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मेरी साहित्यिक-यात्रा : उदय नारायण सिंह My Literary Journey : Uday Narayan Singh

मेरी साहित्यिक-यात्रा : उदय नारायण सिंह My Literary Journey : Uday Narayan Singh

भूमि में पड़ा वीज जैसे उपयुक्त परिस्थिति, समय का सुखद संयोग पाकर अंकुरित और पल्लवित होता है, ठीक उसी तरह व्यक्ति के अंतस में समय-काल के अनुसार साहित्य का वीज भी हृदय गह्वर से प्रस्फुटित हो जन-मानस में अपनी सुगंध बिखेरता है। जब मैं अपने साहित्यिक जीवन का सिंहावलोकन करता हूँ तो पाता हूँ कि 13 वर्ष की उम्र में हीं मेरे अंतर्मन से पाटल पंखुड़ियों-सी कोमल लोक--भाषा"बज्जिका" में एक गीत प्रसवित हुआ। वह दौर भारत-चीन युद्ध के बाद का था। 1963 में छठ पर्व के सुअवसर पर मेरे गाँव तिलक ताजपुर, थाना रुन्नीसैदपुर, जिला सीतामढ़ी में नाटक का मंचन होना था। मैं उन दिनों नवमीं कक्षा का छात्र था। उस नाटक में मंचन हेतु एक झिझिया गीत प्रथमतः लिखा-

"दूर-दूर हो चाउ एन लाई
दूर माओतसे तुंगवा
हँसइत हओ संसार के लोग हो,
नेहरू के पीठ में तू बड़का खंजर भोकला।
पंचशील के कएला लहुलुहान हो। "

उन दिनों यह गीत मेरे गाँव-जवार में लोगों के होठों की शोभा बन गया था। 14 वर्ष की उम्र में जब मैं दसवीं का छात्र था, उस वक्त अपने एक लंगोटिया मित्र ब्रजेश्वर भाई के साथ मिलकर एक नाटक- 'दर्द प्यार का' मंचन हेतु लिखा था, पर किन्हीं कारणों से उसका मंचन नहीं हो पाया।

1969 में जब मैं बी०ए० ऑनर्स (मनोविज्ञान) का छात्र था, तब से ही हिंदी और बज्जिका की पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगा था।मेरी पहली कहानी- "खुदकुशी" 1969 में ही 'मलय' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और उसी वर्ष बज्जिका पत्रिका- 'समाद ' में मेरी दूसरी कहानी 'अक्कील के बलिहारी' प्रकाशित हुई थी। दोनों पत्रिकाओं के संपादक देवेंद्र राकेश थे। 1969 में ही तुलसी जयन्ती के अवसर पर लंगट सिंह कॉलेज के हिंदी विभाग द्वारा- "तुलसीदास हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि" विषयक निबंध छात्रों से आमंत्रित किया गया था। उक्त निबंध प्रतियोगिता में मेरे निबंध ने द्वितीय स्थान प्राप्त किया था और तत्कालीन प्राचार्य डॉ० नवल किशोर गौड़ द्वारा प्रशस्ति-पत्र दिया गया था, पुनः 1973 में निबंध प्रतियोगिता में तत्कालीन कुलपति डॉ० जबार हुसैन द्वारा मुझे प्रथम पुरस्कार एवं प्रशस्ति-पत्र दिया गया।

इसके पूर्व 1970 में ही मेरी कविता 'इरादा' लंगट सिंह महाविद्यालय की पत्रिका- 'वैशाली' में प्रकाशित हुई जो अतिशय चर्चित रही। इसके बाद बज्जिका की सभी तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्रिकाओं यथा- समाद, बज्जिका माधुरी, बज्जिका लोक, बज्जिका वैभव आदि में मेरी रचनाएँ बहुशः बार छपीं और छपती आ रही है। वर्ष 1974 में मेरी नियुक्ति जगन्नाथ सिंह कॉलेज चंदौली, बेलसंड, जिला सीतामढ़ी में मनोविज्ञान व्याख्याता पद पर हुई। उस समय जे० पी० की सम्पूर्ण क्रांति की हवा अतिशय गर्म थी। मैंने भी हवा का रुख किया और जे० पी० आंदोलन में सक्रिय हो गया। उन दिनों मैं रुन्नीसैदपुर प्रखंड जन-संघर्ष-समिति का सचिव था। जे० पी० आंदोलन से प्रभावित होकर मैंने लोक--जागरण हेतु बज्जिका में बहुशः लोकगीत लिखे। इन दिनों मेरे सभी गीत जिला-जवार में बहुत चर्चित हुए। सीतामढ़ी में जे० पी० के मंच से उन गीतों को गाया भी जाता था। उन दिनों लगभग सभी सभाओं में गाए जाने वाले मेरे गीतों की कुछ बानगी देखें:-

