Ticker

6/recent/ticker-posts

मानव, धर्म और विज्ञान Human, Religion and Science

मानव, धर्म और विज्ञान Human, Religion and Science

मानव धर्म और विज्ञान
जिसे हम धर्म समझते आए हैं वह वस्तुतः है मजहब़, पंथ, परंपरायें आदि हैं; धर्म एक हट कर 'व्यवहारिक ईश्वरीय तथ्य' है हमारे ऋषि-मुनियों, तीर्थंकर, फकीरों, पैगंबरों ने ऋचाओं, आयत वा पैरेबल्स के माध्यम से कहा- "धारयेति धर्म" अर्थात् धारण करना हीं धर्म है, गुणवत्ता है, नेकि और पवित्र कर्म हीं धर्म है।

प्रत्येक जीव का अपना-अपना धर्म होता है। Every Living Being Has Its Own Religion

जड़़ (तत्व - धातुओं) का भी 'धर्म' होता है।
पशुओं में भी धर्मवत्ता होती है। विकासक्रम के साथ कुछ उन्नत पशुओं में समाजिकता आई। बहुतेरे पशुओं में सौहार्दपूर्णता देखते हैं हम। अग्नि का धर्म है उष्णता प्रदान कर दाह्य पदार्थ को जला देना, दाहक हुई अग्नि की धर्मिता। जल शीतलता प्रदान करता है संपर्क में आ कर। पँचतत्वों से निर्मित यह शरीर और संस्कारों से हमारा मन, इनका भी एक धर्म है, यह निर्विवाद है।

मानव का भी एक धर्म है जो श्रेष्टतम् है, प्यार, सौहार्दपूर्णता, ऐक्य भाव, अच्छे बुरे का अंतर समझ शुभफलाफलकारी सुपथ पर चलना हीं धर्म है। सहृदय और उदारता भी मानव धर्म है, बाधा है धर्म के नाम पर शोषण हेतु सृष्ट अंध विश्वास। मानव को जाति से जोड़ पशुता आएगी। दूहन-प्रतारण-शोषण पार्थक्य-स्पर्धाभाव- आतंकवाद, हिंसा एवं युद्ध का कारण है।

''अंधविश्वास और धर्म" | Superstition And Religion

कोई परंपरागत् मान्यता अंधविश्वास का एक कारण भी तो हो सकता है। पुर्वजों ने चुंकि इस प्रकार किया, अतयेव मुझे भी-- करना चाहिए; यह सोंच गलत भी हो सकती है। उस समय की अवस्था क्या【?】थी, यह उनके सामयिक प्रबंधन के हिसाब से कुछ हो रहा होगा परन्तु आज वह गलत भी तो हो सकता है। यह रुढिवादी सोच गलत है सरासर- समय के प्रतिकूल। सतिप्रथा कभी धर्मिक मान्यताओं का हिस्सा रही थी, पर आज यह कानूनन अपराध और गलत है, अमानवीय है, अतः वहिस्कृत हुआ। अनेक ऐतिहासिक उदहारण हैं, कभी माक़ूल थे तो आज बेतुके भी हैं। यज्ञ-सिखा-सुत्रादि का हीं समझा जाए तो आज उसे ढोना अनुचित प्रतीत होता है हमारे लिए। हर कौम में कमोबेश अंधविश्वास मानवताविरोधी आज भी लोकप्रिय और प्रचलित है। विनाशकारी ताणवडव देख कर भयाक्रांत हो पेड़ एवं प्रकृति को परम अराध्य मान कर "पूजा" करना डौग्मा है।

यज्ञोपवित (जनेऊ)

"यज्ञोपवित" का अर्थ हुआ यज्ञ के समय धारण करने वाला वस्त्र। प्राचीन काल में अन्न प्रचूर था एवं उसको खाने वाले अल्प। खेतों में कटनी के बिना फ़सल सड़ने लगी और नाना प्रकार के संक्रामक रोग फैलने लगे, महामारी फैली- पशु और मानवों की मृत्यु होने लगी।

