एकाकीपन से परम पुरुष हुए जब अति उदास : आध्यात्मिक काव्य
आशा का परचम्
एकाकीपन से परम पुरुष हुए जब अति उदास।
ऊब किए प्रभु- स्वमनोरंजन हेतु सृष्टि विकास।
थी आशान्विता- तुष्ट करेगें त्रिदेव होगा सकास।
ब्रह्माण्डिय सात्विकता का परचम्- ध्वज लहराएगा।
तमसा प्रचण्डता- तारक ब्रह्म अवतरित हो आएगा।
महाशुन्य से ब्रहण्ड रचना, जागतिक् घटना।
‘परम् ब्रह्म-एषणा’-भूमामन की अभिव्यक्ति।
समष्टि में लुप्त हुई समस्त- अव्यक्त "व्यष्टि"।
धूम्र-वर्ण निहारिका, अतंत व्योम दृष्टव्य हुआ हमारा।
चकित तारे- हटात् उभरा अशुभ एक पुच्छ्ल तारा।
धूम्रकेतु, सप्त-ॠषि, सौर्य मण्डल और निहारिकायें।
अतुल सृष्टि का ब्रह्मचक्र संचर प्रतिसंचर धारा चलायें।
सौर्य-मण्डल मात्र सहस्रांश सकुंचित विराट भूमामन।
अणु-चेतन अभिव्यक्त- अव्यक्त प्रकुंचन-विस्तारण।
अदृश्य सरल तरंगे परिव्याप्त- कठिन गणना।
ब्रह्माण्ड की अद्भुत अनंत विशालकाय रचना।
सृष्टिऊद्भव चराचर व्याप्त हरी सृष्ट ये सपना।
उस अनंत का यह भूमण्डलीय आकर्षण,
वसुंधरा का जल-थल-नभ का विस्तारण।
प्रभुवर कृपा अहेतुकी- श्नेहिल आमंत्रण।
सृष्टि के नियम सुनिश्चित, स्वतः नियंत्रित।
सुकृत होते संकेत- अपभ्रंश हों वा विकृत।
ब्राह्मि-भाव से मन को करना है अभिमंत्रित।
पञ्च-तत्व से जटिल मानव काया हुई रचित।
मानव मन की सीमा- अपरिमित अतिकठिन समझना।
आश्चर्यजनक है यह जगत्- अपार विचित्रा यह बिधना।
संस्कार अर्जन- संस्कार क्षय मिश्रित यह रचना।
कर्म, प्रारब्ध- फलाफल पू्र्वनिश्चित रे समझना।
हर प्राणि दग्ध हैं आज- दुखित अश्रुपूरित।
कुपित ब्रह्म- सुधर-कर ले रे मन प्रायश्चित।
महाविनाश का भय करता मन विचलित।
चिंता की गति, क्यों नहीं हो पाती त्वरित।
सम्मोहन, उच्चाटन, वैराग्य अनूठा।
किंकर्तव्यविमूढ़ मानव मन ठिंगना।
अंगीभूत करता भयाक्रांत हो करता जड़ पूजन।
महासम्भूति के मार्ग-दर्शन का यह है अपमान।
सत्य नहीं किंवा, है यह मिथ्या धारणा।
दो तारक ब्रह्मों का समकालीन आगमन्।
सुक्ष्म- स्थुल का अविराम मनन् - चिंतन।
सृष्ट-जगत् अणु-परमाणु का कायांतरण।
अवतरण प्रभु का- संयुक्त हो अणु-चेतन।
आसक्ति-विरक्ति का अंतर्द्वंद्व,
आदि-अंत का रहस्य अज्ञात,
विज्ञान की अनंत अभिलाषा।
बुद्धिजीवी की अंनंत जिज्ञासा।
मृत्यु पर्यंत ज्ञान पाने की आशा।
आत्मा परिगमन, कायांतरण- वृहत अभेद्य चक्र।
मस्तिस्क सिमित, मार्ग सहज नहीं ये अगम्य वक्र।
झंझावात जनित- दंभ प्रचण्ड का हो समन।
बाडवानल की प्रचण्ड ज्वाला- समन है भ्रम।
प्रभु-चरण में कर बँधु पुर्ण-आत्म- समर्पण।
मनसा होवें विशुद्ध -पारदर्शी हो मन दर्पण।
आत्मा-परमात्मा का हो अद्भुत यह मिलन।
आशान्वित हों हम लहराएगें सत् परचम् ।।
डॉ. कवि कुमार निर्मल
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