"इंदिरा कएले हुए जुलमिया ई जे० पी० से सुधरी"
"फूर होख हो गफूर हमारा बगिया से"

उन समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर साहब थे। यह गीत उन्हीं दोनों को लक्ष्य पर लिखा गया था।

1975 में मैं बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन से सरकार की सेवा में आ गया। अप्रैल 2011 में डिस्ट्रिक्ट मैनेजर बिहार-स्टेट-फूड कॉरपोरेशन के पद से सेवानिवृत्त हुआ। इस कालखंड में स्वतंत्र रूप से कविता लेखन और मंचों पर काव्य पाठ तक ही सीमित रहा। हाँ, 1998 में अपने बाबूजी स्मृतिशेष स्वतंत्रा सेनानी विश्वनाथ प्रसाद शर्मा की पांडुलिपि- 'तिलक ताजपुर इतिहास के आइने में' का संपादन कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया। पुनः 2003 में अपने बाबूजी की दूसरी पांडुलिपि- 'गीता-सार' का संपादन कर पुस्तकीय आकार प्रदान किया।

2011 में सेवानिवृत्ति के पश्चात मैंने अपना निवास मुजफ्फरपुर में बनाया। यहाँ मेरी साहित्यिक गति-विधि परवान चढी। मैं कवि-मंच का अनिवार्य हिस्सा बन गया। मेरी कविताएँ सुनी और सराही जाने लगी, जो सिलसिला आज भी जारी है।

शहर के जिन गुरुजनों एवं मित्रों के आत्मीय संबंध का सुफल मेरी रचनाएं और मेरा साहित्य है, उनमें डॉ० शारदाचरण, डॉ० शिवदास पांडेय, डॉ० आश नारायण शर्मा, डॉ० महेंद्र मधुकर और चितरंजन सिन्हा कनक, जिनकी लेखनी सिद्धता, उदार व्यक्तित्व और कालजयी साहित्य सादर समादृत हैं, का अत्यधिक नेह-छोह मेरे प्रति रहा है। जिन मित्रों की प्रशंसा ने मुझे साहित्य क्षेत्र में निखारा उसमें पत्रकार प्रमोद नारायण मिश्र, देवेन्द्र राकेश, नित्यानंद शर्मा, स्मृति शेष अमरनाथ मेहरोत्रा, स्मृति शेष माधवेंद्र वर्मा, डॉ० संजय पंकज, डॉ० विजय शंकर मिश्र, हरिनारायण गुप्त, सत्य नारायण मिश्र मयंक, ठाकुर विनय कुमार शर्मा, कविवर कृष्ण मोहन प्रसाद 'मोहन ', प्रेम कुमार वर्मा, आचार्य चंद्र किशोर पराशर, सुरेश वर्मा, मिथिलेश मिश्र दर्द, राम उचित पासवान, डॉ० नीलिमा वर्मा, डॉ० लोकनाथ मिश्र, डॉ० विभा माधवी (खगड़िया), डॉ० गणेश प्रसाद पोद्दार (राँची), डॉ० राणा जयराम प्रताप सिंह (सहरसा), डाॅ० ब्रह्मदेव कार्यी (दरभंगा ), अमिताभ कुमार (दरभंगा ) कृष्ण कुमार क्रांति (सहरसा), विकास वर्मा पत्रकार (बिजनौर, उत्तर प्रदेश), रामजी दूबे (कटनी- मध्य प्रदेश) की सदाशयता का मैं हृदय से आभारी हूँ।

ऐसे साहित्य क्षेत्र में मेरे प्रथम गुरु स्मृतिशेष मेरे बाबूजी विश्वनाथ प्रसाद शर्मा ही हैं, जिनकी विद्वता और प्रखर पांडित्य ने मुझे साहित्य सृजन हेतु अनुप्रेरित किया। वे अकसर कहा करते थे "मरो तो ऐसे मरो कि याद जो करे सभी। "