उस समय के बुद्धिजीवियों ने इस त्रादसी से त्राण हेतु उपाय सोचा कि अतिरिक्त अन्न्नादी को एक गड्ढे में जला दिया जाय। इसे शुभ कार्य माना गया, कारण लाभ था ऐसा सुकृत कर और, जब मृत्यु दर कम हुई तो ख़ुशी से लोग जश्न मानाने में जुट गए। जड़ी-बुटियों से तैयार सोमरस-पान उस समय बुरा नहीं माना जाता था, अमृतसम था। जश्न मनाते हुए लोग जब गड्ढे के करीब आये तो अतिपान से नशे में कुछ लोग गिर कर जल गए और कुछ तो मर भी गए। तब यह तय हुआ की कुछ सत्वित प्रवित्ति वाले (नशे से परहेज करने वाले) हीं गड्ढे पे पास जायेंगे और घृत- सुवासित-चंदन-गोगुल धुपादि से दहन क्रिया संपन्न करेंगे।। मंत्रोच्चार आदि भी आए। यज्ञ कुण्ड और हवि सामग्रियों का पौराणिक उल्लेख भी आया और कार्यक्रमों का हिस्सा बन गया। इसे वैज्ञानिक आयाम देना अब त्रुटिपूर्ण एवम् हास्यास्पद कहा जायेगा। धुँआ प्रदूषण का कारण है, यह मानना पाप कैसे?

कुछ दिन व्यतीत हुए तो नशे में टुन्न कुछेक मस्त हो उन सात्विक लोगों में मिल कर जा पड़े खड्ड में तब यह निश्चय लिया गया कि एक घेरा बना कर परिसर बनेगा जिसमें सिर्फ सात्विक जन (यज्ञ-कर्ता) को हीं प्रवेश मिलेगा और वे सहज दहन (यज्ञ) में दाहक (धृतादि) एवं वातावरण को सुवासित करने के लिए धुप- चन्दनादि (हवी) डाल कर कार्य (हवन) संपन्न करेंगे।

कुछ दिन ऐसा अच्छा चला लेकिन फिर भी धटनाओं पर पूर्ण अंकुश नहीं लग पाया। अंततोगत्वा यह तय हुआ की यज्ञकर्ता 'मृग-चर्म' धारण करेंगे ताकि उनको सब पहचान सकें और जश्न मानाने वाले यज्ञ कुण्ड के पास न जा पाएँ, चौकसी बड़ा दी गई। इस प्रकार ब्राह्मण, यज्ञ-कर्ता के रूप में समाज के सर्वोच्च व्यक्तियों में आ गए। मृग चर्म सहज सुलभ नहीं था अतः कपड़ो के अविष्कार के साथ जनेऊ (यज्ञोपवित) का अनिवार्य सामयिक सुरक्षा हेतु प्रचलन चला।

कोरोना काल में जब लोग भूख से रुग्ण हुए

आज कोरोना काल में जब लोग भूख से रुग्ण हुए, लाखों काल का ग्रास बन मर रहें हैं- हम छू भी नहीं सकते अपने हीं खून, अपने प्रिय को एवं अन्न तो दूर लकड़ी भी दुर्लभ होती जा रही है, तब इस पारम्परिक यज्ञ को ढ़ोने में क्या कोई औचित्य है?
बच्चे दूध बिना कुपोषित हो रुग्ण हो रहे हैं तो धृताहुति की बात क्या हास्यापद नहीं है?

धर्म का अर्थ है धारण करना

धर्म का अर्थ है धारण करना (धारयेती धर्म), आवश्यकता थी समाज को तो जनेऊ बनी, अब जब आप यज्ञ की अहमियत को नकार रहे हो और यज्ञ नहीं करते तो फिर यज्ञ के समय धारण करने वाले वस्त्र को क्यों पहनें?

क्या यह धर्म होगा या फिर सिर्फ धार्मिक सदृश बनने की, दिखावे की चेष्टा? कोई स्वार्थपरता छुपी तो नहीं!

