के लिये यदि सात पुस्तों की आय यदि बीस वर्षौ में सहेज सकते हैं तो देश के भविष्य के लिये भी सोचना कर्तव्य बनता है।

रामा श्रीनिवास 'राज
रामा श्रीनिवास 'राज
अतः जितने छोटे छोटे माल्या हैं सबकी हवस मिटाकर गाँवों की पुनर्वास की जानी चाहिये। एक रुपये के मोह में की जाने वाली अन्यायी को भी भय लगे।क्यों कि इसी एक रुपये कमाने को गाँव से पलित होते है।वरना मेरे गाँव की मिट्टी तो आज भी सोना उतना ही उगलती है जितना मेरे गाँव छोडने के समय, चाहे जितनी प्रोडक्ट्स विदेश घूम आये।मेरे गाँव की संपदा कम नहीं है, फैक्टरी बनाने में दिक्कतें क्या है,,,फिर गाँव के इंजीनियर ही तो शहर में फ्लाईओवर और मेट्रो बना रहे हैं...कहीं वोट के आड में खतरे की घंटी तो नहीं मेरे देश को ये समझने दीजिए हम मासुमों को ताकि हम भी तैयार हो जांय अपनी सुरक्षा के लिये,क्यों कि मैं ग्रामीण गंवार हूँ।... भारत का दूसरा मोहम्मद गजनवी। स्वतंत्र भारत में बोलने की आजादी तो है,बस स्वयं को ताजा रखता हूँ।
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©रामा श्रीनिवास 'राज'
बंगलुरु, कर्नाटक

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