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निकल पड़ा मैं खुदा को खोजने (कविता)

Nikal Pada Main Khuda Ko Khojne Kavita

दिनांक : 12 जून, 2025
दिवा : गुरुवार

विषय : निकल पड़ा मैं खुदा को खोजने

(कविता)

निकल पड़ा हूॅं मैं खुदा को खोजने,
खुद को तो अबतक खोज न पाया। 
खोजते खोजते थक गया था जब,
तो मन ही मन में मैंने बुदबुदाया ‌।।
मैं क्या मानूॅं अब अपने आपको, 
स्वयं को अब धूर्त कहूॅं या मूर्ख।
रो पड़ा मेरा यह अब अंतरात्मा,
अंखियाॅं बनी थीं यो ही सूर्ख
खोदते खोदते खोदता अंतर्मन,
अपने अंतर्मन को बहुत ही खोदा।
खोदते खोदते तथ्य निकला एक ही,
जिसे मैंने निज अंतर्मन में गोदा
साबित हुआ हूॅं दोनों ही तो अब,
धूर्त बनने में मैं तो मूर्ख बना हूॅं।
उद्देश्य लेकर आए कर्म पूरा करने,
सत्यमार्ग त्यागने हेतु ही तना हूॅं
जिसने सृष्ट किया बाग सजाने हेतु,
मैं उसीका पता अब लगा रहा हूॅं।
त्यागकर कर्म रूपी बगिया अपनी,
खुदा के खोज में खुद को भगा रहा हूॅं
आया था मैं जो मार्ग में अपनाने,
अपने मार्ग से ही मैं भटक रहा हूॅं।
खुरदुरे अमृतफल को त्याग कर,
सुंदर विषफल ही मैं गटक रहा हूॅं
पूर्णतः मौलिक एवं 
अप्रकाशित रचना 
अरुण दिव्यांश 
डुमरी अड्डा 
छपरा ( सारण )
बिहार। 

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