पुरोहित, पादरी, मुल्ला आदि धर्म के ठेकेदार

पुरोहित, पादरी, मुल्ला आदि धर्म के ठेकेदार बन धर्म के नाम पर शोषण हेतु यज्ञोपवित आदि को कर्मकांड का रूप दिये। यज्ञोपवित धारण कर नशा करते बहुतेरे देखे जाते हैं! भ्रष्ट भी बहुतेरे मिलेंगे गटर में। धार्मिक सात्विक लोग क्या मांस - मछली खाते हैं? प्याज-लहसुन व्यवहृत करते हैं? ऋचाओं को पढ़ें, लिखा है प्याज गौ माँस की रसायनिक परिणति से उत्तपन्न हुआ। लहसन को बायें कदम की मिट्टी से पैदा मान तामसिक कहा गया। आज शायद ०.१% भी न मिलें सात्विक तथाकथित धार्मिकों में। कर्म नहीं तो वस्त्र धारण का औचित्य क्या? खान पान नहीं तो ब्राह्मण कैसे?

और, जब यज्ञ हीं अव्यवहारिक है तो फिर ये चिन्हादि क्यों? यज्ञोपवित की उत्पत्ति भारत में नहीं वरन् आर्यों के साथ सिन्धु धाटी के उस पार से उनके साथ आई थी।

वर्ण व्यवस्था हिन्दुओं को कमज़ोर बना लुप्त प्राय करती जा रही है, एतदर्थ, "क्रांतिकारी अंतरजातीय विवाह" की परम्परा (क्रांति) आर्य समाज, आनंद मार्ग आदि वैश्विक संस्थाओं ने हीं तो चलायी। शिव ने पहला क्रांतिकारी विवाह किया आज से लगभग आठ-नौ हजार वर्ष पूर्व।

कुछ मित्रों का कहना है यह मेरी धर्म विरोधि धारणा है.....
वैदिक दर्शन में कहा गया..............सद्गुरु की वाणी "आप्त वाक्य" हैँ। कई अवतार और युग पुरुष, सुधारक आये और सुधार भी किए जनहित और मानव समाज के रक्षार्थ समय समय पर अवतरित हुए, सत्पथ का निर्देशन दिये और हम उसे अपनाये भी...

मृग-चर्म को पतले "बनारसी धागे (सूत)" में किये जाने का कहीं तो नहीं लिखा! "आवश्यकता आविष्कार की जननी" है। गोया, आज के युग में, अभावग्रसिता में इसकी अव्यवहारिकता को क्या नकारा जा सकता है?

कर्म से हीं कोई महान हो सकता है..जन्म से नहीं!!

कान के पीछे दो नसे दबती हैं और मूत्राशय-मलाशय से पुर्णतः विसर्जित होता है... ये अवैज्ञानिक मान्यता है...
चाभी के मुआमले में, कि रिंग सूत्र में अधिक सुरक्षित है, यह बात तो पचती है पर इसे धर्म से जोड़ना आज की तारीख में मेरी नज़र में ठीक नहीं...
कुछ इसे स्वैच्छिक या अधिकार कह सकते हैं, ये भी ठीक है पर मेरी अपनी समझ है की पहनो तो उसकी कद्र करो, दिखावे के लिए या सिर्फ ब्राह्मणत्व का ठप्पा लगाने के लिए नहीं...

मेरे बहुतेरे मैथिल ब्राह्मण मित्र है जिनका नित्य का मुख्य आहार मत्स्यादी है-बंगाल में माछ-भात! अगर यज्ञोपवित धारण कर कोई सात्विक या पूर्ण निरामिष हो जाये तो मैं इसको हिसाब के कुछ अनुकूल समझूं, पर आज यह उचित नहीँ, कारण प्रचूर है कहाँ अन्नादि?

मानव धर्म दिखावे के लिए नहीं वरण पालन करने के लिए हीं बनाया गया है...

मनुष्य तन मिला है तो स्वाद के लिए जीव-हत्या के कम से कम मैं तो एकदम खिलाफ़ हूँ...

'कोरोना' कहर मुँह बाये खडा है लगभग तीन करोड़ परिवार तबाह, आठ लाख पार काल के गाल में समा चुके!! हाँ, औषधि के रूप में किसी भी खाद्य या पेय का व्यवहार अगर उचित है, जीवन की रक्षा हेतु तो यह बात ठीक!

