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हज से लौटने के बाद - Hajj Se Lautne Ke Bad

हज से लौटने के बाद...!

        हर साल की तरह इस साल भी हज का मौसम ख़त्म हो गया। दुनिया भर के सभी सम्मानित हाजियों को मेरी तरफ से लाखों-करोड़ों मुबारकबाद। माशाअल्लाह, अब तो हर साल हाजियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, यानी मुसलमानों की आर्थिक स्थिति बेहतर हो रही है। इस्लाम में हज पांचवां रुक्न (स्तंभ) है। हर धनी व्यक्ति पर हज फर्ज है। ज़्यादा धनी लोग तो अमूमन हर साल नफली हज और साल भर उमरा करते रहते हैं, और कमजोर लोग हज की तमन्ना लिए धन जमा करते रहते हैं। अल्लाह से दुआ है कि वह सभी लोगों के हज और उमरा को कुबूल करे, आमीन।

सरफराज आलम



      इस्लाम के पांच स्तंभों में हज पांचवां स्तंभ है— तौहीद, नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज। मेरी समझ में तौहीद एकेश्वरवाद का एलान और इकरार है, नमाज अल्लाह की इबादत का इज़हार है, ज़कात साल भर की हलाल कमाई का सदक़ा है, रोज़ा शरीर की सफाई और साल भर के गुनाहों का कफ्फारा ( प्रायश्चित ) है, और इस्तिताअत (सामर्थ्य) होने पर हज करना पूरे शरीर का तज़किया (शुद्धिकरण) है। इस तरह, तौहीद और नमाज़ के बाद ज़कात और रोज़ा हर साल अल्लाह की तरफ से मोमिनों को मिला हुआ वह बोनस है, जिससे बार-बार पाकी हासिल करने का मौका नसीब होता है। फिर पवित्र एवम पारदर्शी हो जाने के बाद, यानी जान और माल की पाकीज़गी के बाद, हज के लिए जाते हैं। तब जाकर एक पूरे मोमिन की शख्सियत सामने आती है। इसी के बारे में हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि " हज के बाद इंसान नवजात बच्चे की तरह पाक हो जाता है "।  

       हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: " जिस शख्स ने सिर्फ अल्लाह की रज़ा के लिए हज किया और इस दौरान कोई बेहूदा बात या गुनाह नहीं किया, तो वह (पाक होकर) ऐसा लौटता है जैसा मां के पेट से पैदा होने के दिन (पाक था)।" (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)  

     इस हदीस में दी गई खु़शख़बरी के मुताबिक, हर हाजी को अपना जायज़ा लेते रहना चाहिए कि क्या हज से लौटने के बाद बाकी जिंदगी में वह उसका पैकर (नमूना) नज़र आता है ? गौर कीजिए— एक मासूम बच्चा झूठ, चोरी, रिश्वत, सूदखोरी, फरेब, तअस्सुब (पक्षपात), मसलक और मज़हब के भेदभाव से पाक होता है, इसलिए सारी दुनिया उसे प्यार करती है, उसे मासूम समझती है। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या आज उमरा और हज से लौटने वालों में हम वह कैफियत (एहसास) पाते हैं, जिसकी बिना पर सारी दुनिया उनसे प्यार करे ? हर हाजी को बार-बार यह सोचने की जरूरत है। कितनों को तो हज के बाद भी मामूली सांकेतिक पहचान (दाढ़ी) रखने की भी तौफीक़ नहीं होती। ज्यादातर की जिंदगी में जरा सा भी कोई बदलाव नहीं आता। कितनों की जिंदगी में ख़राबियां और बढ़ जाती हैं। बहुत कम लोग हैं जिनकी जिंदगी में इंक़लाब ( बदलाव )आता है। आख़िर ऐसा क्यों होता है ?  

     मैं समझता हूं कि नियत की पाकीज़गी और हलाल माल कमाना, हज के दो सबसे कीमती अज्ज़ा (हिस्से) हैं, जिसका पास-ओ-लिहाज ( निर्वाहन )अक्सर लोग नहीं कर पाते। दिखावे की बात तब और बढ़ जाती है, जब लोग हज से लौटने के बाद जलसे और वअज़ (उपदेश) की महफिलें सजाकर नाम-ओ-नुमायश बटोरना चाहते हैं और "हाजी साहब " कहलाते हैं।  