मेरा पहला कविता संग्रह मित्रों की माँग पर 2015 में 'अनुभवा' आया। लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। अच्छी प्रशंसा मिली। लोकार्पण पर्व समारोह में समाचार-पत्रों का कवरेज भी उत्साहवर्धक मिला। शहर के सभी समाचार पत्रों ने प्रमुखता से जगह दी। मेरी रचनाएँ भाषा-भारती, एक नयी सुबह, स्योहारा प्रहरी (बिजनौर), सृजन गवाक्ष, इंदौर समाचार, समाहार, अहल्या संदेश और बज्जिका की पत्रिका, 'समाद', बज्जिका माधुरी, बज्जिका लोक और वज्जिका वैभव, में प्रकाशित होती रही है।

2019 में मेरा दूसरा कविता संग्रह- "रागानुराग" आया। इसी वर्ष "संकल्प सुरभि", और 'प्रगति चक्र' के संपादन का हिस्सा बना। फिर इसी वर्ष 'आधुनिक बज्जिका साहित्यकार, सऽ के प्रतिनिधि रचना ' भाग-2 में मेरे द्वारा प्रणीत चार उपनिषदों के बज्जिका अनुशीलन को प्रमुखता से जगह मिली, जिसे लोगों की खूब सराहना मिली और इसे बज्जिका भाषा के लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी गई। पुनः 2020 में 'संकल्प सुरभि' के प्रधान संपादक के रूप में संपादन का कार्य पूरा किया। इस पत्रिका को अतिशय प्रशंसा मिली। दूरदर्शन से वार्ता भी प्रसारित होती रही हैं। साथ ही, मेरी दर्जनाधिक परिचर्चाएं, संस्मरण और आलेख दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, हिंदुस्तान मुजफ्फरपुर अंक, प्रातः कमल, निर्माण भारती और समाचार वाहिनी में प्रकाशित होते रहे हैं। अभी मेरी निम्न पुस्तकें प्रकानाधीन है:- 

1) 'खुली धरती खुला गगन'
 (कविता-संग्रह)
2) "सवितात्मजा"- (आख्यानक-काव्य)
3) "अमोला"- (बज्जिका कहानी-संग्रह)
4) "बज्जिका के उद्भव और विकास"
(बज्जिका का इतिहास बज्जिका भाषा में)

छंद की बात करें तो मुक्त छंद मुझे पसंद है। मुक्त छंद में कवि को शीर्षासन नहीं करना पड़ता है और नहीं ही अंगुली फोड़नी पड़ती है। यही कारण है कि मेरी कविताएँ मुक्त छंद में होती हैं। मुक्त छंद में भाव एवं कथ्य का संप्रेषण जितनी आसानी और सरलता से हो जाता है ;उतना छंद- युक्त कविताओं में ( आज के दौर में ) संभव नहीं है? साहित्य मनीषी, महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला 'ने कभी कहा था -"मुक्त छंद वह है जो छंद की भूमि पर रहकर भी मुक्त है। मुक्त छंद किसी छंद विशेष का अनुसरण नहीं करता। यह छंद; विषय केन्द्रित होता है तथा उसके भाव -प्रवाह में अविरलता होती है। मुक्त छंद की भाषा -शैली सरल, सहज और सुबोध होती है। तुकांत होने के कारण काव्य सौन्दर्य कहीं से बाधित नहीं होता। मुक्त छंद लिखने का अर्थ कदापि गद्य लिखना नहीं होता। "

