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प्रकृति और प्राणी दोनों का होली Prakriti aur Prani Donon Ki Holi

प्रकृति और प्राणी दोनों का होली

फागुन मस्ती का महीना है, इस महीने समस्त प्रकृति पुष्पों, किसलयों की श्रृंगार-सज्जा से आनन्द-पुलकित हो जाती है। आम की मधुमती मंजरियों का झूम-झूमकर सृष्टि के प्राणों में मादकता का संचार करना, कोयल का बागों-वाटिकाओं में पंचम राग से कूकना, सरसो का वासंती फूलों के द्वारा इठलाना, खेतों में तृप्ति का उपहार लिए गेहूं की फसल का समर्पित होना, खिले हुए फूल पर भौरों का मंडराना आदि की प्राकृतिक उल्लास राग रंग चढ़ा देती है। आनन्द और उल्लास का पर्व होली से कुमकुम, अबीर-गुलाल, चंदन और सुगंधित अंग रागों से धरती-आकाश अनुरंजित हो जाते हैं।

गांव में इस अवसर पर मंजर से लदे आम के टहनियों पर कोयल की कूक मन को मुग्ध और तन को बेसुध करती है, यौवन मदमाता है। प्रकृति और प्राणी दोनों के मन एक हो जाता है। किसानों व मजदूरों के घरों में नये अन्न का भंडारण होता है। वे खुशी से झूमते हैं।

होली के रुप में मनाया जानेवाला यह त्योहार जाड़े को विदाई और ग्रीष्म को खुला आमंत्रण देता है। प्राचीन काल से देशभर में इस पर्व की परंपरा चली आ रही है, किंतु समय की करवट के साथ इस रंगीले त्योहार की शालीनता और सौम्यता में बहुत अधिक बदलाव आ गया है। हर्षोल्लास और आनंद के इस पर्व की मौज-मस्ती अब वैसी नहीं रही। असली अबीर गुलाल और रंगों के लुप्त होने के साथ ही हुड़दंग भरी भावनाओं का भी लुप्त हो गया है। लोभ- लालच की काली छाया ने जकड़ लिया है। आपस की दूषित होती भावनाओं ने होली के ठहाके को ग्रस लिया हैं। रईस वर्ग कि शहरी पारंपरिक होली में बेढंगा हरकतें एवं फूहड़ जुमलों का समावेश हुआ है। ज्यादातर शहरी युवा या तो होली की मस्ती शराबखाने, जुआघरों व होटलों तथा क्लबों में तलाशते हैं या फिर खोटी नीयत से कमसिन लड़कियों और युवा महिलाओं के संवेदनशील अंगों पर गुब्बारे तोड़ने-जैसी शर्मनाक हरकत करते हैं। बुरी नीयत वाले ऐसे युवा पराई औरतों से छेड़खानी करते हैं तथा अश्लील हरकतें करते हैं। पहले शहरी स्त्री-पुरुष बिना दुर्भावना की होली खेलते थे, अब ऐसा करते हुए डर लगने लगा है।

गांव की होली भी अब सिमटी-सिमटी नजर आती है। कुछ वर्षों पहले तक वसंत पंचमी के दिन से होली की गीत गाने का शुरुआत हुआ करता था। जो प्रतिदिन शाम को अभ्यास के रूप में गाया जाता था यह प्रक्रिया तब-तक चलते रहता था जब तक कि होली नहीं आ जाए। होली के दिन पूरे उत्साह के साथ गीत गाने की यह परंपरा लगभग अब खत्म होने के कगार पर। हां इसका स्थान डीजे ने ले लिया है, जो मेरे जैसे लोगों को तो बिल्कुल पसंद नहीं है। ना जाने क्यों डीजे का कर्कश आवाज युवा को आकर्षित करती है, जबकि मीठी आवाजें मनुष्यों को हमेशा से प्यारी रहीं हैं। तरह-तरह की लकड़ियों से होलीका दहन करने की परंपरा भी अब नाम मात्र रह गया है। कुछ खास लकड़ियों को जलाने से वायु प्रदूषण समाप्त होता है। पहले होलीका दहन में इन लकडियों का होना अनिवार्य माना जाता था। पर अब ऐसा नहीं होता है। खैर जो भी हो लेकिन बच्चों का हुड़दंग अब भी यथावत लगता है। पिचकारी भरकर भागते नंग-धंडग बच्चे मिट्टी के साथ मिट्टी होकर खूब हुड़दंग मचाते हैं। मस्ती में सराबोर हो कर आपस में ढेरों हंसी-ठिठोली करते है।

होली के इंद्रधनुषी रंगों में आकंठ डूबने और उसका पूरा आनंद उठाने के लिए टूट चुकी श्रेष्ठ परंपराओं को पुनः स्थापित करना होगा। साफ सुथरे आयोजनों द्वारा होली के गरिमापूर्ण अतीत को लौटना हो गा। पुरखों की इस अनमोल विरासत को भौतिकतावाद के चंगुल से छुटकारा दिलाने पर ही हमारी बेहतरी है।

आपको और आपके तमाम चाहने वालों को होली की हार्दिक-हार्दिक शुभकामनाएं।
आलोक प्रेमी
9504523693
भदरिया, अमरपुर, बाँका

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