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मंथन : माना तुम अभिमानी मानिनि कविता भी तो

मंथन : माना तुम अभिमानी मानिनि कविता भी तो


a sad girl in dark room for brainstorm


मंथन
*****
माना तुम अभिमानी मानिनि कविता भी तो।
अंतस क्रीड़ा का अधिकार मान अभिमान से साकार।
करते क्यों वंचित कवि होवे कविता भी साभार।

कवि तुम कविता के प्राण प्राणों की मृदु,

गुंजार मूक प्रणय की गुंजन बने नयन का अनजान।

प्राणों का स्फूरन ही देता स्मिता को जीवन।
बूंद तो बस बेमोले।
बन मोती होती अनमोल शीप बन,
अपना लो वो नीर विकल बहे कहता निज पीर।
माना कविता है उलझन हां कवि कविता उलझन।
भूलते क्यों प्राणों का विकल गान,
जिसकी तुम पहचान बन दृष्टा,
देखो परिवेश त्याग दो मिथ्या आवेश।
अंतस मंथन चेतना का जो स्पंदन प्राणों को,
दो एक राहत तुम करते संशय कवि कविता होती आहत।
बंधे रहने दो आत्म के कोरे फड़फड़ाओ पन्ने,
इस भूली पुस्तक के रंग दो गुलाबी,
फीके परिधान को छुड़ाना न आंचल
अगर उलझे कंटून में भी।
तोड़ोगे दर्पण तो खंड खंड में झांकोगे अपने को ही।
यह चुंबक यह आकर्षण बनेंगे स्वयं आलंबन लिखेंगे खुद परिभाषा।
(स्वरचित)
कौशल्या लाहिरी
मुजफ्फरपुर बिहार

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