     आगे बढ़ें तो अक्सर हाजी हज पर जाने से पहले जिससे चाहते हैं माफी मांगते हैं, और जिससे माफी मांगनी चाहिए, उससे बच-बचाकर निकल जाते हैं, इल्ला माशाअल्लाह
( जिस को अल्लाह बचाना चाहे )। ज़्यादातर घरों में वसीयत (विरासत) का झगड़ा बरक़रार रहता है, और हाजी साहब हज को चले जाते हैं। हर हाजी को चाहिए कि थोड़ा रुककर सोचे और हर तरह के गुनाहों से पाक होकर ही हज का सफर करे, वरना ऐसी हालत में लौटने के बाद मज़ीद (और अधिक) गुनाह में मुब्तिला होने का इमकान बढ़ जाता है। जिस तरह गैर-मुस्लिम गंगा स्नान को हर पाप से मुक्ति का ज़रिया समझते हैं, उसी तरह कुछ लोग शायद हज को गंगा स्नान की तरह समझते हैं— गुनाह कर लेने के बाद हज कर लिया, सारे गुनाह माफ हो गए।  

     हाजियों की एक बड़ी तादाद ऐसी भी मिलेगी जो कई बार हज करने के बाद भी अपनी औलाद की शादी में मोटी रक़म और दहेज का सामान वसूल रहे हैं। दूसरी तरफ, बहुत लोग ऐसे भी हैं जो हज करने के बाद माशाअल्लाह अपनी जिंदगी पूरी इंसानियत के लिए मिसाली बना लेते हैं। हज तो हकूकुल्लाह (अल्लाह के अधिकार) है, इसमें हुई कोताहियो ( कमियों )को अल्लाह माफ कर देने पर पूरी तरह क़ादिर है, लेकिन अगर हकूकुल-इबाद (बंदों के अधिकार) में कोताहियॉ रह गई, तो अल्लाह तआला हरगिज़ माफ नहीं करेगा।  

      क्या हज कर लेने के बाद गुनाह-ए-कबीरा (बड़े पाप) भी माफ हो जाते हैं ? यह एक सवाल है हम सबके लिए। अगर ऐसा है, तो बड़े-बड़े कबीरा गुनाह करके हज कर लें, और मासूम बच्चे की तरह पाक-ओ-साफ हो जाएं...! क्या इस्लाम हमें ऐसा उसूल सिखाता है ? तो फिर कुरआन का एलान कि " ज़र्रा-ज़र्रा का हिसाब देना होगा ", क्या मतलब रखता है ? हर छोटे बड़े कामों का हिसाब देना होगा।बहरहाल, हर अमल का दारोमदार नियत पर है। अल्लाह से दुआ है कि वह मेरी इन बदगुमानियों को क्षमा कर दे।  


      हमारा मक़सद उन तक़ाज़ों (मांगों) को याद दिलाना है, जिनको अदा किए बिना हज का सवाब तो मिल जाएगा, लेकिन मक्का और मदीना का इंकलाबी पैग़ाम दुनिया को हरगिज नहीं पहुंचेगा, बल्कि गैर-कौमों को यह पैगाम मिलेगा कि जिस तरह दूसरे मज़हब के लोग देवस्थानों या वेटिकन चर्च आदि जाते हैं, उसी तरह मुसलमान भी मक्का और मदीना का एक मुकद्दस सफर करके आते हैं। इसलिए कि जिस तरह दूसरों के अपने मज़हबी मक़ामात से लौटने के बाद उनकी जिंदगी में कोई इंकलाब नहीं आता, मुसलमान की जिंदगी में भी कोई इंक़लाब नहीं आता है। हां, कुछ लोग दिखावा के लिए दाढ़ी रख लेते हैं, इल्ला माशाअल्लाह। एक साहब ने कहा कि हर इंसान की शख्सियत उसकी ज़ाती कोशिशों से अपने घर में ही बनती है, और हज से लौटने के बाद भी ज़ाती कोशिशों की बुनियाद पर ही शख्सियत में निखार आता है। मेरे ज़हन में यह सवाल पैदा हुआ कि आखिर ऐसा उन्होंने क्यों कहा?  

      यहां यह बात अच्छी तरह वाजे़ह हो जाती है कि हज और उमरा करने वालों और दुआएं करने वालों में हर साल इज़ाफ़ा के बावजूद कोई दुआ कुबूल क्यों नहीं हो रही ? क्यों यह उम्मत मुसलसल (लगातार) ज़िल्लत-ओ-रुसवाई के गढ़े में गिरती जा रही है ? हज से पहले भी और हज के बाद भी गिड़गिड़ा कर दुआएं मांगी जाती हैं, लेकिन फिर भी हम ज़लील-ओ-ख्वार हैं। फिलिस्तीनी मज़लूमों के लिए भी दुआएं मांगी गईं, फिर भी अभी तक वहां के यतीम बच्चों और बेवाओं की परेशानियां कम नहीं हो रहीं। पता यह चला कि हमारे सफर का नुक़्ता-ए-आगाज़ (शुरुआती बिंदु) ही गलत है। जब तक आमदनी मुकम्मल हलाल नहीं होगी, तब तक हज, क्या कोई दूसरी इबादत कुबूल ही नहीं होगी।  
मैं समझता हूं कि एक तरफ हराम माल की फरावानी (बहुतायत) से दिल-ओ-जिगर अब वह कैफियत महसूस नहीं कर पाता, वरना मक्का और मदीना वे मक़ामात हैं, जिसकी मिट्टी भी असर रखती है। 