मेरी रचनाएँ भी सरल, सरस, सहज और सुबोध होती हैं। मेरी दार्शनिक पृष्टभूमि होने के कारण उनमें दर्शन का समावेश अनायास हो जाता है। मेरी रचनाओं में जीव, शिव और प्रकृति का मणिकंचन संयोग भी प्रमुखता से, मोती के दानो के समान जगमगाते रहते हैं। मेरी रचनाएँ स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा करती हैं क्योंकि मेरी मान्यता है कि स्थूल प्रकृति सूक्ष्म का ही प्रकटीकरण, विस्तार और माया है। सूक्ष्म मायापति है तो स्थूल उसकी माया है। मेरी रचनाएँ बिना किसी संदेश या प्रेरणा के नहीं होतीं। उनमें युग-बोध के स्वर भी निपुणता से गुंभित रहते हैं। इसीलिए साहित्य मनीषी, प्रणय गीतों के बेताज बादशाह एवं मूर्धन्य साहित्यकार डाॅ शिवदास पाण्डेय की उक्ति है -"उदय जी की कविताएँ समकालिक कम सर्वकालिक ज्यादा होती हैं। " साहित्याकाश के मार्तण्ड तथा साहित्य शिखर पुरुष डाॅ महेन्द्र मधुकर ने कहा-" उदय जी की रचनाओं में छठी इन्द्रियों का मुखर- विलास अनायास दृष्टिगोचर होता है "। बज्जिका एवं हिन्दी के समर्थ रचनाकार ज्ञानवृद्ध वरिष्ठ कवि और नवगीत के पुरोधा डाॅ शारदाचरण जी का कहना है --" मौलिक भाव, अर्थ -साधर्म्य, शब्द -शिल्प की सहजान्विति, भाषा की सहजोक्ति, मोहक बिम्ब -विधान तथा दर्शन -बोध उदय जी की रचनाओं के शाश्वत -स्वर तथा प्राण तत्व हैं। " हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवि और साहित्यकार डाॅ आश नारायण शर्मा ने कहा है -"उदय जी की कविताएँ और भाषा -शैली, पायल की रुनझुन - सी बजती चलती है, जो किसी को भी अनायास अपनी ओर तुरंत मोहित कर लेती है। " हिंदी साहित्य की जानी -मानी विदुषी, प्रशस्तित और सुधी समीक्षिका डाॅ विभा माधवी का मानना है -"भाव एवं भाषा की उत्कृष्टता उदय जी की कविताओं के प्राण -तत्व हैं। इनके शब्द संयोजन समुद्र की लहरों की तरह मन -प्राणों को तरंगित तथा मयूर पंख के समान आकर्षित करते हैं। भीड़ से अलग इनकी रचनाओं की एक अलग पहचान है, साथ ही इनकी कविताएँ प्रकृति और पुरुष के मिलन का सुस्पष्ट बिंब खींचती हैं, जो ज्ञात से अज्ञात की यात्रा करती हुई दर्शन की भूमि पर खड़ी होती है। "

साहित्य सेवा और समाज सेवा दोनों एक ही तूला के दो पलड़े हैं। मैंने समाज सेवा -हित भी अपने को अनेकों संस्थाओं से जोड़ रखा है। यथा- अध्यक्ष, सनातन धर्म, जागरण मंच, मुजफ्फरपुर, संगठन-मंत्री, सीनियर सिटिजन्स कौंसिल मुजफ्फरपुर, उपाध्यक्ष, बज्जिकांचल विकास पार्टी, प्रधानमंत्री, जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन, मुजफ्फरपुर, उपाध्यक्ष बज्जिका विकास मंच मुजफ्फरपुर, उपाध्यक्ष दिनकर परिषद मुजफ्फरपुर एवं उपाध्यक्ष साहित्य साधक मंच, सहरसा, बिहार आदि।

मेरी साहित्यिक-यात्रा : उदय नारायण सिंह My Literary Journey : Uday Narayan Singh

साहित्य साधना के क्षेत्र में बहुशः सम्मान भी मिले;यथा --'गाँव-गौरव सम्मान 1999, स्वतंत्रता सेनानी पंडित भूरामल शर्मा साहित्य शिखर सम्मान 2014, भारतीय साहित्यकार संसद द्वारा 'सच्चिदानंद हीरानंद', साहित्य शिखर सम्मान 2014, भारतीय साहित्यकार संसद समस्तीपुर द्वारा 'अयोध्या प्रसाद खत्री' सम्मान 2015, महाकवि आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जन्मशताब्दी 'सारस्वत सम्मान' 2016, कविवर गोपालसिंह नेपाली- 'साहित्य-साधक' सम्मान 2017, कौमुदी महोत्सव साहित्य सेवी सम्मान 2017, डॉ० आर० पी० मिश्रा राष्ट्रीय सार्थकता सारस्वत सम्मान" 2020 दर्जनाधिक सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र।

मेरी साहित्यिक-यात्रा : उदय नारायण सिंह

मैं अंतिम साँस तक साहित्य-सेवा करता रहूँ, बस यही कामना है, यही अभिलाषा है। ईश्वर कामना पूर्ण करें और संबल दें।
यही है मेरे अब तक के बहत्तर वसंतों की साहित्यिक यात्रा।
 
उदय नारायण सिंह
कृपा कुंज
बी० ए० पी० दुर्गास्थान
मालीघाट,
मुजफ्फरपुर,
बिहार,
पिन-842002
मोबाइल नंबर- 6200 154 322

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