सिखा का उद्भव:

आर्य एसियन क्षेत्र में बाहर से आए थे और इस अविकसित भूखंड की धनाढ्यता समझ आधिपत्य जमा आर्यावर्त रूप दे विकसित किया।

पहले के जमाने में लोग आज की तरह क्नीन सेभ नहीं रहते थे। आश्चर्य होता है जब सुनता हूँ कि तथाकथित देवताओं को देह पर रोम कूप नगण्य होते थे और उससे अधिक आश्चर्य तब होता है जब जटाजूटधारी शिव को कभी क्लीन सेभ तो कभी मोंछ-दाढ़ी में छवि पटल पर देखा जाता है। आपने शायद हीं कभी कृष्ण की फोटो या प्रतिमा में यह सब देखा होगा, हाँ बाल रूप में लट लटकनी अवश्य देखी है या पढ़ी है दोहों में।

आदिकाल में सभी पुरुषों को दाढ़ी-मोछ और लम्बे केश रहते थे।

उस समय कृषि का खाद्यादि की आपूर्ति हेतु समुचित विकास नहीं हो पाया था। मांसहारी थे लोग (?)। शिकार हेतु नियमित रूप से बीहड़ में जाना पड़ता था पुरुषों को। अनुमन निशाना चूक जाने पर हिंसक जानवर शिकारी को पकड़ कर या तो बूरी तरह जख्मी कर देते थे या फिर खा जाते थे।

धटना चक्र चलता रहा, कुछ बिसरा, कुछ नया जुटा भी।

वुद्धिजीवियों ने निवारण हेतु गहन मिमांसा की तो पाया कि अधिकांश आहत अपने लम्बे सर के बालों के झाड़ी में फंस जाने से भाग नहीं पाते थे और आक्रमणकारी पशु दबोच लेता था। तय हुआ की आर्य लम्बे केश नहीं रखेंगे और ब्रह्माण्ड रंध्र के उपर उसे सुरक्षित रखने के इरादे से कुछ लटें छोटी रहने देंगे। और चाकू (आज सेप्टिरेजर, हेयर रिमुभर, ट्रीमर आदि वैज्ञानिक प्रसाधन) व्यवहृत होते हैं। यह केशांश शिखा के नाम से जाना गया। इसी आधार पर बाद में परम्परा निभाते हुए वयस्कों को यज्ञोपवीत के साथ मुण्डन करवा शिखा-यज्ञोपवीत से अलंकृत किया जाता था।

अनार्यों ने इसका अनुशरण बहुत बाद में कर, गुणवत्ता देख हेयर कटिंग के रूप में गहा।

अब बताइये आज शिखा चाहे न चाहे स्वतः आधुनिक पीढ़ी ने इस नियम को ताख पर रख नकार दिया।

मानव, धर्म और विज्ञान Human, Religion and Science
डॉ. कवि कुमार निर्मल, बेतिया

विश्व अर्थव्यवस्था चरमरा गई एक कोभिड से तो औचित्य क्या रह गया यज्ञोपवीत संस्कार का? यज्ञ (यज्+नृ) अर्थ है कर्म, सुकर्म हीं मानव धर्म है। भू, नृप और अध्यात्म यज्ञों की चर्चा भी करेंगे। आज अर्थनैतिक असुंतन में त्राहिमाम् मचा है और न वो रिस्क है व न वो यज्ञ हीं वैज्ञानिक कारण भी रह गया।

पुष्पक विमान, बज्र, नारायणास्त्र आदि अब विज्ञान के तहत् उपयोगिता हेतु हैं, युद्धादि में दुरुपयोग और नर संहार श्लाध्य कदापि नहीं। विज्ञान की ज्वाला समित हो, परमाणु ऊर्जा का उचित उपयोग हो और अधिकतम् उपयोगिता सिद्धांत (मैक्सिमम युटिलाइजेशन थ्योरी) के तहत प्रगति में लगाना उचित है।

डॉ. कवि कुमार निर्मल, बेतिया【बिहार】
9708055684 / 7209833141
k.k.nirmal2009@gmail.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