      हम यह भी नहीं कहते कि आप हरगिज नफ्ली हज या उमरा न करें। हम सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि आप जिंदगी में अगर सिर्फ एक हज-और-उमरा कम कर लें और बाकी पैसा उम्मत के उन अफराद (व्यक्तियों) के हवाले कर दें, जो परेशान हाल को तालीम दिलाने, दावत-ओ-तबलीग, इस्लाह-ए-मुआशरा (समाज सुधार), मीडिया और टेक्नोलॉजी के जरिए अवाम के जीवन स्तर को ऊपर उठाने की कोशिश कर रहे हैं, तो इंशाअल्लाह कौम की तकदीर बदल जाएगी।  

      ऐसे मालदार लोग, जो एक से ज्यादा बार हज करते हैं, क्या उन्हें यह एहसास नहीं होता कि अपनी मिल्लत में ही हजारों लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए भी परेशान हैं ? क्या उनकी मदद मालदारों पर लाज़िम नहीं है ? अल्लाह ने मालदारों के माल में गरीबों का हिस्सा रखा है, जिसको अदा न करने का वह हिसाब लेगा। क्या ऐसे हाजी अकेले जन्नत में चले जाएंगे ? इस तरह की अनेक सामाजिक समस्याओं को हल कर के इंसान अल्लाह को अधिक प्रसन्न कर सकता है। 


       जिन घरों में जहेज (दहेज) का हराम माल जमा हो, जिस घर में सूद और रिश्वत का माल जमा हो, सूद पर कर्ज़ लेकर शानदार घर, गाड़ी और दूसरी अश्या ( वस्तुएँ )जमा की गई हों, जिस कमाई के लिए झूठ बोलना जाइज़ कर लिया गया हो, जिन घरों में ऐसी-ऐसी नई तक़रीबात (रस्में) इजाद कर ली गई हों, जिनको न अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पसंद किया, न उनके सहाबा (साथी)(रज़ियल्लाहु अन्हुम) ने, ऐसे घरों के अफराद जब हज-पर- हज और उमरा-पर-उमरा करते हैं, तो न सिर्फ यह कि बैतुल्लाह ( खाना- ए -काबा ) का तकद्दुस (पवित्रता) ख़राब होती है, बल्कि इस्लाम की अज़ीम इबादतें दुनिया वालों के लिए बाइस-ए-तमस्ख़र (मज़ाक का कारण) बन जाती हैं।  

     कुबूलियत-ए-हज की सबसे बड़ी निशानी यह है कि इंसान गुनाहों वाली जिंदगी को छोड़कर नेकियों वाली जिंदगी इख्तियार करे। अपनी जिंदगी के हर एक पल को अल्लाह के अहकामात ( हुकुम का बहुवचन ) और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मुबारक तरीकों में ढाल ले। हकूकुल्लाह ( बन्दों पर अल्लाह का अधिकार ) और हकूकुल इबाद ( बन्दों पर बन्दों का अधिकार ) की अदायगी में कोताही न करे। हर वक्त अपने दिल को इबादत के लिए तैयार रखे, अपनी जुबान को अल्लाह के ज़िक्र से तर रखे, हर वक्त अल्लाह की रज़ा पेश-ए-नज़र हो, कौमी, इलाकाई और ख़ानदानी रसूमात पर इस्लामी तरीके को तरजीह दे। स्वम से अनजाने में अगर गुनाह हो जाए, तो फौरन उनसे तौबा करे। गरीब, रिश्तेदार, मुफलिस, नादार, मसाकीन, यतीमों और ज़रूरतमंद लोगों की हत्तल-इमकान (जहां तक संभव हो) मदद करे। मज़लूमों की दाद-रसी ( सेवा )करे। शरीअत के अहकामात पर अमल करे और गैर-इस्लामी कामों और लायानी (बेकार) बातों से खुद को बचाने की फिक्र करे।  

    अलग़र्ज़ (संक्षेप में), इस आयत की अमली तफ्सीर
 ( व्याख्या )बन जाए:  
    " ऐ ईमान वालो..! पूरे के पूरे इस्लाम में दाखिल हो जाओ।" (कुरान : सूरह अल-बक़रा: 208)  

   लेखक : सरफराज आलम, पटना- 800007
   राब्ता (संपर्क): 8825189373
   मेल : sarfarazalam1965@gmail.com

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